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फुसफुसी कहानी

7 अप्रैल 2022

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सख़्त सर्दी थी।

रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी।

गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्त-क़द मकान और दरख़्त धुँदली धुँदली रोशनी में सिकुड़े सिकुड़े दिखाई दे रहे थे। बिजली के खंबे एक दूसरे से दूर दूर हटे, रूठे और उकताए हुए से मालूम होते थे। सारी फ़ज़ा में बद-मज़्गी की कैफ़ियत थी। एक सिर्फ़ तेज़ हवा थी जो अपनी मौजूदगी मनवाने की बे-कार कोशिश में मसरूफ़ थी।

जब दो साइकल सवार नुमूदार हुए और हवा के तेज़-ओ-तुंद झोंके उन के कानों से टकराए तो उन्हों ने अपने अपने ओवरकोट का कालर ऊंचा कर लिया। दोनों ख़ामोश थे। मुख़ालिफ़ हवा के बाइस उन्हें पैंडल चलाने में काफ़ी ज़ोर सर्फ़ करना पड़ रहा था। मगर वो इस के एहसास से ग़ाफ़िल एक दूसरे का साया बने शाली मार बाग़ की तरफ़ बढ़ रहे थे। अगर कोई उन्हें दूर से देखता तो उसे ऐसा मालूम होता कि सड़क जो लोहे की ज़ंगआलूद चादर की तरह फैली हुई थी, उन की साइकिलों के साकित पहियों के नीचे होले हुए खिसक रही है।

बहुत देर तक वो दोनों सुनसान फ़ासिला ख़ामोशी में तय करते रहे। आख़िर उन में से एक साइकल से उतर कर अपने सर्द हाथ मुँह की भाप से गर्म करने लगा। “सख़्त सर्दी है।”

उस के साथी ने ब्रेक लगाई और हँसने लगा। “भाई जान! वो.......वो विस्की कहाँ गई?”

“जहन्नम में....... जहां सारी शाम ग़ारत हुई, वहां वो भी न हुई।”

दोनों भाई थे, मगर ऐसे भाई जो चारों ऐब शरई इकट्ठे मिल जुल के करते थे। दोनों ने सुब्ह ये प्रोग्राम बनाया था कि दफ़्तर से फ़ारिग़ हो कर रिशवत के उस रुपये का जो उन्हें दो बजे के क़रीब मिलना था,जायज़ इस्तेमाल सोचेंगे।

रुपया उन्हें दो बजे से पहले ही मिल गया था, इस लिए कि रिशवत देने वाला बहुत बे-क़रार था। बड़े भाई ने रुपया जेब में रखने से पहले तमाम नोट अच्छी तरह देख कर इत्मिनान कर लिया कि वो निशान ज़दा नहीं थे। रक़म ज़्यादा नहीं थी। दो सौ एक रुपय थे। उन्हों ने दो सो तलब किए थे मगर एक का इज़ाफ़ा रिशवत देने वाले ने शगुन के लिए किया था जो बड़े भाई ने अपने छोटे भाई से मशवरा कर के एक अंधे भिकारी को दे दिया था। अब वो दोनों हीरा मंडी की तरफ़ जा रहे थे।

छोटे भाई की जेब में स्कॉच की बोतल थी। बड़े की जेब में थ्री-फाइव के दो डिब्बे आम तौर पर दोनों गोल्ड फ्लेक पीते थे, मगर जब रिशवत मिलती तो ऐसा ब्रांड पीते थे जिस के दाम ज़्यादा हों।

हीरा मंडी में दाख़िल हुआ ही चाहते थे कि बादशाही मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आई। बड़े ने छोटे से कहा। “चलो यार, नमाज़ पढ़ लें!”

छोटे ने अपनी फूली हुई जेब की तरफ़ देखा। “इस का क्या करें भाई जान?”

बड़े ने थोड़ी देर सोचा और कहा। “इस का इंतिज़ाम कर लेते हैं....... अपना यार बट जो है!”

बट पान फ़रोश की दुकान क़रीब ही थी। छोटे ने महीन काग़ज़ में लिपटी हुई बोतल उस के हवाले की। बड़े ने अपनी और अपने भाई की साइकल दुकान के थड़े के साथ टिकाई और बट से कहा। “हम अभी आए नमाज़ पढ़ के!”

बट ने क़हक़हा लगाया। “दो नफ़िल शुक्राने के भी!”

दोनों भाइयों ने बादशाही मस्जिद में नमाज़ अदा की और दो नफ़िल शुक्राने के भी पढ़े। वापस आए तो क्या देखते हैं कि बट की दुकान बंद है। साथ वाले दुकानदार से पूछा तो उस ने कहा। “नमाज़ पढ़ने गया है।”

दोनों भाइयों को सख़्त तअज्जुब हुआ। “नमाज़! ”

दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा। “साल छः माह ही में कभी कभी पढ़ लिया करता है।”

दोनों बहुत देर तक बट की वापसी का इंतिज़ार करते रहे। जब वो ना आया तो बड़े ने छोटे से कहा। “जाओ यार....... एक बोतल और ले आओ....... मैं ने ख़्वाह-मख़्वाह उस हरामज़ादे बट पर एतबार किया।”

छोटे ने रुपये लिए और बड़े से कहा। “जेब ही में पड़ी रहती तो क्या हर्ज थी?”

“छोड़ो यार....... हटाओ इस क़िस्से को....... मुझे बोतल जाने का इतना अफ़्सोस नहीं....... कहीं गिर कर भी टूट सकती थी....... अफ़्सोस तो इस बात का है कि बड़ी बेदर्दी से पी रहा होगा कमबख़्त।”

छोटे ने पैडल पर पांव रखा और पूछा। “आप यहीं होंगे?”

बड़े ने बड़े उकताए हुए लहजे में जवाब दिया। “हाँ भई, यहीं खड़ा रहूँगा....... शायद बहक कर इधर आ निकले....... लेकिन तुम जल्दी आ जाना!”

छोटा जल्दी वापस आ गया मगर उस का चेहरा लटका हुआ था। उस के साथ एक और आदमी था जो कैरियर पर बैठा हुआ था। बड़ा ताड़ गया कि ज़रूर कोई गड़बड़ है। लेकिन उसे ज़्यादा देर तक ज़हनी कश्मकश में मुबतला न रहना पड़ा क्यूँ कि छोटे ने साइकल से उतरते ही उस को सारा क़िस्सा सुना दिया।

शराब की दुकान से दूसरी बोतल लेकर जूँही वो बाहर निकला तो बारिश हो चुकी थी। उसे जल्द वापिस पहुंचना था। अफ़रा-तफ़री में उस ने साइकल पर सवार होने की कोशिश की मगर वो ऐसी फिसली कि संभाले न संभली। सड़क पर औंधे मुँह गिरा और दूसरी बोतल भी जहन्नम में चली गई।

छोटे ने सारी दास्तान तफ़्सील के साथ सुना कर अल्लाह का शुक्र अदा किया। “मैं बच गया भाई जान.......बोतल का कोई टुकड़ा अगर कपड़े चीर कर गोश्त तक पहुंच जाता तो इस वक़्त किसी हस्पताल में पड़ा होता।”

बड़े ने अल्लाह का शुक्र अदा करना मुनासिब न समझा। शराब की दुकान से जो आदमी उस के भाई के साथ आया था, उस को तीसरी बोतल के पैसे दे कर उस ने बट पान फ़रोश की बंद दुकान की तरफ़ देखा और दिल ही दिल में एक बहुत हवल-नाक क़िस्म की गाली दे कर उस की दुकान को भस्म कर डाला।

दोनों को मालूम था कि उन्हें कहाँ जाना है। चौक के उस तरफ़ नान कबाब वाले के ऊपर जो बाला-ख़ाना था, उसी में इन दोनों भाईयों की बालाई आमदनी का जाएज़ निकास था, लौंडिया कम-गो थी। खाने पीने वाली थी। आदात-ओ-अत्वार के लिहाज़ से तवाएफ़ कम और कलर्क ज़्यादा थी। इसी लिए उन को पसंद थी कि वो ख़ुद भी कलर्क थे। जब दोनों ख़ूब पी जाते तो दफ़्तरी गुफ़्तुगू शुरू कर देते। हेड-कलर्क कैसा है, साहब कैसा है, उस की घर वाली की तबीअत कैसी है। घंटों अपने अपने मातहतों और अपने अफ़्सरों के माज़ी और हाल पर तब्सिरा करते रहते। और वो बड़े इन्हिमाक से सुनती रहती।

बहुत कुन सुरी थी, मगर दोनों भाई उस का गाना सुन कर यूँ झूमते थे जैसे वो उन के कानों में शहद टपका रही है.......लेकिन आज जब वो गाने लगी तो उन को पहली मर्तबा महसूस हुआ कि वो सुर में है ना ताल में। चुनांचे उस का गाना बंद कराके उन्हों ने बाक़ी बची हुई शराब पीना शुरू कर दी।

तवाएफ़ का नाम शैदां था, बहुत कम पीने वाली, मगर जाने उसे क्या हुआ कि जब दोनों भइयों ने उस का गाना बंद करा के पीना शुरू किया तो वो बहक गई और ऐसी बहकी कि बोतल उठा कर सारी की सारी सूखी पी गई।

बड़े को बहुत ग़ुस्सा आया, मगर वो उसे पी गया क्यूँ कि छोटा मज़े में था। लेकिन ज़्यादा देर तक उस पर ये कैफ़ तारी न रहा क्यूँ कि जब उस ने और पीने के लिए बोतल उठाई तो वो ख़ाली थी। अब दोनों यकसाँ तौर पर बे-मज़ा थे।

बड़े ने छोटे से मशवरा करना ज़रूरी न समझा। शैदां के उस्ताद मांडू को रुपये दे कर उस ने कहा। “जाओ, भाग कर जाओ और एक बोतल जिमखाना विसकी ले आओ!”

उस्ताद ने रुपये गिन कर जेब में रखे और कहा। “सरकार! ब्लैक में मिलेगी।”

बड़ा जो पहले ही भन्नाया हुआ था, चिल्ला कर बोला। “हाँ, हाँ....... जानता हूँ। इसी लिए तो मैं ने पाँच ज़्यादा दिए हैं।”

जिमखाना आई। दो दौर चले तो बड़े ने महसूस किया कि पानी मिली है। इम्तिहान लेने की ख़ातिर उस ने थोड़ी सी रुकाबी में डाली और उस को दिया सलाई दिखाई। एक लहज़े के लिए नीम जान नेलगूँ सा धुआँ उठा और दिया सलाई शिवं कर के रुकाबी में बुझ गई।

दोनों भाइयों को इस क़दर कोफ़्त हुई कि ग़ुस्से में भरे हुए उठे। बड़े ने पानी मिली बोतल हाथ में ली। उस का इरादा था कि ये वो उस शराब फ़रोश के सर पर दे मारेगा जिस ने बेइमानी की थी। मगर फ़ौरन उसे ख़याल आया कि उन के पास परमिट नहीं था, इस लिए मजबूरन गालियां दे कर ख़ामोश हो गए।

छोटे की कोशिशों से बदमज़्गी किसी हद तक दूर हो गई थी कि शैदां ने जो उस की मदद कर रही थी, सब खाया पिया उगलना शुरू कर दिया। अब दोनों भाइयों ने मुनासिब ख़याल किया कि चला जाये। चुनांचे उस्ताद की तहवील से साइकलें लेकर वो हीरा मंडी की गलियों में देर तक बे-मक़्सद घूमते रहे। मगर इस आवारा-गर्दी के बाइस उन की कोफ़्त दूर न हुई। वापस घर जाने का इरादा ही कर रहे थे कि उन्हें बट दिखाई दिया। नशे में धुत था और कोठों की तरफ़ गर्दन उठा उठा कर वाही-तबाही बक रहा था। दोनों भाइयों के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि आगे बढ़ कर उस का टेंट्वा दबा दें। मगर उन से पहले एक सिपाही ने उस को पकड़ लिया और थाने ले लिया।

छोटे ने बड़े से कहा। “चलिए भाई जान.......ज़रा तमाशा देखें।”

बड़े ने पूछा। “किस का?”

“बट और किस का!”

बड़े के होंटों पर माना-ख़ेज़ मुस्कुराहट नुमूदार हुई। “पागल हुए हो....... थाने में अगर उस ने हमें पहचान लिया या किसी ने हमारे मुँह की बू सूंघ ली तो हमें अपना तमाशा भी साथ साथ देखना पड़ेगा।”

छोटे ने दिल ही दिल में बड़े की दूर-अंदेशी की दाद दी और कहा। “तो चलिए.......घर चलें।”

दोनों अपनी अपनी साइकल पर सवार हुए। बारिश थम चुकी थी। लेकिन सर्द हवा बहुत तेज़ चल रही थी। अभी वो हीरा मंडी से बाहर निकले थे कि उन्हें इस तांगे में जो उन के आगे आगे चल रहा था, अपने दफ़्तर का बड़ा अफ़्सर नज़र आया। दोनों ने एक दम उस की निगाहों से बचने की कोशिश की, मगर ना-काम रहे। क्यूँ कि वो उन्हें देख चुका था।

“हैलो!”

“उन्हों ने इस हैलो का जवाब न दिया।”

“हैलो!”

इस हैलो के जवाब में उन्हों ने अपनी अपनी साइकल रोक ली....... अफ़्सर ने ताँगा ठहरा लिया और उन से बड़े मरबियाना अंदाज़ में कहा। “कहो मिस्टर! ऐश हो रहे हैं?”

छोटे ने “जी हाँ!” और बड़े ने “जी नहीं! ” में जवाब दिया। इस पर अफ़्सर ने क़हक़हा लगाया। “मेरा ऐश तो अधूरा रहा।” फिर उस ने अफ्सराना अंदाज़ में पूछा। “तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं?”

इस मर्तबा बड़े ने “जी हाँ!” और छोटे ने “जी नहीं!” में जवाब दिया जिस पर अफ़्सर ने दूसरा क़हक़हा बुलंद किया जो ठेट अफ्सराना था। “एक सौ रुपये काफ़ी होंगे इस वक़्त!”

बड़े ने बड़े मैकानिकी अंदाज़ में अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और अपने छोटे भाई की तरफ़ बढ़ा दिया। छोटे ने पकड़ कर अफ़्सर के हवाले कर दिया जिस ने “थैंक यू!” कहा और तांगे से उतर कर लड़खड़ाता हुआ एक तरफ़ चला गया।

दोनों भाई थोड़ी देर तक ख़ामोश रहे। बड़े ने तमाम हालात पेशे नज़र रख कर अपने सर को ज़ोर से जुंबिश दी। “मालूम नहीं आज सुबह सुबह किस का मुँह देखा था।”

छोटे के मुँह से ये बड़ी गाली निकली। “उसी....... का, जिस ने दो सौ एक रुपये दिए।”

बड़े ने भी उस को मुनासिब-ओ-मौज़ूं गाली से याद किया। “ठीक कहते हो....... लेकिन मैं समझता हूँ सारा क़ुसूर उस फ़ालतू रुपये का है जो उस ने अपनी माँ की रवां से शगुन के तौर पर दिया था।”

“उस नमाज़ का भी जो हम ने पढ़ी!”

“और उस हरामी बट का भी!”

“मैं तो शुक्र करता हूँ कि पुलिस ने उस को पकड़ लिया, वर्ना मैं ने आज ज़रूर उस का ख़ून कर दिया होता।”

“और लेने के देने पड़ जाते।”

“लेने के देने तो पड़ ही गए....... ख़ुदा मालूम ये हमारा अफ़्सर कहाँ से आन टपका।”

“लेकिन मैं समझता हूँ अच्छा ही हुआ....... सौ रुपये में साला काना तो हो गया।”

“ये तो ठीक है.......लेकिन आज की शाम बहुत बुरी तरह ग़ारत हुई।”

“चलो चलें....... ऐसा ना हो कोई और आफ़त आ जाए।”

दोनों फिर अपनी अपनी साइकल पर सवार हुए और हीरा मंडी से निकल आए।

बड़े ने दफ़्तर से निकलते ही ये मंसूबा बनाया था कि स्कॉच के दो-तीन दौर होने के बाद वो शैदां से कहेगा कि वो अपनी छोटी बहन को बुलाए। उस की वो बहुत तारीफ़ें किया करती थी। कम-उम्र और अल्लढ़ थी। अपनी ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा उस ने गांव की सेहत-मंद फ़ज़ा में गुज़ारा था और धंदा शुरू किए उसे ब-मुश्किल चंद महीने हुए थे।

स्कॉच विस्की और शैदां की छोटी और तबीअत उस से बढ़ कर और क्या अय्याशी हो सकती थी....... मगर उस का ये सारा मंसूबा ख़ाक में मिल गया और सिर्फ़ कोफ़्त बाक़ी रह गई।

छोटे ने भी खेल खेलने की सोची थी। मौसम ख़ुश-गवार था। विस्की और शैदां यक़ीनी तौर पर उसे और भी ख़ुश-गवार बना देते और वो इस क़दर महज़ूज़ होता कि पंद्रह बीस रोज़ तक उसे और किसी ऐश की ज़रूरत महसूस न होती.......मगर सारा मुआमला चौपट हो गया।

दोनों के सर भारी और दिल कड़वी कसीले थे। दोनों की हर बात उल्टी साबित हुई थी। स्कॉच की पहली बोतल बट पान फ़रोश ले उड़ा। दूसरी सड़क के पत्थरों पर टूट कर बह गई। तीसरी ऐन उस वक़्त दाग़ –ए-मफ़ारिक़त दे गई जब कि सुरूर गठ रहे थे। चौथी किफ़ायत की ख़ातिर देसी मंगवाई तो उस में आधा पानी निकला और सौ का आख़िरी नोट अफ़्सर ने हथिया लिया।

बड़े की कोफ़्त ज़्यादा थी, यही वजह थी कि उस के दिमाग़ में अजीब अजीब से ख़याल आ रहे थे। वो चाहता था कि और भी कुछ हो.......कोई ऐसी बात हो कि वो कुत्तों की तरह ज़ोर ज़ोर से भोंकना शुरू कर दे....... या ऐसा ज़च-बच हो कि अपनी साइकल के पुर्जे़ उड़ा दे, अपने तमाम कपड़े उतार कर फेंक दे और नंग-धड़ंग किसी कुंएँ में छलांग लगा दे। जिस तरह हालात ने उस का मज़हका उड़ाया था, उसी तरह वो उन का मज़हका उड़ाना चाहता था। मगर मुसीबत ये थी कि वो हालात पैदा हो कर वहीं हीरा मंडी में वफ़ात पा गए थे। अब नए हालात और वो भी ऐसे हालात पैदा हों जिन का वो हसब-ए-मंशा मज़हका उड़ा सके। इस के मुताल्लिक़ सोचने से वो ख़ुद को आरी पाता था।

एक सिर्फ़ घर था जहां लिहाफ़ ओढ़ कर सो सकते थे....... मगर ख़ाली ख़ोली लिहाफ़ ओढ़ कर सो जाने में क्या रखा था। उस से तो बेहतर था कि वो सौ सौ के दो नोटों में चरस मिला तंबाकू को भरते और पी कर अंटा-ग़फ़ील हो जाते और सुब्ह उठ कर शगुन के एक रुपये का किसी पीर फ़क़ीर के मज़ार पर चढ़ावा चढ़ा देते।

सोचते सोचते बड़े ने ज़ोर का नारा बुलंद किया। “हट तेरी ऐसी की तैसी!”

छोटे ने घबरा कर पूछा। “पंक्चर हो गया?”

बड़े ने झुंझला कर जवाब दिया। “नहीं यार....... मैं ने अपना दिमाग़ पंक्चर करने की कोशिश की थी।”

छोटा समझ गया। “अब जल्दी घर पहुंच जाएं।”

बड़े की झुंझलाहट में इज़ाफ़ा हो गया। “वहां क्या करेंगे....... बतखों के बाल मूंडेंगे?”

छोटा बे-इख़्तियार हंसने लगा। बड़े को ये हंसी बहुत ना-गवार गुज़री। “ख़ामोश रहो जी!”

देर तक दोनों ख़ामोशी से घर का फ़ासले तै करते रहे। अब वो उस सड़क पर थे जो लोहे की ज़ंग-आलूद चादर की तरह फैली हुई थी, और ऐसा लगता था कि उन की साइकलों के पहियों के नीचे होले-होले खिसक रही है।

बड़े ने जब अपने सर्द हाथ मुँह की भाप से गर्म किए और कहा। “सख़्त सर्दी है।” तो छोटे ने अज़-राह-ए-मज़ाक़ पूछा। “भाई जान! वो....... वो विस्की कहाँ गई?”

बड़े के जी में आई कि छोटे को साइकल समेत उठा कर सड़क पर पटक दे, मगर इस क़दर कह सका। “जहन्नम में....... जहां सारी शाम ग़ारत हुई, वहां वो भी हुई।”

ये कह वो बिजली के खंबे के साथ खड़ा हो कर पेशाब करने लगा। इतने में छोटे ने आवाज़ दी “भाई जान! वो देखिए कौन आ रहा है।”

बड़े ने मुड़ कर देखा। एक लड़की थी जो सर्दी में ठिठुरती, कांपती, क़दमों से रास्ता टिटोलते उन की जानिब आ रही थी। जब पास पहुंची तो उस ने देखा कि अंधी है, आँखें खुली थीं मगर उस को सुझाई नहीं देता था क्यूँ कि खंबे के साथ वो टकराते टकराते बची थी।

बड़े ने ग़ौर से उस की तरफ़ देखा....... जवान थी। उम्र यही सोला-सत्रह बरस के क़रीब होगी। फटे पुराने कपड़ों में भी उस का सुडौल बदन जाज़िब-ए-तवज्जोह था। छोटे ने उस से पूछा। “कहाँ जा रही है तू?”

अंधी ने ठिठुरे हुए लहजे में जवाब दिया। “रास्ता भूल गई हूँ....... घरसे आग लेने के लिए निकली थी।”

बड़े ने पूछा। “तेरा घर कहाँ है?”

अंधी बोली। “पता नहीं....... कहीं पीछे रह गया है।”

बड़े ने उस का हाथ पकड़ा। “चल मेरे साथ!”

और वो उसे सड़क के उस पार ले गया जहां ईंटों का पुराना भट्टा था जो वीराने की शक्ल में बिखरा हुआ था। अंधी समझ गई कि उस को रास्ता बताने वाला उसे किस रास्ते पर ले जा रहा है, मगर उस ने कोई मज़ाहमत न की.......शायद वो ऐसे रास्तों पर कई मर्तबा चल चुकी थी।

बड़ा ख़ुश था कि चलो कोफ़्त दूर करने का सामान मिल गया। किसी मदाख़िलत का खटका भी नहीं था। ओवरकोट उतार कर उस ने ज़मीन पर बिछाया वो और अंधी दोनों बैठ कर बातें करने लगे।

अंधी जन्म की अंधी नहीं थी। फ़सादाद से पहले वो अच्छी भली थी। लेकिन जब सिखों ने उस के गांव पर हमला किया तो भगदड़ में उस के सर पर गहरी चोट लगी जिस के बाइस उस की बसारत चली गई।

बड़े ने ऊपरे दिल से उस से हमदर्दी का इज़हार किया। उस को उस के माज़ी से कोई दिलचस्पी नहीं थी। दो रुपये जेब से निकाल कर उस ने उस की हथेली पर रखे और कहा। “कभी कभी मिलती रहा करना....... मैं तुम्हें कपड़े भी बनवा दूंगा।”

अंधी बहुत ख़ुश हुई। बड़े ने जब उस को रोशन आँखों और फुर्तीले हाथों से अच्छी तरह टिटोला तो वो भी बहुत ख़ुश हुआ। उस की कोफ़्त काफ़ी हद तक दूर हो गई, लेकिन एक दम उसे अपने छोटे भाई की भिंची हुई आवाज़ सुनाई दी। “भाई जान.......भाई जान!”

बड़े ने पूछा। “क्या है?”

छोटा सामने आया। बड़े ख़ौफ़-ज़दा लहजे में उस ने कहा। “दो सिपाही आ रहे हैं!”

बड़े ने होश-ओ-हवास क़ायम रखते हुए अपना ओवरकोट खींचा जिस पर अंधी बैठी हुई थी। झटके से वो उस ख़ंदक़ में गिर पड़ी जिस में से पक्की हुई ईंटें निकाल ली गई थीं। गिरते वक़्त उस के मुँह से बुलंद चीख़ निकली। मगर दोनों भाई वहां से ग़ायब हो चुके थे।

चीख़ सुन कर सिपाही आए तो उन्हों ने बे-होश अंधी को ख़ंदक़ से बाहर निकाला। उस के सर से ख़ून बह रहा था.......थोड़ी देर के बाद उसे होश आया तो उस ने सिपाहियों को यूं देखना शुरू किया जैसे वो भूत हैं....... फिर एक दम दीवाना वार चिल्लाने लगी। “मैं देख सकती हूँ....... मैं देख सकती हूँ....... मेरी नज़र वापस आ गई है।”

ये कह कर वो भाग गई। उस के हाथ से जो दो रुपये गिरे, वो सिपाहियों ने उठा लिए।

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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022
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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

20 अप्रैल 2022
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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

20 अप्रैल 2022
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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

20 अप्रैल 2022
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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

20 अप्रैल 2022
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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

20 अप्रैल 2022
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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

20 अप्रैल 2022
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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

20 अप्रैल 2022
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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

20 अप्रैल 2022
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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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