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इंसान

2 जून 2015

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दो हिस्सों में बंट गया है ये इंसान कभी दोस्ती कभी मज़हब के नाम चंद ज़रूरतें होती है जीने के वास्ते रोटी, कपड़ा और मकान के नाम इंसान जब गिरता है इंसानियत से औरत, धन और अपने यश के नाम सभी मुश्किलों से लड़ जीतता इंसान बदनामी और हार रिश्तेदारों के नाम दुश्मनों को ढूँढने की ज़रूरत ही नहीं किसी को दिल में बिठाकर दो सम्मान * - पंकज त्रिवेदी * (ऐसा लगता है जैसे यह कोई भूकंप से टूटी सड़क नहीं ! भयावह शैतान खड़ा है ! जिसके हाथ में तीक्ष्ण हथियार है | )
पंकज त्रिवेदी

पंकज त्रिवेदी

प्रियंका जी, मैं आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ | कुछ दिनों से यहाँ नहीं आ पाया... माफ़ करें |

3 जुलाई 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

साथ ही आपको ये भी बताना चाहती थी की अपने बहुत ही अच्छा लिखा है - प्रियंका शब्दनगरी संगठन

2 जून 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

प्रिय मित्र , आपकी इस उत्क्रष्ट रचना को शब्दनगरी के फ़ेसबुक , ट्विट्टर एवं गूगल प्लस पेज पर भी प्रकाशित किया गया है । नीचे दिये लिंक्स मे आप अपने पोस्ट देख सकते है - https://plus.google.com/+ShabdanagariIn/posts https://www.facebook.com/shabdanagari https://twitter.com/shabdanagari - प्रियंका शब्दनगरी संगठन

2 जून 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

दो हिस्सों में बंट गया है ये इंसान कभी दोस्ती कभी मज़हब के नाम....बेहतरीन पेशकश !

2 जून 2015

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इंतज़ार

10 मार्च 2015
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कितनी मासूमियत है तेरे चेहरे पर बचपन के खेल की लकीरें चेहरे पर माँ के पल्लू में छुप जाता जब कभी तू आँगन की मिट्टी का तिलक है चेहरे पर बहन से लड़ाई करते कभी ज़िद्द करते उन्हीं के लिए उदासी लिपता चेहरे पर साथ रहकर कभी जिसे समझ न पाया था उसी का इंतज़ार करती झुर्रियाँ है चेहरे पर - पंकज

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जड़ें

11 मार्च 2015
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याद नहीं कब, किसने मुझे इस ज़मीं पे बोया था छोटा सा पौधा न मजबूत था शरीर से न अपनी पहचान के पत्ते लगे थे न अपने कर्मों की सुगंध देता फूल मगर हाँ... जड़ें थीं आशा का पानी, उमंग की उड़ान देती हवा, मजबूती देते आशीर्वाद भी लगता है अब मुझे ज्यादा ही झुकना होगा शाखा-प्रश

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शिवा

18 मार्च 2015
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*** खड़ा गिरिवर गंभीरा गहन गुहा बस अँधेरा निज दर्शन में अधीरा पलपल बनता है धीरा सूक्ष्म सकल तव शिवा - पंकज त्रिवेदी ***

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अलसुबह

4 अप्रैल 2015
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अलसुबह मैं फिनिक्स बनकर उठ खड़ा होता हूँ अपने अस्तित्व को निखारने के लिए ! दिनभर जद्दोजहद में लगे रहते हैं मेरे ही चाहने वाले मुझे गिराने के लिए ! ______________________________ Dawn on I become Phoenix I stand up Its existence To refine! Day struggles To have

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अपनों के कारण

5 अप्रैल 2015
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अपनों के कारण मैं मजबूत होता तो मानता अपनो के कारण मैं सख्त होने लगा हूँ अब ! अपनों के कारण यह मिट्टी बिखर जाती तो मानता अपनों के कारण मैं चट्टान बनने लगा हूँ अब ! * * * * *

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जल

5 अप्रैल 2015
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​ जल बहता है - झरनें बनकर, लिए अपनी शुद्धता का बहाव वन की गहराई को, पेड़, पौधों, बेलों की झूलन को लिए जानी-अनजानी जड़ीबूटियों के चमत्कारों से समृद्ध होकर निर्मलता में तैरते पत्थरों को कोमल स्पर्श से शालिग्राम बनाता हुआ धरती का अमृत बनकर वनवासियों का, प्राणियों का विराम ! जल बहत

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आतंक

8 अप्रैल 2015
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वो ख़ूबसूरती नहीं है उनमें काली अंधेरी रात सी चमड़ी जैसे अमावस की रात मुखरित काली नदी की तरह बहाव है उन्माद भी उनमें, आग भी सीसम की लकड़ी सी चमक भी मजबूरी से कसमसाती हुई मर नहीं पाती उनके भोगने तक ज़िंदगीभर खूबसूरती खोजती आँखों में चकाचौंध करने वाला सफ़ेद घोडा दौड़ता है ताकत

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भगीरथ

5 अप्रैल 2015
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मैं भगीरथ तो नहीं उनका वंशज तो हूँ चुनौती के सामने घुटने टेकना उनसे नहीं सीखा * * * * *

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गोश्त

5 अप्रैल 2015
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गोश्त लेकर जा रहे थे कुछ लोग पुलिस से बचाकर, खुद बचकर गोश्त कभी अलग नहीं हो पाया इंसानों से, जानवरों से और जीवन से गोश्त से बना हुआ इंसान का शरीर गोश्त के लिए बेरहम हो जाता है गोश्त के व्यंजनों से खुश होता है कितना प्रबल प्रभाव है इस गोश्त में जो इंसान को इंसानियत से

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बंधेज

5 अप्रैल 2015
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पहली मंजिल पर एक कमरा है उसमें एक अलमारी है जो हमेशा बंद होती थी माँ रहती थी उसी कमरे में माँ नहीं हैं कुछ दिनों से कभी जरुरत महसूस नहीं हुई उस अलमारी को खोलने के लिए, यही सोच के साथ कोई नहीं गया उस कमरे में, न उस अलमारी तक आज मन हुआ कि - माँ के कमरे में जाऊं, देखू

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धून

5 अप्रैल 2015
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चर्म लोचन ये बंद होने लगे थे जब सलीके से ज़िंदगी को सुलाई थी तब पैर थम जाएं तो शुरू हों यात्रा अजब नितांत अंधकार में भी उजास हो तब रिश्तों की रस्सी के खुलने लगे हैं बल खुलनेने लगे हैं बंधन रेसों रेसों में जब गूंजता है स्वर नाद से गिरिवर ये जब सुनता सारेगम प्रकृत

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अब होठों को पंख लगने दो...

5 अप्रैल 2015
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शाम होते ही पहाड़ियों पे घूमते तुम्हें देखता हूँ चढ़ते-उतरते हुए शहर से दूर एक किला है बदहाल राजाओं के ऐशों-आराम की रानियों के जौहर की गुलामों की यातनाओं की नृत्यांगनाओं की थिरकन की न जाने अनगिनत आवाजें एक साथ उठ रही है उस किले से जिसे न कोई ठीक से सुन सका न कभी भी

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आसान नहीं

5 अप्रैल 2015
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पंछी के उड़ने से बादलों में लकीरें होती नहीं ज़िंदगी को बदलने से तसवीर बदलती नहीं तू पत्थर पे लकीरें खींच सकता है लेकिन वक्त के सीने पे लकीर खींचना आसान नहीं पत्थर पर नक्काशी करोगे तुम फूलों की खुशबू को फैलाने की लकीर आसान नहीं पैदल चलोगे तो मिलेंगे राहगीर तुम्हे

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निशाँ मिले

5 अप्रैल 2015
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बड़ी बेरहमी से सताया है उसने हमें जाते हुए कदमों के निशाँ छोड़ते गए आँगन में पत्तों की सरसराहट फ़ैली कुछ सूखे कुछ हरे पत्तों के निशाँ मिलें घर की दीवारों को गोबर से लीपना वो नहीं सिर्फ ऊंगलियों के निशाँ मिले * * * * *

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ऊष्मा

5 अप्रैल 2015
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​ ठण्ड के कारण यातायात प्रभावित कई वाहनों का टकराव रोज़मर्रा के कार्य में अवरोध स्वाभाविक कही बर्फ के ओले कहीं बारिश की बूंदे खबरें पढ़ता हूँ मैं अखबारों के पन्नो पर टी.वी. समाचारों में देखता हूँ लाईव ! मेरे शहर के पुराने खँडहर से जंकशन के मकानों में टूटी हुई खिड़

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मुसाफ़िर

5 अप्रैल 2015
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मैं तो मुसाफिर हूँ मेरा इंतजार न कर तेरा ही मैं तलबगार हूँ इंतजार न कर पत्ता है, गिरेगा पेड़ से इस कदर जैसे पतझड़ के बाद मौसम इंतजार न कर हर वक्त की नज़ाकत होती है अपनी सी वक्त के साथ बदलने में इंतजार न कर ****

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कैसे हो तुम?

5 अप्रैल 2015
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कैसे हो तुम ? सवालों से घिरता हुआ रहा हूँ मैं सरेआम चर्चाओं के बाज़ार में बिकता हुआ भी नज़र आता हूँ मैं कैसे हो तुम ? पूछ लेते हैं तुम सरीखे दोस्त भी सभी के वास्ते इसी में उलझा हूँ मैं सवालों से सवाल पैदा देखकर मैं कैसे हो तुम? सुनते हुए खुद से पूछ बैठता हूँ मैं

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थम गया झूला

8 अप्रैल 2015
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शाम प्रतिदिन ढलती है तुम्हारी यादें मेरे साथ झूले पे झूलती रहती है मैं तुम्हें मिलने के लिए तुम्हारे पास आता था चाय बनाकर तू ले आती दिनभर की बातें खूब होती तुम्हारी स्कूल से शुरू होती मेरी कविताओं में महकती एक सपना था, साथ जीने का साहित्य और सेवा के माध्यम कुछ कर ग

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रंग

12 अप्रैल 2015
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​ तुम आस्था से खूब आश्वस्त हो मैं अनपढ़ सबकुछ शाश्वत मानूं श्रद्धा की बातों से जी नहीं भरता मैं याद करूँ उसे जब साक्षात् देखूं धजा में रंग भर तू हरा या केसरी खून के अलग रंग बताएं तो मानूं * * *

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भरम

12 अप्रैल 2015
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कीमती पत्थर से दिल बनाकर यूं सीने में दफ़न किया कुछ ज्यादा ही तराश दिया हमने तो तुम्हें दिल लगा सीने पे सर रखो अपना कुछ भी सुनाई देगा नहीं तुम्हें मगर सीने पे सर रखने से तुम्हारा भरम तो बना रहेगा - पंकज त्रिवेदी

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आसपास है

16 अप्रैल 2015
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चन्द रातों से नींद बहुत आती है लगता है यही तू कहीं आसपास है चैन कम मिल पाता आपाधापी में सुकून-ए-मोहब्बत का दीदार तू है ए परवर दिगार शुक्रिया तेरा कहूं मैं तू नहीं तो ये ज़िंदगी क्या ख़ाक है? किसीके आँसूं देखकर पिघलना नहीं आँसूं बहने से पहले समझ दरकार है किसी

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छोड़ दो

17 अप्रैल 2015
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रुख हवा का बदल रहा है, बदलने दो तूफां से पहले किसीको शांत रहने दो मौसम का बदलना तय होता है अक्सर इंसान भी बदलता है उसे भी बदलने दो तुम्हारा वजूद स्वीकार नहीं उसको अगर तुम्हारी राह पे उसे चलने को निमंत्रण दो कहने से कोई बड़ा नहीं खामोश हो जाओ चलते रहो राह अपनी उन्हें स

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सपने

19 अप्रैल 2015
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कभी सपने ज़िंदगी को बदल देते हैं कभी सच या गलत साबित होते है सपनें रात को देखें तो ठीक है मगर सपनों को दिन में देखना भरम होते है किसी ने खूब कहा की कल्पनाएँ है वो जिसे सोचते हो वोही सपने में आते हैं कोई कहता अगर सपना नहीं तो क्या जीवन की उड़ान में भी सपने ही होते हैं अब

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हवा

20 अप्रैल 2015
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(1) मंद मंद बहती हवा जब रिसते पसीने को छू लेती है बैशाख में भी मन की प्रसन्नता चेहरे को पलाश बना देती है ! (2) हवा जब आँधी बनकर उमड़ती है अनछूई बंद आँखों में भी रंगबिरंगी सपने उभर आते हैं और जस के तस खड़े रहकर भी न जाने कितनी स्थिरता को बख्शती है ! (3)

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मैं जानता हूँ

21 अप्रैल 2015
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मैं जानता हूँ कि मैं शाश्वत नहीं हूँ और न कुछ भी मेरे बस में अपने आप को सिद्ध करने की जद्दोजहद में खुद को घसीटे जा रहा हूँ मैं और मैं हूँ यही सुकून को पाने के लिये मैं कर्म किये जाता हूँ मैं जानता हूँ कि कुछ भी न करने से अच्छा है कुछ तो करें हम जो न केवल हमारे लिये हो

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अस्तित्व

21 अप्रैल 2015
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अस्तित्व के बिखरे टुकड़ों से फिनिक्स बन खड़ा हो गया हूँ मिटा देना चाहते थे कई लोग मेरी शख्सियत को इस कदर जैसे कभी पुनर्जन्म ही न हों मगर मैं हूँ कि राख़ का ढेर बना समेटने लगा आत्मविश्वास को हर कदम, हर वक्त, चलता रहा अपनी पूरी ताकत को झोंक दी गुज़रते देखूं मैं उन्हें नत

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संवाद

23 अप्रैल 2015
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कल किसी ने मुझे पूछ लिया था - "क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आता..." मैंने कहा - "ज़िंदगी के हर लम्हे को जीना सीखो | सुख को सलाम करो, दुःख को गले लगाओ | अपनों के साथ रहो, गैरों को अपना बना लो | पुण्य को भूल जाओ, पाप को याद रखो.....दूसरों के व्यक्तित्व से शीघ्र प्रभावित न हों,

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भूचाल

25 अप्रैल 2015
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भूचालने न जाने कितने लोगों को जोड़ दिया आश्वस्त और आस्थावान बना दिया परिवार विभाजन की ऊंची दीवारें और घर की दरारों से मन की दरारों को मिटाने का काम भी कर दिया थर्राहट से अब डर नहीं लगता न कांपने लगता है मन... लगता है प्रकृति झूला झूला रही है हमें ! आँखों को अब आदत हो ग

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रिश्ता

30 अप्रैल 2015
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कुछ दिन पहले बात हुई थी मौसम के बदलते तेवर आसमान से बरसती आग मैंने भरसक कोशिश की थी मगर उसे मैं बचा न पाया दम तोड़ दिया कहो उसने महसूस हुआ जैसे मैंने दम तोडा छोटा सा पौधा ही तो था मासूम बच्चे की तरह कोमल बड़े स्नेह से मैंने उसे बोया था रिश्तों की तरह मैंने सँवारा था

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आलोचना : एक कठिन विधा और साधना

30 अप्रैल 2015
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रचनाकार जब भी किसी विधामें सृजन करता है तब वो भले ही नीजी अनुभवों और कुछ कल्पनाओं के बल पर उसे अपने नज़रिए से सक्षम रचना के तौर पर समाज को समर्पित करता है | रचनाकार की रचनाओं को प्रकाशक न केवल स्तरीय सांचे में देखता है बल्कि वो उस रचना में छीपी सामग्री को लोकभोग्यता के आधार पर और व्

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मैं और तुम

4 मई 2015
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मेरी खामोशी पे कोई इलज़ाम न लगाओ तुम निभाता है जो उसे न कहो वादा निभाओ तुम सूरज की किरणों में हाथ थामकर ले आएं हम चांदनी भी कैसी खिलखिलाती हुई थी और तुम दरमियाँ हमारे ज़िंदगी ने भी खिलवाड़ कर दिया दो कदम आगे कभी दो कदम पीछे रहे मैं और तुम कितना सरल, कितना सहज प्रवाह

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जीवन

14 मई 2015
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चहकती चिड़ियाँ चूप हो गई है आज आँगन भी सूना है हरसिंगार भी स्थिर ऐसा लगता है मुझे जीवन ऐसे ही थम जाता होगा ! *

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ताने बाने

15 मई 2015
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कोई छूट भी जाएगा तो जाने दो उसे दिल से भी छूट पाएगा वो हमसे कैसे ज़िंदगी का दायरा सीमित हो गया है आज नहीं तो कल भी मिलना है उसे दोस्ती में न शर्त न दावा होता है कभी फ़र्ज़-ए-अदा से ज़िम्मेदार बनाना उसे रिश्तों के ताने-बाने यूं मुश्किल हो मगर किसीकी इज्ज़त बचाने को बुनने द

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गूँज

19 मई 2015
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कौन कहता हैं कि तुझसे मेरा रिश्ता नहीं, हवा का रूख बदला है, भले ही बदल गया हो तुम्हें कभी तसल्ली मिलती हैं क्या सुनने मैं? यह हवा ही तो है जो गूँज लाती है रिश्तों की ! - पंकज त्रिवेदी

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हरा आँगन

19 मई 2015
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कल तक मुरझाये हुए थे वे बंद देहरी के आँगन में यहाँ-वहाँ दौड़ते सूखे पत्ते इकट्ठे होकर एक कोने में सयाने बच्चों की तरह बैठ गए है कुएँ में बंधा स्थिर जल सिवार और बेल से ढका हुआ आज नीले आकाश को प्रतिबिंबित करता है तुम्हारे चहरे की तरह ! मकडी के जाल से सराबोर तुलसी क्यारे

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बुलंदी

19 मई 2015
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बुलंदी पर पहुँचने के बाद चैन से सोचने की आदत है मेरी दस्तूर है दुनिया का जितने जाओगे ऊपर गिराएंगे जरूर अपनी खुशी में तारीफ़ के पूल बांधने वाले मिलेंगे जरूर वो भी जानते है इन्हीं से अपने काम भी करवाएंगे जरूर बहुत कम होते है जो दिल से होते हैं खुश और साथ भी जिन्हें न प

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रूमानी आँखें

23 मई 2015
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कोई रूमानी आँखों से आँसूं को छीन भी लें उन्हीं आँखों में चमकते नूर को जान भी लें मोहब्बतें ज़ुनून पैदा हो गया तुम्हारे लिए ताउम्र तेरे कदमों में हम पनाह पा भी लें तुम्हारी आँखों में बसी जो सपनों की माला मेरे इन हाथों में खेलती तस्बी को देख भी लें तालियाँ भी पीटता है ये ह

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दफ़न

27 मई 2015
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आँसूं अब नहीं बहेंगे चाहें कुछ भी हों जाएं भावनाओं से मजबूर आँखों की गंगोत्री को जो अनवरत बहती रही यहीं से शुरू होती है वो प्यार संवेदना की गंगा भागीरथी है ये तो क्या? आँखें तो है सिर्फ नाम से रोता है जो सीने में दफ़न * * *

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ख़्वाब

28 मई 2015
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ख्वाबों की दुनिया से मैंने बहौत कुछ पाया है ख्वाबों को हकीकत से हमेशा मैंने जुदा पाया है मोहब्बत का सिलसिला फकीरी का पैगाम लाया है मोहब्बत में न जाने हमने कितने मोहरों को पाया है ज़िंदगी की ज़मीन पर हमने बोए थे रिश्तों के पौधे उन्हीं रिश्तों को आज कोइ जड़ से उखाड़ लाया है

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तीन मुक्तक

29 मई 2015
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(1) चट्टानों के बीच से रास्ते निकालता है इंसान चट्टान कभी खुद बनकर खड़ा होता है इंसान मुश्किलें किसे नहीं आती है ज़िंदगी की राह में फिर क्यूं किसी के वास्ते मूड जाता यही इंसान * (2) कितना गहन कितना जटिल ये ज़िंदगी का समंदर कितना मुश्किल होता है तैरना कालिमा का समंदर अनुभव

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तुम ही जानती हो...

29 मई 2015
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अब एक लब्ज़ भी नहीं बोलूँगा मैं प्यार के आँगन में न जाने कितने फूल खिलाये थे हमने सपनों के तुम ही जानती हो.... मगर अब नहीं होगा वो सब जो तुम्हें पसंद नहीं माफ करना तो दूर की बात, तुमने खुद को जीते जी मरने का और मुझसे मौन का वादा किया तुम ही जानती हो.... क्या करता मैं? कहाँ

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तारीफ़ (मुक्तक)

29 मई 2015
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तारीफ़ के पूल पर चलना सभी को अच्छा लगता है भूकंप सिर्फ ज़मीन को नहीं इंसानो को भी हीला देता है

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इंतजार

29 मई 2015
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बस इतना फर्क है तुम्हारे मेरे में.. तुम इंतज़ार कर लेती हो और ... मैं इंतज़ार को वक्त दे नहीं सकता ! *

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बेवख्त (मुक्तक)

29 मई 2015
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मेरी मोहब्बत के बारे में न पूछ कमबख्त किसी के पास नहीं होता इतना भी वख्त ये शरीर नहीं मिट्टी का मकाँ है मेरे लिए तू है कि हर दिन रंगरेज़ बन आती बेवख्त

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नज़्म

30 मई 2015
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तुम्हारी चुप्पी से घबराता हूँ मैं दिन-रात अब तो मौन संवाद से गुज़रते दिन-रात खामोशियों का मतलब नहीं समझ सका खामोशियों को पढ़ता रहता हूँ दिन-रात कौन जानें कितने जन्मों का रिश्ता है ये जी रहा हूँ तेरे साथ बगैर रिश्ते दिन-रात

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क्या आप कार चलाते हैं?

31 मई 2015
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क्या आप कार चलाते है? सड़क पर ट्रैफिक में कभी आपने किसी पति-पत्नी को एक ही साईकिल पर खुशी से जाते हुए ध्यान से देखा है ? अपनी कार की स्पीड कम करके उन्हें जाने के लिए जगह छोडी है? किसी बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते पिता की मेहनत, लगन और जज्बात को समझने की कोशिश की है? * कहीं ऐसा त

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खुद मज़ा लेते

31 मई 2015
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रुख़सत देनी थी हमें तो इस कदर भी न देते दूसरों की क्या खुद की नज़र से न गिरने देते घर की टूटी छत के करीब घोंसला बना देते चिड़िया गज़ब है टूटे हुए को कैसे सजा देते आदत है इंसान की निज खुशी हो ढूँढता है किसी के वास्ते दुःख छोड़कर खुद मज़ा लेते > > > > >

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इंसान

2 जून 2015
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दो हिस्सों में बंट गया है ये इंसान कभी दोस्ती कभी मज़हब के नाम चंद ज़रूरतें होती है जीने के वास्ते रोटी, कपड़ा और मकान के नाम इंसान जब गिरता है इंसानियत से औरत, धन और अपने यश के नाम सभी मुश्किलों से लड़ जीतता इंसान बदनामी और हार रिश्तेदारों के नाम दुश्मनों को ढूँढने की ज़र

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यादें - पंकज त्रिवेदी

4 जून 2015
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एक दिन ऐसा आएगा... मैं कहीं नहीं दिखाई दूंगा न मेरे साँसों की ध्वनि न मेरे आने की पदचाप न कोई मेरी तसवीर न मेरा कोई संदेश और अगर मिलेगा कुछ तो वो होंगे मेरे शब्द मेरे जज़्बात मेरी बातें मेरे गीत मेरी दोस्ती की मिशाल और मैं भी न रहा न रहे मेरे शब्द भी तो शायद आप

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सुनती हो न प्रिये !

3 जुलाई 2015
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प्रिये तुम नहीं जानती मैंने अपनी ज़िंदगी में बहुत दुःख सहें दुनिया ने न जाने मेरी प्रतिभा को ख़त्म करने के लिए क्या क्या किया? मेरे संबंधो के बारे में ज़िंदगी के नीजी मामलों में इतना हस्तक्षेप किया ? एक समय था कि मुझे हर पल लगता मैं टूट जाऊँगा, बिखर जाऊँगा मगर मैंन

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ए खुदा !

10 जून 2015
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ए खुदा ! आ बैठ कभी तू मेरी भी चौखट पे जैसे लोग भी आकर बैठते है तेरी चौखट पे मुझे फुर्सत कहाँ है अपने संसार से तेरे लिए तूने दिए है कुछ काम और कुछ बोज सर पे लोग भी आते-जाते माँगते है तुझसे भी कुछ भरोसा कर ले तू, बोज मन का हो तो मुझ पे *

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खामोशी

3 जुलाई 2015
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मेरी खामोशी नदी की लहरों सी बह रही है आज... तुम भी कमाल हो ! दबे पाँव से भी भनक सुन लेती हो ! * - पंकज त्रिवेदी ------------------------------ My silence Like the waves of the river Flowing today ... You are incredible! With taper shank Inking be able to hear! * - Pan

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शेर

3 जुलाई 2015
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कितना दिलकश है यह मोहब्बत का सफ़र खुदा भी तरसता है ऐसे बन्दों का मयस्सर *

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मेरे शब्द

3 जुलाई 2015
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मेरे शब्द जो तुम्हें छू जाते है अंतरमन तक और तुम छू जाती हो मेरे अंतरमन तक ...! ईश्वर ही तो है जो प्यार बनकर बैठ गया है हम दोनों में ! * ----------------------------- My word If you are touching By innermost And You're touching ... Until my innermost! God is As l

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सदा के लिए

8 जुलाई 2015
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खुले आसमान में उड़ान भरने का प्रबल मनोबल, प्रकृति की ऊर्जा और अपनों के आशीर्वाद- दुआओं से मैं आत्मविश्वास से भरा हुआ महसूस करता हूँ | कहीं सामाजिक परिस्थिति, कभी भाषा का वैविध्य या तंदुरस्ती की विसंगतता हो सकती है | मगर उसी में से अपने नियत कर्मों के लिए कटिबद्ध रहता हूँ | सोचत

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रफ़्ता रफ़्ता

13 जुलाई 2015
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रफ़्ता रफ़्ता मोहब्बत का इक़रार करता हूँ सरेआम ... बेवकूफी कहो पागलपन कहो कुछ भी न कहो जिस्म के दर्द से आह निकलती है रूह के दर्द से सिर्फ तेरी राह निकलती है *

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मुक्तक

13 जुलाई 2015
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मज़ेदार है सफ़र तेरे दर का ए मेरे शिवा तू बर्फ की चोटी पे बैठा निगरानी करता वो ज़मीं के अंदर गड़ा हुआ बैठा फिर भी पृथ्वी को संभालने में लगा वो मेरा खुदा *

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मुक्तक

27 जुलाई 2015
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मज़ेदार है सफ़र तेरे दर का ए मेरे शिवा तू बर्फ की चोटी पे बैठा निगरानी करता वो ज़मीं के अंदर गड़ा हुआ बैठा फिर भी पृथ्वी को संभालने में लगा वो मेरा खुदा * - पंकज त्रिवेदी

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बीज

27 जुलाई 2015
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मैंने बीज बोया था वो बेली पनप रही है हौले हौले से ... विकसित होती हुई चिपकी रहती है अपनी धरती माँ से उसी की महक लिए सीख रही है ज़िंदगी के पाठ ... सोच रहा हूँ मिल जाएं उन्हें भी अब कोई नया नवेला साथ ज़िंदगी जीने के लिए खुशियों के संग और हम सभी की ज़िंदगी हो खुशहाल ! *

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शेर

27 जुलाई 2015
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ख्वाहिशें इतनी भी न करो कि किसी से नफ़रत हो जाएं भरोसा सिर्फ अपने काम पर ही करो कि लोग तरस जाएं *

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कलम

27 जुलाई 2015
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कलम जब करामात करें या कोहराम मचाएं इंसान की फितरत में है वो जज़्बात को लिखें कोई खून से लिखता है, कोई खूब लिखता है कलम सी ज़िंदगी में अनुभवों की स्याही लिखें नियति पे भरोसा रखो मगर मेहनत भी करो हर एक बंद दरवाजे पे ईश्वर ही किस्मत लिखें गिरना, बिछड़ना, टूटना ज़िंदगी में जब ह

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मुक्तक

27 जुलाई 2015
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पत्ते पत्ते से गिरते शबनम तेरे नयनों से भी बरसे नभ भावनाओं के ज्व़ार में सब बंदगी के नाम चाहेंगे हम *

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खालीपन

27 जुलाई 2015
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जब भी महसूस करता हूँ ख़ालीपन तेरे दीदार से मुखरित है खालीपन दर्शन के लिए लोग भले तरसते यहाँ दर्शन खुद में तेरा भर जाएं खालीपन तू मेरा प्यार हो या ईश्वर का रूप हो सबकुछ होते हुए भी तरसे खालीपन *

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खुदा

27 जुलाई 2015
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कितनी बेरहमी से वो प्यार करता है एकबार अपना लें बेशुमार बरसता है मौसम के मिजाज़ से वो यूं बदलता है जैसे जाड़े के लिए जब कोई तरसता है गुमराह होता नहीं न वो करता भी है गुमनाम होकर वो आँखों में बसता है खुदा है वो सरेआम निकलता ही नहीं आवाज़ दो खुलेआम वो मिलता भी है *

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खुश्बू

27 जुलाई 2015
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कैसे कैद कर पाओगी खुश्बू को तुम वो फूलों की हो या तुम्हारे कर्मों की अच्छा लगता है तुम्हारा मौन हमेशा लोगों से सुनता गाथा तुम्हारे कर्मों की ज़िंदगी के जंग में सदा तुम्हें देखता रहा लड़कर जीतने की आदत है तेरे कर्मों की *

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फ़कीर

27 जुलाई 2015
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मैं फ़कीरों की बस्ती में कहीं जा पहुंचा न जाने फिर क्यूं हंगामा खड़ा हो गया मंदिर की घंटी बजते ही लोग मुड़ जाते ईश्वर से हटकर वो मेरी ओर देखने लगा नफ़रत की दीवारों में सीमेंट होती नहीं कोमल सा दिल कब पत्थर का हो गया बेजुबाँ को देखता हूँ मजबूरी में डूबे हुए जब बोल देता कोई

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सुप्रभात

27 जुलाई 2015
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सूर्य की कोमल किरणे हौले से तुम्हें जगा रही है रुपहली सुबह तुम्हें अपनी आगोश में लिए बहुत सारा प्यार देने को बेताब है आँगन की हरियाली पर ओस बिंदु तुम्हें लुभाने को बेक़रार है आओ इस शुभ दिन में साथ निभाएं * सुप्रभात

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शेर

14 अगस्त 2015
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मेरे दर्द हमेशा बेज़ुबां होते है मैं ही हूँ जो बयाँ कर लेता हूँ *- पंकज त्रिवेदी

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मीरां

14 अगस्त 2015
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ज़ख्मों को गिनने की आदत हो गई है तुम्हें कभी मीरा बन जाओ मोहन साथ देगा तुम्हेंज़हर के कटोरे से उन्हें खौफ़ नहीं था कभीसच्चाई को ज़हर देना गलत समझाना तुम्हेंकितना शोर मचाया था तब दुनिया वालों नेवो समा गई कान्हा में दुनिया शांत लगे तुम्हें *पंकज त्रिवेदी

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धैर्य

14 अगस्त 2015
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दुआओं का असर तो होता है धैर्य रखो आज नहीं तो कल सुबह होगी धैर्य रखोशाम हो गई अगर अँधेरा भी हो जाएगाउसी में होंगे चाँद और तारें भी धैर्य रखोबादलों के बदलते रंग और आकार देखो क्या नज़ारा है साक्षात् कुदरत धैर्य रखो *पंकज त्रिवेदी

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क्या हो मेरा

14 अगस्त 2015
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मेरे अज्ञान को भी तुमने स्वीकार किया मैं कैसे कहूं तुम कौन हो और क्या मेराबचपना कभी नासमझी का सिलसिलाचंद शब्दों के ज्ञान में भला क्या हो मेराब्रह्माण्ड के अणु अणु में असीम संभावना परमाणु का भी अस्तित्व कहीं नहीं मेरा *- पंकज त्रिवेदी

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एक विचार

14 अगस्त 2015
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रूमानियत नहीं बदलती, नजरिया बदलता है - पंकज त्रिवेदी

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वात्सल्य

14 अगस्त 2015
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आज मैं जब खिड़की को खोलता हूँ हरसिंगार का पेड़ मुस्कुराता हुआ शाखा-प्रशाखाओं को झूला रहा हैवहीं बुलबुल और कुछ चिड़ियाँ भी मस्ती में झूले का आनंद ले रही है बारिश से भीगी सड़क लग रही है स्कूल जाने को तैयार हुए बच्चों सीबचपन की वो नासमझी और शरारतें रीझना, खीजना, कभी माँ का पीटना बहुत याद आता है मुझे अब कोई

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शेर

14 अगस्त 2015
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1
0

बज़्म-ए-मोहब्बत के तार खनकने लगे हे शिवा नृत्य कर डमरू को तरसने लगे *- पंकज त्रिवेदी

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सुकूँ-ए-मोहब्बत

14 अगस्त 2015
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1

मेरे दर्द के कतरे कतरे से जो हर्फ़ उभरता है मैं क्या कहूं वो आपके दिल में उतर जाते हैंजब ज़िंदगी हमसे बहुत खेल खेलने लगती है तन्हाई प्रियतमा और दर्द ही दोस्त हो जाते हैंजिसने दर्द दिए हमने न कहा, सहे, चुप ही रहें मरहम के नाम ज़ख्म कुरेदकर सहला जाते हैंन पूछो कुछ कह दिया तो वो गद्दार ही कहेंगेदर्द के दम

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शेर

14 अगस्त 2015
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0

ख़ाकी से ख़ाक तक का फांसला खबर से ख़बरदार का मुकाबला *-पंकज त्रिवेदी

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मुक्तक

14 अगस्त 2015
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खुश्बू पे इल्ज़ाम लगाने से क्या होगा तेरा जब दिल साफ़ और नियत पाक नहीं होगीप्रकृति को साथ लेकर चलोगे तो खुशहाल नस्ल भी तेरी मिट्टी की सुंगंध को परखेगी*- पंकज त्रिवेदी

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गिल्लीडंडा

14 अगस्त 2015
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4

ज़िंदगी का नाम ही कश्मकश हैसबकुछ सरल तो क्या जीए हमएक इंसान चला जाएं ज़िंदगी से एक पत्ता पेड़ से गिरता देखें हमबड़ी ताकत से संवेदना संभाले हुए अब जीने का समय क्या जीएं हमदरख़्त भी कितने बेजान से लगते हैकौन खेलता है गिल्लीडंडा सोचें हम *पंकज त्रिवेदी

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विचार

14 अगस्त 2015
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जब कोई गुस्सा करके कुछ भी कह देता है - अच्छा लगता है, क्योंकि उस तूफ़ान के बाद बड़ी शांति होगी है, दोनों तरफ ! मगर.... जब वो पछतावा करते हुए माफ़ी मांगे तब बहूत दुःख होता है, दोनों तरफ !- पंकज त्रिवेदी

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शांत समंदर

14 अगस्त 2015
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1

कुछ दिन पहले यही समंदर खुशमिजाज लहराता हुआ, किनारों को सहलाता हुआ, शांत-स्थिर था आज भी यही समंदर शांत-स्थिर है वो अब लहराता नहीं, न खुश न किनारों को सहलाता है पता नहीं क्या हो गया लोग कहते है कि समंदर का इस तरह शांत रहना ठीक नहीं मगर कौन जानता है समंदर अपने अंदर कितना कुछ संजोकर बैठा है जो दिखता नही

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कम नहीं

17 अगस्त 2015
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जब वक्त गुजरता नहीं, तब कटता भी नहीं लगता है सबकुछ थम सा गया है यहीं कहीं निराशा में कभी आशा की किरण दिखती है ऐसा भी नहीं हमने ज़िन्दगी को हराई नहीं शहर, मोहल्ला, आँगन, घर लौटते है जबहर दिन श्रद्धा का दीप जलाकर बुझाते नहीं आँधी तूफ़ान का काम है सबकुछ उजाड़नाउसी के बाद निर्माण का संकल्प कम नहीं ! *

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दो मुक्तक

21 अगस्त 2015
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(1)हर एक आशियाने में प्यार पलता है जब तक नफ़रत की नींद नहीं टूटती ज़िंदगी में कौन सी पल किसे खटकती मनचाहे से हो जाएं अनचाही पटखनी *पंकज त्रिवेदी -----------------------------------------------(2)दर्द के नाम बेइंतहा प्यार करते लोग बेइंतहा प्यार के नाम दर्द ही देते लोग मजबूर होता है हर किसी का जीवनजीवन

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रब नहीं !

21 अगस्त 2015
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रब की रूमानियत का मोल नहीं दरदर भटकने से रब मिलता नहीं तराज़ू पे रिश्तों को तोलने लगोगे तेरे कारनामे का वजन कम नहीं कड़ी धुप में वो घूमता रहा धून में बिना दर्द का अहसास रब तो नहींआ मेरे पास लग जा गले तुम भी क्या पता की तुझमें ही रब नहीं ! *पंकज त्रिवेदी

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गिल्ली डण्डा

21 अगस्त 2015
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चलो आज फिर से खेलते है गिल्ली डण्डा !बचपन में तुम मुझसे बहुत हार जाते थे !आज सुना मैंने कि तू बहुत बड़ा आदमी है ! *पंकज त्रिवेदी

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दरारें

18 अक्टूबर 2015
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हम लोग कोई एक दशक से नहीं कई दशकों से जानते है एक दूसरे को हम जानते है क्यूंकि मिलते भी है ! मिलते हैं इसलिए लोग भी मानते है कि हम एक दूसरे को खूब समझते भी है हम भी तो ऐसा मानकर अबतक साथ चलें मगर क्या यही सच है कि हम एक दूसरे को देखते है, जानते है, समझते भी है और बात यहीं पर ख़त्म हो जाती है हमेशा के

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दरारें

18 अक्टूबर 2015
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हम लोग कोई एक दशक से नहीं कई दशकों से जानते है एक दूसरे को हम जानते है क्यूंकि मिलते भी है ! मिलते हैं इसलिए लोग भी मानते है कि हम एक दूसरे को खूब समझते भी है हम भी तो ऐसा मानकर अबतक साथ चलें मगर क्या यही सच है कि हम एक दूसरे को देखते है, जानते है, समझते भी है और बात यहीं पर ख़त्म हो जाती है हमेशा के

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रिश्ते

18 अक्टूबर 2015
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कितनी सहूलियत से लोग जीते है रिश्तों में कितने बेफिक्र भी होते है चंद बातों को गुब्बारों में भरकर वो यहाँ से वहाँ तक कैसे पहुंचा देते है पानी बहता हुआ जब भी आता है अपने बिछौने को लिए चले जाते है बड़ी कोमलता से जुड़े रिश्तों के लिए पल में वो मेरे या आपके हो जाते है !*

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हवा की सल्तनत

18 अक्टूबर 2015
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इन हवा की सल्तनत से ऊपर कोई नहीं यहाँ कब बुझा दें वो आग कब ख़ाक से भड़के यहाँ जो मिट्टी से पैदा हुआ, जो मिट्टी में जिया उन्हीं के दाने-पानी पे कसा जो सिकंजा यहाँखुलकर सामने आते तो कुछ बातें हो भी जाती सत्ता के नशे और मोह में अपनों से गद्दारी यहाँ *पंकज त्रिवेदी

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राख बहने दो...

18 अक्टूबर 2015
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वह पिघल जाती है मुझ में इस कदर जैसे बारिश की बूँद समंदर के पानी में बादलों को घिरने दो वो चाहे जितना बरसना तो उन्हें यहीं है इसी पानी मेंकड़ी धूप में खिला प्यार का पलाशी रंगतपने दो जब तलक पिघल जाएं पानी मेंरेगिस्तान से जंगलों तक की प्यास खूब कहीं आग से उठी राख बहने दो पानी में *पंकज त्रिवेदी

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गुज़ारिश

18 अक्टूबर 2015
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तू कर ले खुदा से गुज़ारिश ए मेरे दोस्तबंदगी क्या करूँ मैं उनकी जो खुदा मेरा जन्मों की बातें क्या करें दोस्ती के लिए तरसता है दोस्ती के लिए वो खुदा मेरा मिसाल देते हैं हम दफ़न इतिहास की सुदामा को लेने दौड़ता है वो खुदा मेरा - पंकज त्रिवेदी

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पनाह

18 अक्टूबर 2015
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आज सितारों ने भी पनाह माँग ली हमसे जैसे कहते रहे बहुत जलाया जिस्म हमने *- पंकज त्रिवेदी (14 सितम्बर 2015-देर रात)

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खुरदुरी पहचान

18 अक्टूबर 2015
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तू श्रृंगार कर आज जितना भी धवल वस्त्र में सप्तरंगी हूँ मैं भीखुरदुरी पहचान पे हँस लो कभी आभा नहीं है दिव्यता मैंने पा लीगीत गाती रही यूँ रातभर तुम भी मेरी मौन धून में नाचती मीरां भी *- पंकज त्रिवेदी

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ज़िंदगी सरल

18 अक्टूबर 2015
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ज़िंदगी कहो कितनी सरल होती है, बच्चे के हाथ में गुब्बारे सी होती है | वो लड़की कंधे पे बोज लिए चलती है, ऐसी शिक्षा पर गर्व महसूस करती है?जातिवाद का समंदर लहराने लगे जब, चुनाव के नाम कितनी बेरहमी होती है !खफ़ा हो गया है खुदा मेरा कहने से क्या, खबर खुदा की या बंदगी की जगह होती है?*- पंकज त्रिवेदी*(पहली ल

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तरफ़दारी

18 अक्टूबर 2015
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तरफ़दारी उतनी ही करो जितनी लोगों को सच्ची लगें तारीफ़ के पूल बांधते कितना सीमेंट घर बनाने में लगे ?बातें खूब करो, जी भर के करो मगर मन की कभी नहीं पैकेज कितने बड़े दिखाते हो मगर आँगन जलाने में लगे? *- पंकज त्रिवेदी

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मछली

18 अक्टूबर 2015
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यह मछली तो वो है जो कुछ दिनों से लगातार चैन से मुझे न सोने नहीं देती है न मुझसे कहीं दूर चली जाती है ! जब भी आँख मूँदकर सोने जाऊं आँखों की नमीं से भरे सरोवर में वो इस तरह तैरने लगती है जैसे जलराशि को चीरती निकल जाती है !कौन है वो? क्यूं आती है बार बार मेरे पास और मैं उन्हें देखते हुए बेचैन सा हो जात

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जब भी आओगे

18 अक्टूबर 2015
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तू मोहब्बत करता है तो कर भी ले जरूरी नहीं हर वक्त हम साथ चलें ! तू नमन करें, पूजा करें या फूल चढ़ाएं बस एक बार दिल से मिल जाएं गले !कहने से कोई झुकता नहीं, न आशिषजब भी आओगे तुम खुले द्वार मिलेंगे |*पंकज त्रिवेदी

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हरसिंगार

18 अक्टूबर 2015
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आज भी महकती है खुश्बू इस आँगन में सूखे पत्तों पे हरसिंगार का फूल रखता हूँ तुम साथ न होकर भी कितनी करीब हो फूल में हर पल तुम्हे मैं महसूस करता हूँ बातों बातों पे तुम कसम देती थी मुझको किसने हाथ छोड़ दिया यही मैं सोचता हूँ इलज़ाम बहुत लगाये है हम पर दुनिया ने तुम्हारे मौन के बारे में आज भी सोचता हूँ *-

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खामोशी

18 अक्टूबर 2015
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खामोशी उनकी घुटन सी लगती है क्यूंकि उन्हें कभी बोलने की आदत तो नहीं थी मगर चेहरे पर हमेशा रहता था स्मित ! *- पंकज त्रिवेदी

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रिमानियत

18 अक्टूबर 2015
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मेरी रूमानियत पे वो जैसे शरमाता रहा लगा प्यार में वो कुछ गलत करता रहा खामोशी को वो बंदगी का नाम देता रहा इशारों से वो अपनी सल्तनत चलाता रहा दरमियाँ ज़िंदगी के फूलों से वो खेलता रहा बड़ी मासूमियत से वो दुनिया में जुड़ता रहा कर्म करना ही हमारा कर्तव्य है कहता रहा कैसा पेड़ है यह फल पाने को तरसता रहा !*पंक

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चमत्कार

18 अक्टूबर 2015
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वो चमत्कार नहीं जब तेरा कहा हो जाएं एक पल किसी के लिए तेरा तार जुड़ जाएं तुम ढूँढने निकलोगे तो वो सरक भी जाएं कुछ न सोचो और वो कंधे से कंधा मिलाएं विनम्र समर्पण निस्वार्थ भावों से जो हुआ वो तेरे ही द्वारा तेरा ईश्वर है जो ये निभाएं *पंकज त्रिवेदी

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बेड़ियाँ

18 अक्टूबर 2015
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खामोशी बेड़ियाँ बन जाएं बेहतर हो हम दूर हो जाएं आजकल पतंगे नहीं आते कुछ फूल क्यूं उदास हो जाएँइज़हार न करे तो क्या हुआ दो बूँद भी अभिषेक हो जाएँ *पंकज त्रिवेदी

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चमगादड़

18 अक्टूबर 2015
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चमगादड़ उन्हें बहूत पसंद है श्याम रंगी चमगादड़ चूहे सा मुँह, फ़ैली हुई पंख, और मधरात का शहनशाह ! भीड़भाड़ उन्हें पसंद नहीं न आवाजाही के मार्ग में उसे उड़ने का मन ! किसी अवड गहरे कूएँ में अपना साम्राज्य फैलाये हुए सोचता है, यही है मेरी दुनिया ! वो अक्सर इंसान के भेष में चमगादड़ बनकर घूमता रहता है हमारे आसपा

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महकते अल्फ़ाज़

18 अक्टूबर 2015
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मैं तुम्हारे दिल की धड़कन सुनता हूँ तुम आने जाने का हिसाब रखती हो !खामोशी मेरी तेरे करीब लाती है मुझे तू है कि खामोशी में दूरियाँ ढूँढती हो !महकते अल्फ़ाज़ तेरा सज़दा करने लगे इस नाचीज़ पे गज़ब प्यार ढाने लगी हो *पंकज त्रिवेदी

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रहनुमा

18 अक्टूबर 2015
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रहनुमा ने डेरा डाला है जब से इस गाँव में कहते हैं जैसे किस्मत बदल गई है गाँव में बहुत सालों बाद वो आता है तो आने भी दो हवा का रूख पलटता देता है वो इस गाँव में बहुत घुमते फिरते मुकम्मल जहाँ न मिला इसी मिट्टी में दफ़न होने को आया गाँव में कौन था वो क्या था मेरा तुम्हारा कहो तो ज़रा किसी से रिश्ता नहीं थ

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मजबूर न करो

18 अक्टूबर 2015
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तुम मुझे मजबूर न करो इंतजार भी इतना न करोबेशक मुझसे ज्यादा तुम्हें कौन चाहेगा, शक न करो मैं ऐसा ही हूँ बच्चे की तरह कहीं छुप जाऊं ढूँढा न करो अभी छुप गया तो पल में ही लौट आऊंगा शिकवा न करो *पंकज त्रिवेदी

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सत्ता के गलियारे में

18 अक्टूबर 2015
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लोग मुस्कुराने से भी कतराते हैं आजकल, सत्ता के गलियारे में भाषा की बेइज्जती हैं |*जज़्बात के नाम शिकार करते रहे लोग, रिश्तों के नाम सरेआम ठगते रहे लोग ! *- पंकज त्रिवेदी

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मुक्तक

18 अक्टूबर 2015
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शरीअती सूफ़ियाना अंदाज़े बयाँ करता है वो अक्सर लिबास में न जाने कौन सा फ़कीर दफ़न है मयस्सरशरीफ़ाना शराफ़त के नक़ाब में लिपटा हुआ शहमातसत्ता के बल शहज़ोर खुद को क्यूं खपाता है शहादत?* - पंकज त्रिवेदी *शहमात= शतरंज में हरे हुए शहंशाह के लिए चलने का कोई स्थान न बचा हो वो जगह शहजोर=बलवान

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मौन खफ़ा

18 अक्टूबर 2015
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मेरा मौन आज मुझसे खफ़ा हो गया लगता है कोई अपना ही गैर हो गया प्यार जताने का अंदाज़ रुखा-सूखा था दिल से मगर नक्शे-कदम खुदा हो गयाजांनिसार होने की बातें कहते हैं लोग कुछ न कहकर हम पे कुरबान हो गया *- पंकज त्रिवेदी

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प्यार की धजा

18 अक्टूबर 2015
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प्यार की धजा फरकाने लगोगे तुम कभी ज़िंदगी की नाव कभी डूबने से डरेगी नहींतूफ़ान की फ़ितरत है बदनाम होने की सदा समंदर की लहर पे ठण्डी हवा ऐसे तो नहीं !मछुआरे को बच्चों सा प्यार देता है गहन दरिया है शीघ्र ही विचलित हो ऐसा तो नहीं मौत और ज़िंदगी को हाथ में लिए घूमता हूँ ए खुदा ! तुझसे भी ज़ियादा भरोसा कहीं न

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झरोखा

23 अक्टूबर 2015
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मेरा झरोखा आज मेरी दुनिया है जो मैं चाहूँ वो ही सब दीखता हैआपके सुरीले शब्द सुकून देता हैआँखों में आपका प्यार दिखता हैप्यार के लिए फूलों की जरुरत नहीं मधुर स्मित से भी चेहरा खिलता हैसितमगरों से शिकायत क्या करें हम चंद लोग जो मेरी खुशियों का हिस्सा है *|| पंकज त्रिवेदी ||

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खाली हाथ

29 अक्टूबर 2015
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किसी ने पूछा क्या खरीदकर लाई हो?उसने कहा किराने की दूकान से लौटी हूँ खाली हाथ !एक गुब्बारा वाला ज़ोरशोर से सीटी बजाते आकर्षित करता था उसने गुब्बारा खरीद लिया है बेटी के लिए ! *|| पंकज त्रिवेदी ||

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बानगी

29 अक्टूबर 2015
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मैं देख रहा था उन्हें रिश्तों की कतरन करते हुए निर्ममता से बेपरवाह होकर, न चेहरे पर कोई शिकन न उमड़ते प्रसन्नता के भाव और न आँखों से टपकती नमीं...उन्हें लगता था कि न कोई उन्हें देखता है और अगर देखें भी तो उन्हें क्या?बेफ़िक्र था वो और हाथ खूब चल रहे थे बेहरमी की कैंची परसोचता हूँ कि इंसान कितना बदल रह

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जलने लगे

2 नवम्बर 2015
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जाने से पहले ही मेरे बारे में चर्चा शुरू हो जाती है कुछ लोग चाहने वालों से ज्यादा चाहने लगते हैकौन कितना मकाम कहाँ हांसिल कर पाएगा यहाँ कौन जानता है, कोई किसी से क्यूं जलने लगते हैं *|| पंकज त्रिवेदी |

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दो लाईन

2 नवम्बर 2015
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बात कहने से पहले तुम्हें गढ़ने की आदत हैमुझे हर बार तुमसे ही हार जाने की आदत है *|| पंकज त्रिवेदी ||

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कबूतर

2 नवम्बर 2015
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चंद दिनों से एक कबूतर घर के बिजली के मीटर बोक्स पर आकर बैठ जाता है |मुझे सुबह-शाम ही फुर्सत होती है, उसे देखने और समझने के लिए | मुझे देखकर वो मीटर बोक्स से उड़कर हरसिंगार के पेड़ पर आकर बैठ जाता है झूकी हुई शाख पर |उन्हें भी मालूम है कि मैं जब भी घर लौटता हूँ तब हरसिंगार के पास खड़ा होकर उसे निहारता ह

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खाली हाथ

2 नवम्बर 2015
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किसी ने पूछा क्या खरीदकर लाई हो?उसने कहा किराने की दूकान से लौटी हूँ खाली हाथ !एक गुब्बारा वाला ज़ोरशोर से सीटी बजाते आकर्षित करता था उसने गुब्बारा खरीद लिया है बेटी के लिए ! *|| पंकज त्रिवेदी ||

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गौमांस

2 नवम्बर 2015
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मैं देख रहा था उन्हें रिश्तों की कतरन करते हुए निर्ममता से बेपरवाह होकर, न चेहरे पर कोई शिकन न उमड़ते प्रसन्नता के भाव और न आँखों से टपकती नमीं... उन्हें लगता था कि न कोई उन्हें देखता है और अगर देखें भी तो उन्हें क्या?बेफ़िक्र था वो और हाथ खूब चल रहे थे बेहरमी की कैंची पर सोचता हूँ कि इंसान कितना बदल

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बहुत जलाया जिस्म हमने

2 नवम्बर 2015
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"बात उन्हें बुरी लगनी ही थी असीमा तूने सच जो कह दिया था आखिर"पढ़े विश्वगाथा का सम्पादकीयधन्यवादआप सबकी असीमा भट्ट 

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रहनुमा

2 नवम्बर 2015
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हर आँखों से बूँद गिरने लगे लगता जैसे कोई अपना मिले भाषा कभी बाधा नहीं होती है जब दिल की संवेदना से मिले रहनुमा तुम भी हो और हम भी आज यहाँ तो कब कहाँ पर मिले *|| पंकज त्रिवेदी ||

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दायरे

2 नवम्बर 2015
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मोहब्बत के दायरे कितने सिकुड़ने लगे है लगता है कोई खिलौना जैसे खरीद लेते हैंराजनीति हो या नीति जीवन की हो कहीं अनीति के सहारे लोग कितना जीत लेते है सच्चाई की बातें भी अब नहीं होती यहाँ पे भाषाओँ में शब्द नहीं गालियाँ बक लेते है मोबाईल से डिजिटल इंडिया का सपना है बिगड़ते हुए लोग अब हाशिये में रहते हैबय

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झरोखा

2 नवम्बर 2015
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मेरा झरोखा आज मेरी दुनिया है जो मैं चाहूँ वो ही सब दीखता हैआपके सुरीले शब्द सुकून देता हैआँखों में आपका प्यार दिखता है प्यार के लिए फूलों की जरुरत नहीं मधुर स्मित से भी चेहरा खिलता है सितमगरों से शिकायत क्या करें हम चंद लोग जो मेरी खुशियों का हिस्सा है *|| पंकज त्रिवेदी ||

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दो लाइन

2 नवम्बर 2015
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अहोभाग्य कुछ हमारा तो कुछ तुम्हारा अनजान रास्तों में कौन किसका सहारा *|| पंकज त्रिवेदी ||

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खामोशी

2 नवम्बर 2015
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मेरी खामोशी मुझे इसलिए अच्छी लगती है उस अवस्था में मैं तुम्हारे करीब पाता हूँ खुद को... ! *|| पंकज त्रिवेदी ||

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घर के अंदर...

18 दिसम्बर 2015
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घर का दरवाज़ा बंद होते हीउदास हो गयाआँगन !दरवाज़े नेदेहली के सामनेदेखा, वो उदासझूला भी शांत ! मगर- उन्हें क्या पता?मैं पिघल रहा हूँनिरंतर अंधकार औरएकांत मेंघर के अंदर... ! *|| पंकज त्रिवेदी ||

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ग़ज़ल

18 दिसम्बर 2015
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दिक्कतों से लड़ते हुए वो पत्थर सा बन गया,जब दिल से कही बात हो तो पराया बन गया । कोई असर होता नहीं उनके जिस्मों जिगर पर, घंटी मंदिर में बजे या जलें दिया वो बेख़बर रहा ।इंसान क्यूँ बेवफ़ा और खफ़ा होते हैं इंसान पर, रूह में नींव नहीं महल खोखले रिश्तों से बना ।कितनी बारीकियों से बुना हुआ रिश्ता हो पर, हर एक

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लघु काव्य

18 दिसम्बर 2015
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फ़र्क सिर्फ इतना तुम्हारे - मेरे मेंतुम शब्द से जज़्बात लिखते होऔरमैं दिल से लिखता हूँ !*|| पंकज त्रिवेदी || 

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किताब

18 दिसम्बर 2015
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 जब भी कोई नई किताबमेरे हाथों में होती है,स्याही की गंध सी महक उठती है महक जो किसी भी कलमकार के पसीने से भी मूल्यवान होती है ! जब भी कोइ पुरानी किताब मेरे हाथो में होती है,स्याही की गंध नहीं उठती मगर पुरानी लकड़ी की अलमारी में से यादें हर पन्नों पर इस कदर उभर आती है जैसे - पहली बार तुम्हें अपने करीब 

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कैसे हो तुम?

18 दिसम्बर 2015
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कैसे हो तुम ?सवालों से घिरता हुआ रहा हूँ मैं सरेआम चर्चाओं के बाज़ार में बिकता हुआ भी नज़र आता हूँ मैं कैसे हो तुम ?पूछ लेते हैं तुम सरीखे दोस्त भी सभी के वास्ते इसी में उलझा हूँ मैं सवालों से सवाल पैदा देखकर मैं कैसे हो तुम?सुनते हुए खुद से पूछ बैठता हूँ मैं दरख़्त पे आकर बैठा बुलबुल देखूं मैं उनकी तन

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गुजराती ग़ज़ल

20 दिसम्बर 2015
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एक गुजराती रचना: (साधारण हिन्दी अर्थ भी दिया गया है... कृपया पूरा पढ़िए)**આમ તો કશું કહેવાનું નથી, માણસ છીએ આમ તો કશું ધાર્યું થતું નથી, માણસ છીએ વેરવિખેર થઇ જાય લાગણીના સંબંધો જો આમ તો દિલ બોલવાનું નથી માણસ છીએ પળેપળ કોઈ મળે છે ને મળતા નથી બધાં આમ તો કેટલાં હળવા છે એ, માણસ છીએદખલ દેવાની આદત મને તો

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नये जीवन की आस लिये

5 जनवरी 2016
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नये जीवन की आस लिये... ! - पंकज त्रिवेदी *दिन के उजाले में देखा तो पेड़ों के शांत स्थिर पत्तों में खामोशी छाई हुई है !न पंछियों की चहचहाट सुनीन किसी के आने-जाने की आहटलगता है दिन ही ठहर गया है |पोखर का जल भी स्थिर है न कोई मवेशी, न कोई बच्चा नहाने को सारा गाँव जैसे अब भी गहन निद्रा में !न किसी के घर

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श्री रघुवीर चौधरी को ज्ञानपीठ

5 जनवरी 2016
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ज्ञानपीठ पुरस्कार लेखक विरोध पक्ष का नेता नहीं, साहित्यकार है- रधुवीर चौधरी*आज का दिन गुजराती भाषा के लिए गौरव और उत्सव का है. गुजराती भाषा के दिग्गज साहित्यकार श्री रघुवीर चौधरी के नाम को गुजराती भाषा के चौथे ज्ञानपीठ अवार्ड के लिए घोषित किया गया है.. पहले - कविश्री उमाशंकर जोशी, लेखक श्री पन्नालाल

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तन्हाई

5 जनवरी 2016
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जब वो कहते थे कि प्यार है तुमसे तो नाराज़ होती थी जब दूर जाता है तो तुम्हारी तनहाई भी कैसे रोती थी - पंकज त्रिवेदी *

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मोहब्बत

5 जनवरी 2016
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मोहब्बत कौन करता है यहाँ लगता है कोई मरता है यहाँ फांसले चाहे कितने भी होंगे कितने महसूस होते है यहाँ दर्द किसको नहीं होता कहो दर्द से दर्द जोड़ते दिल यहाँ तुम तुम नहीं न मैं मैं ही रहा सिर्फ इतने पिघले है हम यहाँ *|| पंकज त्रिवेदी ||

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नमीं

5 जनवरी 2016
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आँखों में नमीं ऐसे ही नहीं आती, खुद को निचौड़ता हूँ मैं तेरे लिये !*|| पंकज ||

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शायद..

5 जनवरी 2016
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आँखों में नमीं ऐसे ही नहीं आती, खुद को निचौड़ता हूँ मैं तेरे लिये !*|| पंकज ||

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रोटी

5 जनवरी 2016
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सूखी रोटी हाथ में लिए बच्चा खड़ा था भूखा ! माँ भी सोच रही थी क्या दूँ इस शरीर से मैं उसे दूध भी नहीं दे सकती मैं हड्डियों से.... !!*|| पंकज त्रिवेदी ||

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जिनके लिये

5 जनवरी 2016
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गहन अंधकार ने मुझे चारों ओर से घेर लिया था.... मैं दीप जलाने के लिए कोशिश पर कोशिश करता ही रहा.... दो हाथ आएँ आगे वायुदेव को बिनती करते और दीप जल ही गया.... फिर न जाने क्यूँ ?आँधी ही ऊठी रिश्तों को डराने के लिए...दीप बुझ गया न बचा रिश्ता उन दो हाथो से बना न जिनके लिए.... ! *|| पंकज त्रिवेदी ||05 Dec

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ज़िंदगी बहुत कम बची है दोस्त !

7 जनवरी 2016
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ज़िंदगी बहुत कम बची है दोस्त !मगर जान लो ये बात ..मैं ज़िंदगी के पीछे दौड़ता नहीं मौत से घबराता नहीं !ज़िंदगी को ख़ूबसूरत बनाने के लिए बेशुमार सपने भी देखता हूँ उन सपनों के लिए मेहनत करता हूँ !मगर वो सपने मेरे है, मेहनत भी मेरी किसी पर कोई आरोप या ईर्ष्या नहीं जो साथ आते है, उन्हें स्वीकारता हूँ !कुछ भी

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राधा

5 फरवरी 2016
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शब्दों के मोती से माला जो बनाता हूँ मैंतुम ही का नाम राधा-राधा जपता हूँ मैंकोई दीदार के लिये तरसता है तरसने दोमेरी रग रग में तुम्हारी लय से बहता हूँ मैं*|| पंकज त्रिवेदी ||

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भनक

5 फरवरी 2016
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समझ नहीं आता तेरे आने से खुश्बू आती है या खुदा की भनक प्यार के मामले में शायद तुमसे आगे कोई नहीं ऐसी है झलक *|| पंकज त्रिवेदी ||

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समाचार

5 फरवरी 2016
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शामलाजी (गुजरात) Dt. 28 January 2016 शामलाजी केलवणी मंडल संचालित आर्ट्स कोलेज के द्वारा यु.जी.सी. के तत्वाधान में गुजराती-हिन्दी भाषा का दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया था I जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से कॉलेज प्राचार्य एवं अध्यापक उपस्थित थे I कार्यक्रम के उदघाट

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इंतज़ार – पंकज त्रिवेदी

5 फरवरी 2016
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हर शाम को जब घर लौटता हूँ मैं आँगन बिखरी हुई डाक, पत्रिकाएँ कुछ किताबें देखता हूँ..डाक कभी मज़े से हवा के झोंके से नाचती है, बचपना कर लेती है पारिजात का पेड़ भी उसे झूलाता है किताबों का क्या ?एक वक्त था जब मेरे आने के इंतज़ार में पिताजी बैठे रहते थे सूखी सी आँखों में सपने लिये कुछ कहने को बेकरार से कित

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घुटन - - पंकज त्रिवेदी

5 फरवरी 2016
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तुम जिसे अनुशासित कहते हो, मैं उस अनुशासन में जी नहीं सकता । क्योंकि मैं इन्सान हूँ और वो हमेशा अनुशासन में जी नहीं सकता । तुम मुझसे प्यार नहीं करते, मुझ पर अंकुश लगाते हो शायद ! और मैं निरंकुश हूँ इसलिए इंसानियत को चाहता हूँ । पेड़-पौधों और जानवरों को भी चाहता हूँ, क्योंकि वो मुझसे अनुशासन की अपेक्ष

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मन - पंकज त्रिवेदी

5 फरवरी 2016
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जब भी तुमसे - बात करने का मन होता है, मैं आँखें मूंदकर झूले पे बैठ जाता हूँ । मन को शांत करने के लिए । खूब समझाता हूँ मैं ! आखिर ये मन तो है, सबकुछ करवाता है । कभी मानें या न भी मानें ! भरसक कोशिश के बाद मैं तुम्हारी तसवीरों के एल्बम में देखता हूँ । मन तब भी नहीं मानता कि - तुम अब नहीं हो ! *

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ज़िन्दगी

8 फरवरी 2016
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आओ ज़िंदगी से थोडा प्यार कर लेंदो चार लोगों से मिलकर बात कर लेंज़िंदगी है तो धूप छाँव रहेगी हमेशा थोडा सुख-दुःख आपस में बाँट भी लेंदर्द मेरे सीने में हो तो तुम्हारे सीने में क्यूँ?मोहब्बत की यही निशानी को भी परख लेंबड़ी उम्मींद लगाये बैठे है हमारे चाहने वाले हम हार क्यूँ मानेंगे आओ थोडा संभल लें*|| पंक

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गज़ब का अनुभव है... !

15 मार्च 2016
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अब कुछ भी बोलने का मन नहीं होता । हाँ, कभी कभी कोई धुन मन में उभर आती है तो कुछ गुनगुना लेता हूँ । कई बार शब्द नहीं होते सिर्फ धुन होती है मन के अंदर और जब मन की वीणा के तार बजते हैं तो आपको आसपास का कुछ सुनाई नहीं देता ।खामोशी बहुत प्यार करती है मुझसे ... और मैं भी । अपने आप से मिलना इस भगदड़ सी ज़िं

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परम की प्रकृति – पंकज त्रिवेदी

15 मार्च 2016
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मैं आज तुम्हारे अंदर पिघल रहा हूँ जैसे तुम सदियों पहले बहती हुई लावा की नदी थी और आज मुझे देखकर ठहर गई हो ! मै आज कुछ भी नहीं होते हुए भी बहौत कुछ हूँ और मेरा अपना अस्तित्त्व समर्पित हो रहा है तुम्हारे अंदर बूंद बूंद बनकर !मैं आज न बेबस हूँ और न तुम बेबस हो जो कुछ हो रहा है वो प्रकृति है प्राथमिकता

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ऑरा (दिव्य आभा) - पंकज त्रिवेदी

15 मार्च 2016
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मन कितना वीतरागी हो रहा है ये समझ में तो नहीं आता । मैं जब भी चलता हुआ निकल जाता हूँ तो मेरे अंदर से एक ऑरा (दिव्य आभा) भी बाहर निकलकर मेरे साथ चलता रहता है । हम दोनों के बीच निरंतर संवाद होते रहते हैं । हो सकता है कि आसपास के लोगों को वो ऑरा न दिखता हो या हमारे संवाद सुनाई देते न हों । मगर यही सच ह

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