मन कितना वीतरागी हो रहा है ये समझ में तो नहीं आता । मैं जब भी चलता हुआ निकल जाता हूँ तो मेरे अंदर से एक ऑरा (दिव्य आभा) भी बाहर निकलकर मेरे साथ चलता रहता है । हम दोनों के बीच निरंतर संवाद होते रहते हैं । हो सकता है कि आसपास के लोगों को वो ऑरा न दिखता हो या हमारे संवाद सुनाई देते न हों । मगर यही सच है कि हम दोनों के बीच कुछ अलौकिक घटनाओं की अदभूत बातें होती रहती है । इतना ही नहीं, वो ऑरा मुझे कभी कभी ऐसे दर्शन दिलाता है जैसे मैं उसे चमत्कृति मानूं या न भी मानूं ! मगर एक पल के लिए मैं अपने अस्तित्व को भूल जाता हूँ ।
कभी कभी सांसारिक जीवन के कारण मन को उदासी घेर ले तो मन थका सा, हारा हुआ सा कोसता है मुझे ! गुस्सा दिलाता है और मैं खुद से ही हार जाता हूँ । ऐसे में वो तेजस्वी पुंज सा ऑरा मेरे पास आकर मुझे सहलाता है, हाथ फेरता है या कोई स्वर छेड़ता है... तब मैं, मैं ही नहीं रहता ! अचानक से मुझमें बदलाव सा महसूस होता है और मैं शांत हो जाता हूँ या बच्चे की तरह अंदर ही अंदर रो लेता हूँ । कभी आँसूं बहने लगें तो बहने देता हूँ । कुछ भी छुपाने का अवगुण नहीं है मुझमें ! जो है, जैसा है, वो मेरा नहीं है, मुझ तक सीमित नहीं है ! वो उन्हों ने दिया है, उनके द्वारा हुआ है, उन्हीं के लिए हुआ है फिर क्या छुपाना और किससे ?
मेरा यही भरोसा मुझे सुकून देता है और मैं जब गहरी नींद में सो जाता हूँ तो मेरे आसपास दिव्यता का उजास फ़ैल जाता है । मेरे चर्मचक्षु की नींद के बीच मेरी नींद उड़ जाती है और मैं अनंत में विहरता हुआ चाँद-तारों से बातें करता हुआ मंद मलयानिल के सहारे उड़ता हुआ सैर करता हूँ । और न जाने कब चर्मचक्षु में आकर समा जाता हूँ और सुबह होते ही मेरे दैहिक जीवन में खुद को पिरोकर इंसान बन जाता हूँ ! मैं हूँ यहीं कहीं !
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ऑरा (दिव्य आभा)
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14, March, 2016