अस्पताल का कॉरिडोर सन्नाटे में डूबा हुआ था। ऑपरेशन थिएटर के बाहर परिवार के लोग बैठे थे, हर किसी की आँखों में एक उम्मीद थी कि डॉक्टर आकर कहेगा, "प्रभात अब खतरे से बाहर है।" लेकिन जैसे ही ऑपरेशन थिएटर के दरवाजे खुले और अरुणिमा बाहर आई, उसके चेहरे पर दर्द और हार की कहानी साफ झलक रही थी। उसके कदम लड़खड़ा रहे थे।
उसने धीमी आवाज़ में कहा, "प्रभात नहीं रहा।"
इतना सुनते ही प्रभात की माँ ज़मीन पर बैठ गईं। उनकी चीख ने पूरे कॉरिडोर को गमगीन कर दिया। "नहीं! यह नहीं हो सकता। मेरा बेटा मुझे छोड़कर नहीं जा सकता। भगवान, तुमने मेरे बेटे को मुझसे क्यों छीन लिया?"
रिया अपनी जगह से दौड़कर अरुणिमा के पास आई। उसकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। उसने अरुणिमा का हाथ पकड़कर कहा, "भाभी, यह झूठ है, है ना? भैया ने वादा किया था कि वह हमेशा हमारे साथ रहेगा। आपने कोशिश की होगी, आप उन्हें बचा लेतीं।"
अरुणिमा ने रिया को गले लगा लिया और फूट-फूटकर रो पड़ी। "मैंने सब कुछ किया, रिया। मैंने अपनी हर ताकत लगा दी, लेकिन मैं उसे नहीं बचा पाई। मैं एक डॉक्टर होकर भी उसे बचाने में नाकाम रही।"
प्रभात के पिता, जो अब तक शांत थे, एकदम टूट गए। उनकी आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने गुस्से और दर्द से कहा, "भगवान ने हमें किस बात की सजा दी? मेरा बेटा, जो इतना सीधा-सादा था, जिसने किसी का बुरा नहीं किया, उसे क्यों ले गए?"
उन्होंने अरुणिमा के पास जाकर कहा, "बेटा, यह तुम्हारी गलती नहीं है। लेकिन यह दर्द हमें जीवन भर रहेगा। तुमने अपनी पूरी कोशिश की। प्रभात हम सबका गौरव था, और तुमने हमें कभी निराश नहीं किया।"
अरुणिमा की माँ भी अब तक खुद को रोक नहीं पाईं। वह अरुणिमा को गले लगाकर रोने लगीं। "बेटा, तुम्हारे ऊपर क्या बीत रही है, मैं समझ सकती हूँ। लेकिन तुम्हें खुद को मजबूत करना होगा। यह वक़्त तुम्हारी परीक्षा ले रहा है।"
अरुणिमा ने अपनी माँ की बात सुनते हुए कहा, "माँ, मैंने उसे खो दिया। मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सहारा चला गया। मैंने उसे बचाने के लिए अपनी हर मुमकिन कोशिश की। लेकिन मैं हार गई।"
कॉरिडोर में हर कोई मातम में डूबा था। नर्स और डॉक्टर भी चुपचाप खड़े थे। इस दुख ने पूरे माहौल को घेर लिया था।
अस्पताल के एक कोने में, जहाँ हल्का सा अंधेरा और शून्यता पसरी हुई थी, अरुणिमा अपनी कुर्सी पर अकेली बैठी थी। वह अभी भी शादी का लाल जोड़ा पहने हुए थी, जिसे उसने बड़े सपनों और उम्मीदों के साथ पहना था। उसके हाथों की मेहंदी, जो अब भी चमक रही थी, उसे तड़पा रही थी। मेहंदी पर लिखे 'प्रभात' के नाम को वह बार-बार अपने गीले आँसुओं से देखती और सहलाती। उसकी आँखें सूज गई थीं, लेकिन आँसुओं का सैलाब अब भी थमने का नाम नहीं ले रहा था।
उसके मन में प्रभात की मुस्कुराहटें, उसकी बातें, और वह हर एक पल बार-बार गूंज रहा था। उसकी आवाज जैसे उसके कानों में घुल रही थी—"अरुणिमा, तुम इस लाल जोड़े में बिल्कुल अप्सरा लग रही हो। आज से हम दोनों एक-दूसरे के हो गए।"
उसने अपने गहनों को देखा, जो अब उसे किसी बंधन की तरह लग रहे थे। उसके कंधे पर पड़ा हुआ दुपट्टा, जो कभी उसे प्रभात का प्यार महसूस करवाता था, अब बोझ बन गया था। उसने उसे पकड़ते हुए हल्के-से कहा, "प्रभात, तुमने मुझसे हमेशा साथ निभाने का वादा किया था। फिर क्यों... क्यों तुम मुझे इस तरह छोड़ गए? क्या यह हमारा साथ बस इतने दिनों का ही था?"
उसके हाथों में लगा सिंदूर उसके माथे तक पहुँचने से पहले ही पोंछ दिया गया था—आधूरी लकीर, अधूरा साथ। वह घुटनों के बल झुक गई और फर्श पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी सिसकियों की गूंज खाली कमरे में गूंज रही थी। वह सोच रही थी, "यह वही लाल जोड़ा है, जिसे पहनकर मैंने सपने देखे थे। क्या यह वही जोड़ा है, जिसे मैं अपनी ज़िंदगी के सबसे खुबसूरत दिन के लिए पहनने वाली थी? आज यह कपड़े मेरे गहरे दुःख का गवाह बन गए हैं।"
कुछ देर बाद, उसने अपने गले में पड़ा मंगलसूत्र थामा। उसकी उंगलियाँ उसकी हर मोती पर टिकी थीं। वह फुसफुसाई, "यह तो तुम्हारे नाम का बंधन था, प्रभात। लेकिन अब यह बंधन सिर्फ मेरे गले का गला बन गया है। मैं इसे तुम्हारे बिना कैसे पहनूँगी? हर बार इसे छूने पर मुझे तुम्हारा एहसास होगा, और यह एहसास मुझे जीने नहीं देगा।"
उसने अपनी गीली आँखों से खिड़की के बाहर देखा। सुबह के तारे धीरे-धीरे गायब हो रहे थे। "यह वही तारे हैं, जिनके नीचे हमने वादे किए थे। तुमने कहा था कि मैं तुम्हारा जीवन बनूंगी। लेकिन आज ये तारे भी मेरे गवाह हैं कि मैंने तुम्हें खो दिया।"
अरुणिमा के मन में एक अजीब-सा खालीपन था। उसने अपनी सैंडल उतारी और ठंडे फर्श पर पैर रखे। वह महसूस कर रही थी जैसे हर चीज़ ठंडी और निष्ठुर हो गई हो। उसने अपनी घड़ी की तरफ देखा। कुछ ही घंटों पहले वह प्रभात के साथ गाड़ी में बैठी थी, उसका हाथ थामा था। "यह सब इतनी जल्दी कैसे बदल गया? कैसे मेरी पूरी दुनिया मुझसे छिन गई?"
वह खुद को संभालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हर बार जब उसकी नजर अपने लाल चूड़ों पर पड़ती, उसकी हिम्मत टूट जाती। उसने खुद से कहा, "तुम्हें मजबूत बनना होगा, अरुणिमा। यह समय तुम्हारी परीक्षा ले रहा है। लेकिन कैसे? जब प्रभात ही नहीं है, तो यह ताकत किसके लिए?"
उसने अपने आप को गले लगाया, मानो खुद को दिलासा देने की कोशिश कर रही हो। लेकिन उसकी सिसकियाँ कमरे की दीवारों से टकराकर उसे और अकेला महसूस करवा रही थीं। उसके भीतर का दर्द अनंत था, जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती थी।
रिया एक कोने में बैठकर प्रभात की यादों में खो गई। वह बार-बार कह रही थी, "भैया, आपने तो कहा था कि मेरी विदाई में आप मुझे गाड़ी तक छोड़ने चलेंगे। अब कौन करेगा मेरी विदाई? आप क्यों चले गए?"
अरुणिमा रिया के पास गई और उसे सीने से लगा लिया। उसने कहा, "रिया, तुम्हारे भैया तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे। उनकी यादें, उनका प्यार तुम्हारे दिल में जिंदा रहेगा। तुम अकेली नहीं हो। हम सब तुम्हारे साथ हैं।"
प्रभात की माँ ने रोते हुए कहा, "मैंने उसे बचपन में कितनी बार गिरते हुए संभाला। लेकिन आज मैं उसे बचा नहीं पाई। मेरी ममता हार गई।"
प्रभात के पिता ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, "हमारी ममता ने कुछ नहीं खोया। हमारा बेटा आज भी हमारे दिलों में जिंदा है। उसकी यादें हमें हमेशा संबल देंगी। लेकिन हमें अरुणिमा के बारे में भी सोचना होगा। वह भी बहुत दर्द में है।"
अरुणिमा ने आँसुओं से भरी आँखों से प्रभात के पार्थिव शरीर की ओर देखा। उसने कहा, "प्रभात, मैंने तुमसे वादा किया था कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी। अब तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी? तुमने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया?"
प्रभात के पिता ने अरुणिमा को गले लगाते हुए कहा, "बेटा, अब तुम अकेली नहीं हो। तुम इस घर की बहू नहीं, बेटी हो। हम सब तुम्हारे साथ हैं। लेकिन हमें अपने बेटे की यादों को उसकी ताकत बनाकर आगे बढ़ना होगा।"
अस्पताल का सन्नाटा टूट चुका था, लेकिन वहाँ का हर कोना अब भी उस दुख को महसूस कर रहा था। हर रिश्तेदार प्रभात की यादों में खोया था। और अरुणिमा, जो अपनी पूरी ताकत लगाकर भी प्रभात को नहीं बचा पाई थी, अब खुद को अपराधबोध और गहरे शोक में डूबा महसूस कर रही थी।
बाकी की कहानी अगले भाग में.....