चंद दिनों से एक कबूतर घर के बिजली के मीटर बोक्स पर आकर बैठ जाता है |
मुझे सुबह-शाम ही फुर्सत होती है, उसे देखने और समझने के लिए | मुझे देखकर वो मीटर बोक्स से उड़कर हरसिंगार के पेड़ पर आकर बैठ जाता है झूकी हुई शाख पर |
उन्हें भी मालूम है कि मैं जब भी घर लौटता हूँ तब हरसिंगार के पास खड़ा होकर उसे निहारता हूँ और कबूतर चाहता है कि मैं उनसे बात करूँ |
दरअसल मेरे अंदर एक कबूतर है, जो मौन की भाषा में ही घू घू घू करता रहता है और उसे सुनता है तो सिर्फ मीटर बोक्स पर बैठने वाला वो कबूतर ...!
कल कौए ने आकर उसके अंडे को तोड़ दिया था | उदास कबूतर अपना दुःख जताने को आया | मैंने जब उन्हें हरसिंगार के पेड़ की शाख से अपने हाथ में लिया तो पंख फड़फड़ाने लगा | मैंने उसे छोड़ दिया और वो शाख पर बैठा
न बैठा और आकर मेरे कंधे परे बैठ गया |
आज घर लौटकर देखता हूँ तो हरसिंगार का पेड़ उदास है | मैंने तुरंत बिजली के मीटर बोक्स की ओर देखा | तिनकों का बिखरा सा घोंसला नज़र आया और डर सा पैदा हो गया मन में... ! कहाँ गया वो कबूतर?
नीचे ज़मीन पर नज़रें जम गई, जिस तरह कबूतर के निश्चेत देह से निकला हुआ खून जम गया था और चीटियाँ रेंगती थी...... उफ़्फ़ !
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|| पंकज त्रिवेदी ||