एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी का खर्चा चलता था।
एक दिन वे स्वास्थ्य और भोजन पर बोल रहे थे। तरकारियों के गुण-दोष बता रहे थे। बैंगन के बारे में उन्होंने बताया कि इस तरकारी में दोष ही दोष हैं। उन्होंने विस्तार से बैंगन के दोषों को गिनवाया। प्रवचन समाप्त हुआ तो पण्डित जी ने उस दिन की दक्षिणा चौकी से उठाई और भोजन के पटले पर आकर बैठ गए।
पण्डिताइन ने भोजन की थाली सामने रखी। उसमें दाल-रोटी और चटनी थी।
आज कोई तरकारी नहीं बनाई?-पण्डित जी ने पण्डिताइन से पूछा।
-बनाई तो थी, पर फेंक दी।
फेंक काहे को दी?
आपका प्रवचन सुनकर...आज हमने बैंगन की तरकारी ही बनाई थी। आपने इसके दोष ही दोष गिनाए तो हमने सोचा बैंगन का सेवन हानिकारक है, इसलिए फेंक दी।
अरे भागवान! हम तो सुननेवालों को देखकर सोच-समझ कर बोलते हैं। आज वह नुक्कड़ वाला मोटा हलवाई भी प्रवचन सुनने आया था...सब्जी बाजार में जब भी वो मिला तो मैंने हमेशा उसे बैंगन ज़रूर खरीदते देखा। मैं समझ गया कि बैंगन उसे बहुत पसन्द है। मोटापे के कारण वो तरह-तरह की व्याधियों से घिरा तो रहता ही है। हमने तो यही सोच-समझकर बैंगन के दोष गिना दिए। वह दक्षिणा भी अधिक दे गया।
पंडिताइन अवाक् उनकी बात सुन रही थीं।
प्रवचन का यही तो चमत्कार है भागवान! हमें उचित-अनुचित से क्या लेना-देना...बात ऐसी कहो जो मन के गड्ढे में पानी की तरह समा जाए। तुम तो मूरख हो मूरख, भागवान! उठा के बैंगन की तरकारी फेंक दी।
तो और क्या करती?
अरे चौकी की बात चौकी की बात है, उसका चौके से क्या लेना-देना?
बंदर
आदमी बंदर की औलाद है!
बंदर से भी पूछ लो, उसे यह रिश्ता मंजूर है या नहीं!
पूरा नाम 'कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना' का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में 6 जनवरी, 1932 को हुआ था। प्रारम्भिक पढ़ाई के पश्चात् कमलेश्वर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परास्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। कमलेश्वर बहुआयामी रचनाकार थे। उन्होंने सम्पादन क्षेत्र में भी एक प्रतिमान स्थापित किया।
हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। उन्होंने मुंबई में जो टीवी पत्रकारिता की, वो बेहद मायने रखती है। 'कामगार विश्व’ नाम के कार्यक्रम में उन्होंने ग़रीबों, मज़दूरों की पीड़ा-उनकी दुनिया को अपनी आवाज़ दी। कमलेश्वर की अनेक कहानियों का उर्दू में भी अनुवाद हुआ है।
उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। १९९५ में कमलेश्वर को 'पद्मभूषण' से नवाज़ा गया और २००३ में उन्हें 'कितने पाकिस्तान'(उपन्यास) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कमलेश्वर ने नई कहानी को जीवन दृष्टि एवं विशेष गति प्रदान की हैं. उनकी कहानियाँ नितांत व्यावहारिक जीवन पहलुओं पर आधारित हैं. उन्होंने संवेदना के स्तर पर खंड या व्यक्ति के माध्यम से पिंड या समष्टि की संवेदना को स्वरूप प्रदान किया हैं. डॉ इन्द्रनाथ मदान के अनुसार एक कहानीकार, आलोचक और कहानी सम्पादक के नाते कमलेश्वर का चिंतन व्यापक, विस्तृत और प्रायः गम्भीर हैं. कमलेश्वर कस्बे की जिन्दगी का अनुभव कर, महानगर में आए थे, तभी तो उनकी कहानियाँ कस्बे से लेकर शहर की स्थितियों का बयान करती हैं. उनहोंने कथ्य के साथ शिल्प को भी तराश तराश कर एक नवीन, आकर्षक, मोहक एवं प्रभावी स्वरूप प्रदान किया हैं. यथार्थ को अनुभूतिपरक आयाम दिया हैं. कमलेश्वर की कहानियों में आज के यांत्रिक युग की मानव चेतना व्यक्त हैं. उसकी सोच सभी यंत्रवत हो गई हैं. इसी कारण पारस्परिक विशवास का संकट उपस्थित हुआ ही हैं. मलेश्वर जी को कई सम्मान भी मिले हैं उन्हें 2005 में पद्म भूषण से अलंकृत किया गया, साथ ही कितने पाकिस्तान के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया. 27 जनवरी, 2007 को फ़रीदाबाद, हरियाणा में इनका देहावसान हो गया.D