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सवाल नंगी सास का

20 जुलाई 2022

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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्तकी की मुद्रा की तरह। मैं बाहर झाँक रहा था.... कुछ देखने के लिए। तभी अपने कुशेट से उठकर जून मेरी पीठ पर अधलेटी होकर चिपक गयी। उसकी रेशमी बाँहों ने मेरी बगलों के गलियारे घेर लिए थे। उसके ओठों ने चम्पा के फूल की भीगी पत्तियों की तरह स्पर्श किया और धीरे से कहा नमस्ते ! नमस्ते ! वह ‘नमस्टे’ ही बोल पाती थी।

‘‘बाहर क्या है, जो देख रहे हो ?’’ जून ने पूछा।

‘‘बाहर सर्दी उतर रही है !’’ मैंने कहा।

‘‘हाँ....यही तो मुश्किल है। सर्दी आते ही मधुमक्खियाँ चली जाती हैं। तुम भी चले जाओगे।....’’ जून ने कहा।

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। उसे भी शायद किसी उत्तर की जरूरत नहीं थी। वह मेरे कुशेट में ही अधलेटी होकर साथ-साथ बाहर देखने लगी। खेतों पर, घास पर नंगे पेड़ों की शाखों पर गुजरते जंगलों और आँख चुराकर पीछे भागती पहाड़ियों पर उनकी गोद और घरों की ढलवाँ छतों पर सफेद चने की हलकी परत पडी हुई थी। नदी के पानी से भाप उठ रही थी। नंगे काले पेड़ों की टहनियों पर बर्फ की सफेद झालरें लटकी हुई थीं। छितरी-छितरी !

‘‘तुम्हारी अयोध्या में बर्फ पड़ती है ?’’ जून ने पूछा था।

‘‘नहीं !.....’’ मैंने कहा था। जून अयोध्या को अयोधा ही पुकार पाती थी।

‘‘पर तुम्हारे देश में सफेद बजरी वाली सड़के तो नहीं हैं ?’’ जून ने बड़ी आसानी से पूछा था। पर इस बात को मैं समझ नहीं पाया था। इसका सन्दर्भ क्या था....सफेद बजरी वाली सड़के ! सफेद बजरी वाली स़डकें ! आखिर इसका मतलब क्या था ?

लेकिन जून की चेतना में सफेद बजरी वाली सड़के अटकी हुई थी। क्योंकि उसे उसकी असलियत का पता था।

हुआ यह था कि बॉन के बाहरी इलाके में काफी दूर, हम एक म्यूज़ियम देखने पहुँचे थे। तभी भी जून साथ थी। यह बात एक वॉर मेमोरियल था म्यूज़ियम से ज्यादा वह कब्रिस्तान था....जहां दूसरे विश्व-युद्ध के शवों को दफनाया गया था। प्रहरी की तरह एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च भी वहाँ मौजूद था। उसमें ताला पड़ा था। कोई पादरी या कीपर वहाँ नहीं था।

और जब मैं उस स्मारक को देखने के लिए आगे बढ़ने लगा था तो सफेद बजरी की सड़क देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा था। कितनी खूबसूरत थी सफेद बजरी वाली सड़क ! भारत की गेरुआ-नारंगी बजरी से अलग....और इससे पहले कि मैं उस सड़क पर कदम रखता जून दौड़ती आयी थी। उसने मुझे दोनों बाँहों से पकड़कर एक तरफ खींच लिया और चीखी थी, ‘‘आगे कदम नहीं बढ़ाओगे तुम ! ’’

‘‘क्यों, क्या हुआ ?’’

जून लगभग काँप रही थी। वह मुझे बाँहों में पकड़े पागलों की तरह देख रही थी,

‘‘तुम्हें पता है....यह क्या है ?’’

‘‘क्या ! क्या है ?’’

‘‘यह सफेद बजरी वाला रास्ता....यह सड़क......’’

‘‘यह तो बहुत सुन्दर सड़क है !’’

‘‘लेकिन तुम इस पर पैर नहीं रखोगे !’’ जून ने बहुत अधिकार से कहा था और मुझे अपने शरीर के साथ जकड़ लिया था। इस पल उसके शरीर में वह ऊष्मा नहीं थी, जिससे मैं परिचित था। उसके शरीर में भयानक प्रतिरोध था।

‘‘लेकिन बात क्या है जून ?’’ मैंने उसे कन्धों से भरते हुए पूछा था ‘‘यह रास्ता यह सड़क....सफेद बजरी तो बड़ी खूबसूरत लग रही है....हमारे यहाँ ऐसी बजरी नहीं होती। अगर होती भी है तो मटमैली, गेरुआ या नारंगी बजरी होती है....’’

‘‘वह बहुत खूबसूरत होगी....तुम बहुत खुशनसीब हो ! यह तो बेहद मनहूस और बदसूरत बजरी है.....क्या तुम्हें मालूम नहीं ?’’ जून ने लगभग चीखते हुए पूछा था, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं ?’’

‘‘नहीं !’’

‘‘देन लेट बी कर्स ऑन यू ....बट.,..सॉरी.....मैं तुम्हें शाप कैसे दे सकती हूँ, क्योंकि तुम तो मासूम हो !’’ कहते हुए जून की आँखों में तरलता तैर गयी थी।

‘‘जून डार्लिंग ! पहेलियाँ मत बुझाओ, तुम कहना क्या चाहती हो ?’’ मैंने उसे बेबसी से देखते हुए कहा था, क्योंकि वह एक भारतीय लड़की की तरह ही बहुत समर्पित और वीतराग लड़की थी।

‘‘मुझे मालूम है कि तुम्हें नहीं मालूम...यह, सफेद बजरी सड़क बेकसूर मासूम लोगों की हड्डियों के चूरे से मिलकर बनी है जिन्हें नाज़ियों ने गैस चैम्बर्स में मारा था....उन्हीं की हड्डियों की यह बजरी है !....क्या तुम इस सड़क पर चलना चाहोगे ?’’ जून ने वेधती आँखों से देखते हुए पूछा था।

तब मेरे दिमाग की धुर्रियाँ उड़ गयी थीं....मैं सहम गया था....नाज़ियों की नृशंसता के शिकार करोड़ों लोगों की हड्डियों की बजरी वाली सफेद सड़क !...जो कब्रिस्तान तक पहुँचाती थी। जहाँ एक प्रोटेस्टेण्ट चर्च ताला बन्द किये खड़ा था। सन्नाटा और भयानक शून्य।

लगभग वैसा ही सन्नाटा हमारे बीच छा गया था। ट्रेन का कुशेट तो गर्म था और जून के शरीर की गर्मी भी यथावत थी पर उस सड़क ध्यान आते ही मैं भीतर से ठण्डा पड़ गया था। मेरी इस तरह की मनःस्थिति को जून अच्छी तरह समझने लग गयी थी। उसने धीरे से मेरे ऊपर करते हुए कहा था, ‘‘तुम परेशान हो गये ? मुझे मालूम है तुम्हें कुछ याद आया है...’’

तुम भी परेशान हो मुझे अच्छी तरह मालूम है ! तुम्हीं ने तो बताया था कि तुम्हारे देश में नाजी शक्तियाँ बहुत प्रबल हो रही हैं....कि उन्होंने अयोधा की मस्जिद को गिरा दिया है...

क्या तुम्हारे यहाँ भी हजारों-लाखों लोग मारे गये हैं, मैंने तो उसी की वजह से पूछा था कि क्या तुम्हारे देश में भी सफेद बजरी वाले रास्ते हैं मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती थी। सर्दी उतर आई है मुझे मालूम है कि अब तुम्हें अपने देश लौटना है....सुनो कोई बोझ लेकर मत जाओ। तुम भी मधुमक्खियों की तरह बिना बताये चले जाओ...सर्दी आ गयी है न...’’ कहते हुए जून ने दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया था। उसकी आँखों में पानी की परत थी। नूरेमबर्ग स्टेशन शायद आनेवाला था।

मैंने जून की ओर देखा। जून ने मेरी ओर। लगा कि वह मुझे ठीक से देख नहीं पा रही थी...मैं भी उसे ठीक से नहीं देख पा रहा था। उसने कई बार पलक झपकाकर उनसे वाइपर का काम लिया था। और तब मैंने आहिस्ता से उसे बाँहों में समेट लिया था। मेरे लिए उसका चेहरा अब पानी की सतह के नीचे था। मैंने उससे पूछा था-

‘‘जून ! तुम किस नदी में हो ?’’

‘‘राइन में !’’ और वह धीरे से मुस्करा दी थी। उसके ओठ हल्की लहरों की तरह थरथराये थे, जैसे राइन के पानी को हवा के हाथ ने धीरे से छू लिया हो। ‘तुम किस नदीं में हो ?’ यह सवाल अब तक हमारे नितान्त आत्मीय क्षणों का गवाह बन चुका था। जब भी हमारी आँखों में सुख या दुःख का पानी भर आता था, तब हम यही सवाल एक दूसरे से पूछते थे।

‘‘तुम किस नदीं में हो ?’’ जून ने पूछा था।

‘‘गंगा में !’’

हम अब एक-दूसरे में समाये हुए थे। ट्रेन रुकी। चम्पा की भीगी पंखुड़ियाँ सिकुड़कर अगल हो गयीं। खिड़की में एक पेण्टिंग समा गयी। पतझड़ था। मौसम की पहली बर्फ पीछे छूट गयी थी। सामने एक नंगा पेड़ खड़ा था। कुछ पत्तियाँ अभी भी उसमें लगी हुई थीं। बाहर हवा चली, तो पेड़ पर बैठी पत्तियाँ चिड़ियों के बच्चों की तरह शाखों से उड़ीं और नीचे बिछे पीले कार्पेट पर आकर बैठ गयीं। हम दोनों ने चिड़ियों के उन बच्चों को साथ-साथ देखा।

‘‘आँसू हमेशा साथ देते हैं....अन्त तक....’’ जून ने फिर वही वाक्य बोला जो वह बॉन में बोली थी। तब हम बॉन में गंगा की तरह बहती राइन नदी के तट पर खड़े थे, कैनेड़ी ब्रूक....,उस छोटे-से पुल के नीचे। मुंसतर प्लाज़ के पास, जहाँ बायीं ओर वाली गली में बीथोवन का घर है। दूसरे तट पर मोटर बोट्स खड़ी थीं।

‘‘पता है.....फ्रैंकफ्रर्त के पास राइन एक बहुत पतली घाटी से गुजरती है। उस पतली-पथरीली घाटी में बीथोवन का उदास संगीत हमेशा गूँजता रहता है और एक लड़की उस शान्त एकान्त में हमेशा गाती रहती है....वह अपने एकान्त में खलल पसन्द नहीं करती...इसलिए जो नावें वहाँ जाती हैं....पथरीली चट्टानों से टकराकर टूट जाती हैं !’’

‘‘तुम इन दन्त कथाओं में विश्वास करती हो जून ?’’

‘‘हाँ ! कम-से-कम दन्त कथाएँ इतिहास से तो बेहतर हैं। इतिहास हमें डराता है।

तुम अयोधा से नहीं डरते ?’’ जून ने बड़ा तीखा सवाल किया था।

‘‘थोड़ा-थोड़ा !’’ मैंने कहा था।

‘‘खैर छोड़ो।’’ कहकर जून ने अपनी बाँह मेरी बाँह में उलझा दी थी और वहाँ से बॉन विश्वविद्यालय की ओर ले गयी थी।

‘‘तुम्हें बताऊँ ?’’

‘‘क्या ?’’

‘‘मैं इसी विश्वविद्यालय में पढ़ी हूँ... पिंक हाउस से लेकर यहाँ का पूरा इलाका दूसरे-विश्व युद्ध में ध्वस्त हो गया था। यह बॉन यूनिवर्सिटी भी। मेरी माँ तब इन खँडहरों में पढ़ने आती थी। उसी ने बताया था कि तब हर विद्यार्थी के लिए आवश्यक था कि पत्थर की ईंट बनाए। मेरी माँ ने भी एक ईंट बनायी थी। वह इमारत में जरूर कहीं लगी होगी....लेकिन इमारतें खड़ी हो जाने के बाद भी खँडहर दिखाई देते रहते हैं....नहीं !’’ कहकर जून खामोश हो गयी थी।

अयोध्या की बाबरी मस्जिद का खँडहर तब मेरे सामने तैरने लगा था....चारों तरफ पत्थर की ईटों का मलबा बिखरा पड़ा था, जैसै वहाँ बमबारी हो चुकी हो।

ट्रेन कब चल पड़ी थी और कब नूरेमबर्ग स्टेशन आ गया था, पता नहीं चला। ‘‘यहाँ से इन्साफ की कुछ आवाजें आती हैं, इस शहर में बर्बरता का उत्तर दिया था !’’ जून ने मेरी बाहों में दस्तक देते हुए कहा, तब समझ में आया कि हमारी ट्रेन नूरेमबर्ग स्टेशन पर खडी़ है।

‘‘हाँ ! बर्बरता की तरह इन्साफ भी कभी–कभी बहुत बर्बर होता है !....’’ यह एक और आवाज थी जो जून की बात का उत्तर बनकर आयी थी।

सामने देखा तो एक यात्री सामान रखकर बैठ चुका था। उसने बिना किसी औपचारिकता से अपना परिचय दिया, ‘‘मैं डेविड मोर्स हूँ। मैं तेहरान और अजरबेज़ान में पहले अँग्रेजी पढ़ाता था। अब अपना देश छोड़कर आस्ट्रिया में बस गया हूँ आप लोग भी शायद विएना ही चल रहे हैं !’’

‘‘हाँ !’’

और जब ट्रेन ने नूरेमबर्ग छोड़ा तो बातें डेविड से ही होने लगीं। जून ने उससे पूछा था, ‘‘आपने अपना मुल्क क्यों छोड़ दिया ?’’

‘‘क्योंकि हम इन्सान का इन्तजार करते रहे ?....हमने अपने देश की बर्बरता का मुकाबला बहुत देर से किया। यही तो जर्मनी में हुआ था। हिटलर का नूरेमबर्ग नहीं हैं। हिटलर तो एक घटना बनकर आया था।, बर्बर विचार तो उससे पहले आ गये थे....हमारे देश में भी तेहरान, शीराज़, इस्फहान.. तरबेज़ के लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों ने देरी कर दी। इसलिए तो जमाल सादेह, सादिक हिदायत बोजोर्ग जलवी जैसे लेखकों को देश छोड़कर भागना पड़ा था। फिर भी उनकी वर्जित किताबें चोरी-छुपे ईरान में पहुँचती रहीं लेकिन किताबें अकेले तो नहीं लड़ सकती !’’

अभी यह बातें चल रही थीं कि ट्रेन की रफ्तार धीमी पड़ने लगी।

‘‘पासान !’’ जून बोली।

‘‘मतलब !’’

‘‘बॉर्डर।’’

ट्रेन रुकते ही टिकट, पासपोर्ट, वीज़ा और कस्टम कण्ट्रोल वाले आ गये। चैकिंग शुरू हुई तो जून मुझसे और सटकर बैठ गयी। जून का पासपोर्ट चैक करते हुए कण्ट्रोल वालों में कोई खास उत्सुकता नहीं दिखायी, क्योंकि वह आस्ट्रेलिया की ही थी। मेरा पासपोर्ट चेक किया तो उसने पूछा—

‘‘इन्दियन !’’

‘‘हाँ।’’

‘‘मोहम्मदीन !’’

‘‘यस....इण्डियन मुस्लिम ! इण्डियन मोहम्दीन !’’

‘‘मैरिड !’’

‘‘नो...’’

‘‘नो वाइफ !’’ इशारा जून की तरफ था- ‘‘निख्त गूद....यह अच्छा नहीं है.....या...’’

मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह इस स्थिति को अच्छा बता रहा था या बुरा। पर वह बोलता जा रहा था- निख्त दिमोक्रातीक दोइचलैन्द....निख्त काफे....बेलकम आस्त्रिया !’’ उसकी बातों पर जून धीरे–धीरे मुस्करा रही थी, तो लग रहा था कि कन्ट्रोल वाला कुछ अच्छा ही बोल रहा है। चैकिंग के बाद जून ने ही बताया, वह कह रहा था-जर्मनी में डेमोक्रेसी नही है, पीने के लिए अच्छी कॉफी भी वहाँ नहीं मिलती। आस्ट्रिया में तुम्हारा स्वागत है !

लिंज़ क्रास करते हुए जब हम विएना पहुँचे, तब तक शाम हो चुकी थी। डेविड वैस्ट वॉनहोफ स्टेशन पर उतरते ही अलविदा कहके चला गया था। यारगासे में जून का घर था।, कमरे में पहुँचते ही वह मुझ पर बेल की तरह छा गयी। साँसों को जब रास्ता मिला तो मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा था-

‘‘तुम किस नदी में हो ?’’

‘‘डैन्यूब में !.....तुम किस नदी में हो ?’’

‘‘सरयू में ! डैन्यूब कहाँ है जून ?’’

‘‘डैन्यूब विएना शहर से बाहर बहती है....बीच शहर में डैन्यूब नहर अब बहने लगी है...तुम किस नदी का नाम ले रहे थे ?’’ जून ने पूछा था।

‘‘सरयू का।’’

‘‘वह कहाँ बहती है ?’’

‘‘अयोध्या में !’’

‘‘तुम तो नदी में नहाते हो ?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘कोई तुम्हें रोकता नहीं...?’’

‘‘रोकेगा कौन...सरयू हमरे देश की नदी है !’’ आदतन ‘हमरे देस’ निकल ही गया था। जून वैसे भी अवधी के इस आकस्मिक फर्क को क्या समझती। मैंने उसे अंग्रेजी में दोहरा दिया था।

‘‘तुम उस मस्जिद के खँडहर से गुजरते हो ?’’

‘‘नहीं वह मेरे रास्ते में नहीं पड़ता। वैसे भी जून हमारी सभ्यता बहुत पुरानी है.....बहुत से धर्मों-पन्थों के खँडहर हमारे यहाँ पड़े हैं।’’

‘‘खँडहरों में से ही नाज़ी निकलते हैं....सावधान रहना !’’ फिर गहरी साँस लेकर उदास होते हुए उसने कहा था। ‘‘मेरी तो दादी हंगेरियन थी और मेरे दादा यहूदी....पर वे ईसाई हो गये थे। प्रोटेस्टेण्ड ईसाई.....पता नहीं हिटलर के किस यातना शिविर में उसकी मौत हुई..... वे तब पादरी थे....और तो कुछ नहीं बचा .....सिर्फ उनकी एक डायरी हमारे पास है...तुम्हें दिखाऊँ ?’’ जून ने कहा।

‘‘दिखाओ !’’

‘‘अच्छा दिखाऊँगी......कल ही ऑल सेण्ट्स डे है और कल ही तुम चले जाओगे...सिर्फ आज की रात बाकी है....चलो घुमा लाऊँ।’’

‘‘कहाँ ?’’

‘‘ग्रिंजिर ! वहाँ इसी साल की वाइन मिलती है ! चलें !’’

यारगासे में जून के घर के पीछे ही पुराना राजमहल था। हम कमर में बाँहें डाले निकल पड़े। डैन्यूब नहर के किनारे-किनारे। पापलर के नंगे पेड़ सन्तों की तरह ख़ड़े थे....अंधेरा तो था पर पतझड़ के कारण काफी दूर बहुत कुछ साफ-साफ दिखाई देता था। छोटी नदी विएन भी मिली। अंगूरी पानी की नदी। वह बहुत व्याकुल थी। राइन और गंगा की तरह शान्त नहीं।

‘‘जून !’’

‘‘हाँ !’’

‘‘यह विएन नदी इतना क्यों अकुला रही है ?’’

‘‘सर्दी उतरने से पहले यह हमेशा ऐसे ही अकुलाती है....शायद मेरी तरह !’’ कहते हुए जून ठिठककर खड़ी हो गयी थी। मैं उसे कन्धों से घेरकर खड़ा हो गया। पता नहीं कितनी देर हम लोग मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े रहे-मूर्तियों के उस राजमहल के आगे जहाँ गेटे और शिलर की मूर्तियाँ लगी थीं, वहाँ से उन्होंने आँख खोलकर हमें देखा था...कोहरे का धुआँ हमारे चारों ओर भरा था। तभी एक गाड़ी गुजरी थी उसमें बैठा परिवार जलती मोमबत्तियाँ लेकर गुजरा तो पत्थर-प्रतिमाओं की तरह एक दूसरे में आबद्ध हम एकाएक साँस लेने लगे थे।

‘‘जलती मोमबत्तियाँ लेकर ये कहाँ जा रहे हैं ?’’ मैंने जून से पूछा था।

‘‘कब्रिस्तान जा रहे है आज वीकेण्ड है। आज लोग मृत सम्बन्धियों की कब्रों पर फूल चढ़ाने और मोमबत्तियाँ जलाने अपने-अपने कब्रितान में जाएँगे।’’ जून ने बताया था।

‘‘अपने-अपने कब्रिस्तान में !’’

‘‘क्यों ? सबका अपना-अपना कब्रिस्तान होता है ! नहीं ?’’

‘‘तुम्हारे दादा-दादी का कहाँ है ?’’

‘‘पता नहीं !’’ कुछ पलों के लिए हमारे बीच खामोशी छा गयी थी।

‘‘ग्रिंजिर पहुँचकर हम बहुत-सी बातों को भूल जाएँगे..’’ कहकर उसने मुझे पकड़ा और दूसरी सड़क पर ले आयी थी। वहीं पुराने राजमहल के पास से हमने इकहत्तर नम्बर ट्राम पकड़ी थी-‘‘लेकिन पहले किसी कब्रिस्तान में हो लें....जिन्हें भी याद करना है, उन्हें पहले याद कर लें। आओ...

ट्राम खचाखच भरी थी। और ट्रामें भी। लगता था पूरा विएना अपने मृतकों को याद करने के लिए निकल पड़ा है। यह पितरों के तर्पण का दिन है। कब्रों पर फूल चढ़ाने और गिरजों में मोमबत्तियाँ जलाने का दिन!

बड़े कब्रिस्तान में पहुँचकर जून ने एक अलग खड़े क्रास पर फूल भी चढ़ाये थे और दो मोमबत्तियाँ भी जलायी थीं।

“आज सोना नहीं है?” कब्रिस्तान से हम चले तो मैंने जून से पूछा।

“आज तो जागने की रात है...कल तो तुम चले जाओगे...अब ग्रिंजिर... '' जून ने कहा, “वहाँ रौनक होगी।'!

और ग्रिंजिर के इलाके में सचमुच बहुत गैनक थी। सैकड़ों पब। इस साल की वाइन के। पबों के पीछे अंगूरों की लताएँ। सड़कों पर सैकड़ों कारें और हजारों लोग।

“यहाँ बीथोवन भी कभी रहता था...'' जून ने बताया और मेरा हाथ पकड़े हुए वह एक पब में घुस गयी। लकड़ी की मेजें और बेंचें। माहौल एकदम घरेलू। निशानी के तौर पर बाक्सर्स अपने ग्लब्ज लटका गये थे। सौ-सौ शिलिंग के नोटों पर हस्ताक्षर करके कुछ लोग उन्हें चिपका गये थे। लकड़ी की दीवारों पर बड़े-बड़े हस्ताक्षर कर गये थे।

सामने ब्रेड थी, पोर्क, सलामी, हैम, बीफ और डक...सिरके में भीगे खीरे और हरी मिर्चें। मैंने डक का एक टुकड़ा उठा लिया।

“क्यों, बीफ भी नहीं!"

“नहीं...आखिर हिन्दुस्तानी हूँ...मन भी नहीं करता...अच्छा भी नहीं लगता!"

और वाइन का प्याला उठाते हुए मैंने कहा, ''चीयर्स !'' वाइन हल्की गरम थी। तो जून ने पास खिसककर बहुत गहराई से भरपूर प्यार किया था और बोली थी--

“वेनीस !"

"हाँ वेनीस...कल जाऊँगा, फिर वहाँ से अपने देश!”

“तुम्हें वेनीस का मतलब शायद नहीं मालूम...'' जून ने एक बार फिर भरपूर प्यार करके रुकते हुए बताया, “वेनीस का अर्थ होता है, फिर मिलेंगे!”

और 'फिर मिलेंगे' के सहारे ही सारी रात बीत गयी। पहले पब की लकड़ी की दीवार की सेंधों से कोहरे की धुन्ध आयी, फिर सामने के दरवाजे से आकर कोहरे ने हमें लपेट लिया। कोहरे के बाद हल्की रोशनी आयी। गुनगुनी वाइन के आखिरी घूँट के बाद हम बाहर निकले। रात वाली कारों की भीड़ छितरा चुकी थी। कोहरे और धुन्ध के बादल पापलर के नंगे दरख्तों और अंगूर की बेलों में उलझे हुए थे। कुछ हवा चलती तो कोहरे के टुकड़े खरगोशों की तरह भागने लगते। सड़क नम थी। सारी रात जागने के बावजूद जून के ओठ नम थे। उसकी हथेलियाँ वाइन की तरह गुनगुनी थीं।

हमें पैदल ही जाना था। विएनावासी अपने कुत्तों को सड़कों पर टहलाकर लौट चुके थे। अब चौड़ी-पतली सड़कें धोयी जा रही थीं। बड़ी-बड़ी गॉथिक इमारतों को रोशनी में पसीजते कोहरे की कपास साफ कर रही थी।

एक शानदार इमारत के सामने रुककर जून ने कहा, “यह इम्पीरियल होटल है। दूसरे विश्वयुद्ध से पहले हिटलर आस्ट्रिया आया था। इसी होटल में ठहरा था... "

“तुम हिटलर के बारे में क्या सोचती हो जुन?"

“एक तरह से सोचें तो उसका राष्ट्रवाद ही भयानक था, अपने उग्र राष्ट्रवादी प्रवाह की लपेट में वह भयंकर दोषों का शिकार होता गया...उसने जातीयता, नस्‍लवाद और संकीर्णता का दामन थाम लिया...युद्ध की मानसिकता ने तभी उसे घेर लिया था और वह निरंकुश हो गया था। सारा योरुप उसके डर से काँपने लगा था...तुमने भी तो शायद कहा था कि तुम्हें अपने देश में उदित होते नाज़ीवाद...उस हिन्दूवाद से डर लगता है!"

“हाँ! थोड़ा-बहुत...लेकिन वह डर उतना बड़ा नहीं है...और अच्छी बात यह है कि उस डर, उस हिन्दूवाद से हमारा हिन्दू ही लड़ रहा है!” मैंने कहा था।

“यह सोचकर तब शायद तुम भी वही गलती कर रहे हो, जो मेरे दादा पादरी मार्टिन ने की थी!” घर का दरवाजा खोलते हुए जून बोली थी, ''इसी बात से याद आया, मैं तुम्हें दादा की डायरी दिखाना चाहती थी...वह डायरी उनकी आखिरी निशानी है...

हम भीतर घुसे तो सामने दीवार पर लटकी घड़ी मेरी रवानगी के वक्‍त का ऐलान कर रही थी। मैंने कहा-जून ! वक्‍त हो गया है !

हाँ, चलते हैं...स्टेशन बहुत दूर नहीं है...कहते हुए वह अंदर चली गई। कुछ देर बाद लौटी तो धब्बेदार मुड़ी-तुड़ी डायरी उसके हाथों में थी।

यही है दादाजी की डायरी ! मैंने पूछा।

हाँ ! जर्मन में है...धीरे-धीरे पन्‍ने पलटते हुए वह बोली-उन्होंने बहुत-सी बातें लिखी हैं, पर मैं तुम्हें एक पन्‍ना जरूर दिखाना चाहती हूँ...हाँ यह...मैं इसका अनुवाद कर दूँगी-सुनो-

दादा ने लिखा है, पहले वे यहूदियों के लिए आए। मैं नहीं बोला क्योंकि मैं धर्म बदलकर ईसाई बन चुका था। फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए, मैं चुप रहा क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था। तब वे ट्रेड-यूनियन वालों के लिए आए, मेरे पास चुप रहने का बहाना था, क्योंकि मैं ट्रेड-यूनियन वाला नहीं था। फिर वे कैथोलिक ईसाइयों के लिए आए, मैं ख़ामोश रहा, क्योंकि मैं ईसाई तो था, पर कैथोलिक नहीं था। अंत में जब वे मेरे लिए आए, तब तक किसी के पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं बचा था-कोई नहीं बचा था-

हमारे बीच सन्‍नाटा-सा छा गया। उस सन्‍नाटे को तोड़ने के लिए थोड़ी बहुत बातें करते हुए हम स्टेशन आ गए।

ट्रेन चलने से पहले जून बोली-

दादा के बाद और सारी बातें कितनी छोटी लगती हैं। पता नहीं, उनकी बजरी किस रास्ते पर पड़ी होगी-

ट्रेन चली तो उसने हाथ मिलाया-वेनीस !

वेनीस ! मैंने उसे बहुत गहरी नजरों से देखा। उसने भी मुझे वेधती आँखों से देखा। उसकी और मेरी आँखों को अब सिर्फ एक सफेद सड़क जोड़ रही थी। सफेद बजरी वाली सड़क।

ट्रेन भागती जा रही थी। बल्कान एक्सप्रेस। पहाड़ियों और घाटियों को पीछे छोड़ती, कंक्रीट की पहाड़ियाँ, बीच-बीच में पतझड़ी रंगों की ठिंगनी झाड़ियाँ-वाइंस के खेत। खेतों की पीली मिट्टी। आतिशबाजी के अनारों की तरह फूटते हुए पापलर के पेड़। मक्का के सूखे खेत। पत्तागोभी की बाड़ियाँ। घरों के पिछवाड़े नारंगी और संतरों के पेड़-पहाड़ियों और बस्तियों से गुजरती गलियाँ, पतले रास्ते और सड़कें। सब कुछ था, पर मेरी और जून की आँखों को जोड़ती सफेद सड़क रह-रहकर दिखाई पड़ जाती थी-सारी प्रकृति पीछे छूटती जाती थी पर वह सड़क पीछा नहीं छोड़ रही थी।

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रचनाएँ
कमलेश्वर जी की हिन्दी कहानियाँ
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कमलेश्वर का जन्म ६ जनवरी १९३२ को उत्तरप्रदेश के मैनपुरी जिले में हुआ। उन्होंने १९५४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। 'आंधी', 'मौसम (फिल्म)', 'सारा आकाश', 'रजनीगंधा', 'मिस्टर नटवरलाल', 'सौतन', 'लैला', 'रामबलराम' की पटकथाएँ उनकी कलम से ही लिखी गईं थीं। हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। कमलेश्वर के कुछ ख़ास सृजन में 'काली आंधी', 'लौटे हुए मुसाफ़िर', 'कितने पाकिस्तान', 'तीसरा आदमी', 'कोहरा' और 'माँस का दरिया' शामिल हैं। हिंदी की कई पत्रिकाओं का संपादन किया लेकिन पत्रिका 'सारिका' के संपादन को आज भी मानक के तौर पर देखा जाता है। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं।
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जहाज छूटने में कुछ देर थी। जेटी के कगार पर बैठे हुए पक्षी अजनबियों की तरह इधर-उधर देख रहे थे। जैसे वे उड़ने के लिए कतई तैयार न हों। खौलते पानी के बुलबुलों की तरह उनमें से एक-दो धीरे-से कुदकते थे और फि

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इंतज़ार

20 जुलाई 2022
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रात अँधेरी थी और डरावनी भी। झाड़ियों में से अँधेरा झर रहा था और पथरीली ज़मीन में जगह-जगह गढ़े हुए पत्थर मेंढ़कों की तरह बैठे हुए थे। बिजिलांते के बूटों की आवाज़ से दहशत और बढ़ जाती थी। हवा हमेशा की तर

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एक थी विमला

20 जुलाई 2022
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पहला मकान–यानी विमला का घर इस घर की ओर हर नौजवान की आँखें उठती हैं। घर के अन्दर चहारदीवारी है और उसके बाद है पटरी। फिर सड़क है, जिसे रोहतक रोड के नाम से जाना जाता है। अगर दिल्ली बस सर्विस की भाषा में

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क़सबे का आदमी

20 जुलाई 2022
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सुबह पाँच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झाँसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रोशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य स

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कितने पाकिस्तान

20 जुलाई 2022
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कितना लम्बा सफर है! और यह भी समझ नहीं आता कि यह पाकिस्तान बार-बार आड़े क्यों आता रहा है। सलीमा! मैंने कुछ बिगाड़ा तो नहीं तेरा...तब तूने क्यों अपने को बिगाड़ लिया? तू हँसती है...पर मैं जानता हूं, तेरी

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खर्चा मवेशियान

20 जुलाई 2022
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राज्य के वन-मन्त्री दौरे पर थे। रिजर्व फारेस्ट के डाक बँगले में उन्होंने डेरा डाला। उनके साथ के लश्कर वालों ने भी। उन्होंने वन अधिकारी को बुलवाया और ताकीद की-देखो रेंजर बाबू! मैं पुराने मन्त्री की तरह

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गर्मियों के दिन

20 जुलाई 2022
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चुंगी-दफ्तर खूब रँगा-चुँगा है । उसके फाटक पर इंद्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं । सैयदअली पेंटर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्ड़ों को बनाया है । देखते-देखते शहर में बहुत-सी ऐसी दुकानें हो गई हैं, जिन पर

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चप्पल

20 जुलाई 2022
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कहानी बहुत छोटी सी है मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट की सातवीं मंज़िल पर जाना था। अाई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा था। क़ितना दु:ख और कष्ट है इस दुनिया में...लगातार

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जार्ज पंचम की नाक

20 जुलाई 2022
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यह बात उस समय की है जब इंग्लैंण्ड की रानी ऐलिज़ाबेथ द्वितीय मय अपने पति के हिन्दुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनके चर्चे हो रहे थे। रोज़ लन्दन के अखबारों में ख़बरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए

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तस्वीर, इश्क की खूँटियाँ और जनेऊ

20 जुलाई 2022
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वे तीन वेश्याएँ थीं। वे अपना नाम और शिनाख्त छुपाना नहीं चाहती थीं। वैसे भी उनके पास छुपाने को कुछ था नहीं। वे वेश्याएँ लगती भी नहीं थीं। उनके उठने-बैठने और बात करने में सलीका था। मेक-अप भी ऐसा नहीं जो

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तुम कौन हो

20 जुलाई 2022
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रात तूफानी थी। पहले बारिश, फिर बर्फ की बारिश और बेहद घना कोहरा। अगर हवा तेज न होती तो शायद इतनी मुसीबत न उठानी पड़ती। पर हवा और हवा में फर्क होता है। यह तो तूफानी हवा थी जो तीर की तरह लगती थी। गाड़ी व

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नीली झील

20 जुलाई 2022
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बहुत दूर से ही वह नीली झील दिखाई पड़ने लगती है। सपाट मैदानों के छोर पर, पेड़ों के झुरमुट के पीछे, ऐसा मालूम पड़ता है, जैसे धरती एकदम ढालू होकर छिप गया हो, लेकिन गौर से देखने पर ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच

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पेट्रोल

20 जुलाई 2022
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मन्त्री जी लम्बे दौरे से लौट रहे थे। अरे ड्राइवर! पेट्रोल पूरा भरवा लिया था? जी साब, भरवा नहीं पाया। पर इतना है कि घर तक आराम से पहुँच जाएँगे! तभी रास्ते में उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र के दो लोग मिल

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मांस का दरिया

20 जुलाई 2022
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जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी। कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब प

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राजा निरबंसिया

20 जुलाई 2022
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'एक राजा निरबंसिया थे', मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आस-पास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुट्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुर

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लाश

20 जुलाई 2022
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सारा शहर सजा हुआ था। खास-खास सडकों पर जगह-जगह फाटक बनाए गए थे। बिजली के खम्भों पर झंडे, दीवारों पर पोस्टर। वालण्टियर कई दिनों से शहर में पर्चे बाँट रहे थे। मोर्चे की गतिविधियाँ तेज़ी पकडती जा रही थीं।

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सफेद सड़क

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सवाल नंगी सास का

20 जुलाई 2022
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सुबह खिड़की के काँच पर भाप जमी थी। भीतर से साफ करना चाहा तो बाहर पानी की लकीरें नरम बर्फ की परत जमी रहीं। फिर भी कुछ-कुछ दिखाई देता था। ट्रेन किसी मोड़ पर थी। उसके कूल्हे पर खूबसूरत खम पड़ रहा था। नर्

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सीख़चे

20 जुलाई 2022
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जिन्दगी के दूसरे पहर में यदि सूरज न चमका तो दोपहरी कैसी ? बादल आते हैं, फट जाते हैं, परन्तु ये भूरे धुँधले बादल तो उसे हटते नजर ही नहीं आते। अगर उसका अपना दूसरा सूरज हो तो कैसा रहे ? इस मुहल्ले में अ

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सुबह का सपना

20 जुलाई 2022
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बात असल में यों हुई। उन दिनों शहर में प्रदर्शनी चल रही थी। जाने की कभी तबीयत न हुई। आखिर एक दिन मेरे मित्र मुझे घर से पकड़ ले गए। शायद आखिरी दिन था उसका। चला गया, पर ऐसे जमघटों में अब मन नहीं जमता। वह

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हवा है, हवा की आवाज नहीं है

20 जुलाई 2022
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कैरीन उदास थी। उसे पता था कि सुबह हमें चले जाना है। लेकिन उदास तो वह यों भी रहती थी। उस दिन भी उदास ही थी, जब पहली बार मिली थी। हम हाल गाँव का रास्ता भूलकर एण्टवर्प के एक अनजाने उपनगर में पहुँच गये थे

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शास्त्रज्ञ मूर्ख (हितोपदेश)

20 जुलाई 2022
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किसी नगर में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमें खासा मेल-जोल था। बचपन में ही उनके मन में आया कि कहीं चलकर पढ़ाई की जाए। अगले दिन वे पढ़ने के लिए कन्नौज नगर चले गये। वहाँ जाकर वे किसी पाठशाला में पढ़ने लगे।

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अपनी-अपनी दौलत

20 जुलाई 2022
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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकमटैक्स विभाग का कोई अफसर आया है और उनके हिसाब-किताब के रजिस्टर और बही-खाते चेक करना चाहता है। अब क्या होगा मुनीम जी ? ज़मींदार ने घबरा कर कहा-कुछ करो म

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आत्मा की आवाज़

20 जुलाई 2022
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मैं अपना काम खत्म करके वापस घर आ गया था। घर में कोई परदा करने वाला तो नहीं था, पर बड़ी झिझक लग रही थी। गोपाल दूर के रिश्ते से बड़ा भाई होता है, पर मेरे लिए वह मित्र के रूप में अधिक निकट था। आंगन में च

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इंटेलैक्च्युअल

20 जुलाई 2022
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हिन्दी के एक बड़े आदरणीय आचार्य थे। आस्था से वे घनघोर सनातनी थे। लेकिन एक दिन न जाने क्‍या हुआ कि आचार्य जी ने सनातन धर्म की धज्जियाँ निकाल दीं। आर्य समाजियों को ख़बर मिली। वे बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्ह

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एक अश्लील कहानी

20 जुलाई 2022
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नग्नता में भयानक आकर्षण होता है, उससे आदमी की सौन्दर्यवृत्ति की कितनी सन्तुष्टि होती है और कैसे होती है, यह बात बड़े दुःखद रूप में एक दिन स्पष्ट हो ही गयी। अनावृत शरीर से न जाने कैसी किरनें फूटती हैं,

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कर्त्तव्य

20 जुलाई 2022
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शाही हरम की बेगमों की डोलियाँ बीजापुर से दिल्ली की ओर जा रही थीं : रास्ता बीहड़ और सुनसान था। रास्ते में मराठा महाराज शिवाजी का इलाका तो पड़ता ही था। सेना के अपने दुश्मन और अपनी दक्षता होती है, साथ ही

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कामरेड

20 जुलाई 2022
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लाल हिन्द, कामरेड!--एक दूसरे कामरेड ने मुक्का दिखाते हुए कहा। लाल हिन्द--कहकर उन्होंने भी अपना मुक्का हवा में चला दिया। मैं चौंका, और वैसे भी लोग कामरेड़ों का नाम सुन कर चौंकते हैं! वास्तव में किसी ह

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कोहरा

20 जुलाई 2022
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पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते ! उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी।

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खामोशी एडगर ऐलन पो

20 जुलाई 2022
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'मेरी बात सुनो,' शैतान ने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'जिस जगह की मैं बात कर रहा हूँ, वह लीबिया का निर्जन इलाका है - जेअर नदी के तट के साथ-साथ, और वहाँ न तो शांति है, न खामोशी। नदी का पानी भूरा मटमै

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गार्ड आफ ऑनर

20 जुलाई 2022
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मिली-जुली गठबन्धन सरकार के एक मन्त्री। पुलिस लाइन में उनका दौरा था। कार से उतरते ही वे प्रशंसकों-चापलूसों से घिर गए। गले में मालाएँ पड़ने लगीं। फूलों की बौछार। नारों की जय-जयकार। तब एक पुलिस अफसर भी

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चौकी-चौका -बंदर

20 जुलाई 2022
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एक पण्डित जी घर के चबूतरे पर चौकी लगाकर बैठते थे। मोहल्ले के लोग कभी धर्म पर, कभी स्वास्थ्य पर, कभी ध्यान योग पर उनके उपयोगी प्रवचन सुनते थे। उसी चौकी पर लोग दान-दक्षिणा रख देते थे। उसी से पण्डित जी

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तलाश

20 जुलाई 2022
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उसने बहुत धीरे-से दरवाज़े को धक्का दिया। वह भीतर से बंद था। जब तक वह सोई थी, तब तक बीचवाला दरवाज़ा बंद नहीं किया गया था। भिड़े हुए दरवाज़े की फाँक से रोशनी का एक आरा-सा गिरता रहा था, रोशनी मोमिया कागज

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तीसरा संस्करण

20 जुलाई 2022
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एक बौद्ध भिक्षु था। उसने छह खण्डों में भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लिखी। लगभग तीन हजार पृष्ठों के उस भारी-भरकम ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ। भिक्षु बहुत निराश हुआ। तब समाज क

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दिल्ली में एक मौत

20 जुलाई 2022
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मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश

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पत्थर की आँख

20 जुलाई 2022
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यह दो दोस्तों की कहानी है। एक दोस्त अमेरिका चला गया। बीस-बाईस बरस बाद वह पैसा कमाके भारत लौट आया। दूसरा भारत में ही रहा। वह गरीब से और ज्यादा गरीब होता चला गया। अमीर ने बहुत बड़ी कोठी बनवाई। उसने अपने

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भूख

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पूस की दाँतकाटी सर्दी पड़ रही थी। बच्चा भूखा था। माँ के स्तनों में दूध नहीं था। थोड़ी दूर पर एक अलाव जल रहा था। भूखा बच्चा माँ के स्तनों को निचोड़ता पर जब दूध नहीं निकलता था तो वह बच्चे को लेकर अलाव क

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मुक़ाबला

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सभी को मालूम है कि शेर बहुत सफाई पसन्द होता है। एक बार हुआ यह कि किसी बात पर शेर और जंगली सुअर में झगड़ा हो गया। जंगल के लगभग सभी जानवर शेर से भयभीत रहते थे। उन्हें मौका मिल गया। उन्होंने सोचा, जंगली

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रावल की रेल

20 जुलाई 2022
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तो दोस्तो, हुआ ऐसा कि मैं कच्छ के दिशाहारा रेगिस्तान की यात्रा से ध्वस्त और त्रस्त किसी तरह भुज (गुजरात) पहुँचा। स्टेशन के अलावा और कोई भरोसे की जगह नहीं थी, इसलिए वहीं चला गया। स्टेशन पर मीटर गेज की

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वीपिंग-विलो

20 जुलाई 2022
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हैम्पटन कोर्ट पैलेस से निकलकर गरम चाय पीने की तलब सता रही थी। पुराने किलों या महलों से निकलकर जैसी व्यर्थता हमेशा भीतर भर जाती है, वैसी ही व्यर्थता मन में भरी हुई थी। एक निहायत बेकार-सी अनुभूति। उदासी

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सर्कस

20 जुलाई 2022
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सर्कस तो आपने जरूर देखा होगा। उसमें तरह-तरह के ख़तरनाक और दिल दहलाने वाले करतब दिखाए जाते हैं। शायद आपने वह बेमिसाल खेल भी देखा हो, जिसमें लकड़ी का एक बड़ा चक्‍का घूमता हुआ आता है। उसी के साथ एक छरहरे

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सिपाही और हंस

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तो दोस्तो ! आपको एक कहानी सुनाकर मैं अपनी बात समाप्त करूँगा। हुआ यह कि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके थे। राजे-महाराजों-नवाबों की रियासतों का विलय विभाजित भारत में हो चुका था। इंदिरा गांधी ने इनके लाखो

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सुख

20 जुलाई 2022
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यह किस्सा मुझे वरसोवा के एक मछुआरे ने सुनाया था। तब मैं अपने वीक-एण्ड घर 'पराग' में आकर रुकता था और सागर तट पर घूमता और डूबते सूरज को देखा करता था। तब मेरी जिन्दगी को अफ़वाहों का पिटारा बना दिया गया थ

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हमलावर कौन ?

20 जुलाई 2022
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दोस्तो! यह आज के यथार्थ को पेश करती एक दारुण कहानी है। इसके लेखक हैं-मुद्राराक्षष। यह कालजयी कहानी मैं आपको सुनाता हूँ- भारत-पाकिस्तान युद्ध । भारत की सेनाएँ पाकिस्तानी इलाकों को जीतती हुई भीतर तक पा

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लघु-कथाएँ

20 जुलाई 2022
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घूँघटवाली बहू बात वृन्दावन की है। मैं मन्दिरों में नहीं जाता। देखना हो तो जाने से परहेज भी नहीं करता। कहा गया कि बिहारी जी का मन्दिर तो देख ही लीजिए। यानी दर्शन कर लीजिए। गया। पर रास्ते और आस-पास की

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इनसान और भगवान्

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यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था। भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर। निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे। कृष्ण मंदिरों के

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अष्टावक्र का विवाह

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एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा,

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दीर्घतमा और प्रद्वेषी

20 जुलाई 2022
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प्राचीन काल में उतथ्य नाम के एक ऋषि थे। उनकी स्त्री का नाम ममता था। ममता अत्यन्त रूपवती थी। जब वह चलती तो आश्रम में एक बार तो उस रूप की गन्ध चारों ओर बिखर जाती। ममता के इस अनुपम रूप को देखकर उतथ्य के

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बिलाव और चूहे

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किसी विशाल घने वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था। उसकी जड़ों में सौ मुँह वाला बिल बनाकर पालित नाम का एक चूहा रहता था। उसी वृक्ष की डाल पर लोमश नाम का एक बिलाव रहता था। कुछ दिनों बाद एक चाण्डाल भी आकर उ

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कबूतर और बहेलिया

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प्राचीन काल में एक क्रूर और पापात्मा बहेलिया रहता था। वह सदा पक्षियों को मारने के नीच कर्म में प्रवृत्त रहता था। उस दुरात्मा का रंग कौए के समान काला था और उसकी आकृति ऐसी भयानक थी कि सभी उससे घृणा करते

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मृत्यु ही ब्रह्म है

20 जुलाई 2022
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याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, “न असत् आसीत् न सत् आसीत

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गुरु मिले तो

20 जुलाई 2022
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वरुण एक जमाने में सबसे बड़े देवता थे। इन्द्र से भी बड़े। जिस काम के लिए बाद में इन्द्र बदनाम हुए उसका भी कुछ सम्बन्ध वरुण से था। नतीजा यह कि अनेक ऋषियों को वरुण की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

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कुत्ते का ब्रह्म ज्ञान

20 जुलाई 2022
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बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भ

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वररुचि की कथा

20 जुलाई 2022
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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त

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गुणाढ्य

20 जुलाई 2022
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गुणाढ्य राजा सातवाहन का मन्त्री था। भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विन्ध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन

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राजा विक्रम और दो ब्राह्मण

20 जुलाई 2022
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संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा

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शूरसेन और सुषेणा

20 जुलाई 2022
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गोमुख ने कहा, श्रावस्ती में शूरसेन नाम का एक राजपुत्र था। वह राजा का ग्रामभुक था। राजा के लिए उसके मन में बड़ी सेवा भावना थी। उसकी पत्नी सुषेणा उसके सर्वथा अनुरूप थी और वह भी उसे अपने प्राणों की तरह च

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कैवर्तक कुमार

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राजगृह में मलयसिंह नाम के राजा राज्य करते थे। उनके मायावती नाम की अप्रतिम रूपवती एक कन्या थी। एक बार वह राजोद्यान में खेल रही थी तभी एक कैवर्तककुमार (मछुआरे के बेटे) की दृष्टि उस पर पड़ गयी। सुप्रहार

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