हर शाम को जब घर लौटता हूँ मैं
आँगन बिखरी हुई डाक, पत्रिकाएँ
कुछ किताबें देखता हूँ..
डाक कभी मज़े से हवा के झोंके से
नाचती है, बचपना कर लेती है
पारिजात का पेड़ भी उसे झूलाता है
किताबों का क्या ?
एक वक्त था जब मेरे आने के
इंतज़ार में पिताजी बैठे रहते थे
सूखी सी आँखों में सपने लिये
कुछ कहने को बेकरार से
किताबें-पत्रिकाएँ तो वोही करती है
पिताजी की तरह चैन-बेचैन से,
कभी धैर्य से इंतज़ार करती है मेरा
आते ही पिताजी से संवाद और
माँ की अनकही बातें आँखों से
कह देती बहुत कुछ और पिताजी
कहते; थका सा है चाय पिलाओ !
बातें थमती, ज़मीं पर पैरों से
ठेला मारते ही झूला भी हमें झूलाता
और विचारों की उड़ान भी ऐसे ही !
आज भी शाम को घर लौटता हूँ मैं
बिखरी हुई डाक, पत्रिकाएँ, किताबें
खाली झूला, सूखे पत्ते और
किसी के आने का इंतज़ार रहता है
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