कैसे हो तुम ?
सवालों से घिरता हुआ रहा हूँ मैं
सरेआम चर्चाओं के बाज़ार में
बिकता हुआ भी नज़र आता हूँ मैं
कैसे हो तुम ?
पूछ लेते हैं तुम सरीखे दोस्त भी
सभी के वास्ते इसी में उलझा हूँ मैं
सवालों से सवाल पैदा देखकर मैं
कैसे हो तुम?
सुनते हुए खुद से पूछ बैठता हूँ मैं
दरख़्त पे आकर बैठा बुलबुल देखूं मैं
उनकी तन्हाई को भी कैसे उकेरुं मैं?
कैसे हो तुम?
उसे पूछने की हिम्मत कहाँ मुझमें
घू घू भी कितना समझाने लगा उसे
घोंसले की चींख जब भी सुनता हूँ मैं
कैसे हो तुम ?
कैसे किसे पूछ लूं यही उठता सवाल है
हर चेहरे पर मुस्कान दिखती है मगर
मुस्कान के पीछे दबी दर्द की रखाएं देखूं मैं
कैसे हो तुम?
गुलाब के फूल को हमेशा पूछ लेता हूँ मैं
मुस्कुराता है मुझ पर वो खुशबू फैलाकर
उनकी जड़ों में भी दरारें अब देखता हूँ मैं
कैसे हो तुम ?
ये पूछना अच्छा है जानता हूँ मैं
मगर सच के करीब आओगे तुम अगर
खुद से ही छल जाओगे कैसे कहूँगा मैं?
- पंकज त्रिवेदी