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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022

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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियों का बक्स उठाला। पर ऐसे कि अम्मी जान को ख़बर न हो।“”

सुरय्या अपनी बड़ी बहन से पाँच बरस छोटी थी। बिलक़ीस उन्निस की थी। सुरय्या ने झुंझलाहट से हंसते हुए कहा। “और जो मैं न लाऊं तो?”

बिलक़ीस ने जल कर उसे कहा। “एक फ़क़त तो मुझ अल्लाह मारी का काम नहीं करेगी नगोड़ियां हम-साईआं चाहे तुम से उपले तक थपवालें”

सुरय्या को अपनी बहन पर प्यार आगया। इस के गले से चिमट गई.............. “नहीं बाजी, हमसाईआं जाएं जहन्नम में। मैं तो तुम्हारी ख़िदमत के लिए भी तैय्यार हूँ............ में चूड़ियों का बक्स अभी लाती हूँ।”

सुरय्या यूं चुटकियों में बक्स उठा लाई और बिलक़ीस से बड़े जासूसाना अंदाज़ में कहा। “आप ज़रूर सिनेमा देखने जा रही हैं।”

“सुरय्या तू अब ज़्यादा बकबक न कर..........तेरी क़सम में सिनेमा नहीं जा रही।”

सुरय्या ने बचपने के से अंदाज़ से पूछा। “तो फिर ये तैय्यारियां क्यों हो रही हैं?”

“ये तू मेरा इम्तिहान लेने क्या बैठ गई है। और मैं बेवक़ूफ़ नहीं जो तेरी हर बात का जवाब दिए चली जाऊं। सुन साढे़ आठ बजे वहां पहुंच जाना चाहिए। नई चूड़ियां जाएं जहन्नम में, नहीं पहनूंगी तो कौन सा आफ़त का पहाड़ टूट पड़ेगा। तेरी बेहस तो फिर ख़त्म नहीं होगी कम-बख़्त।”

सुरय्या बे-हद अफ़्सुर्दा होगई। नन्ही जान थी। उस का दिल धक धक करने लगा। उस ने अपनी बहन का हाथ पकड़ लिया “आप नाराज़ होगईं मुझ से।?”

“चल दूर हो……………… बिलक़ीस अपने आप से बल्कि हर चीज़ से बे-ज़ार हो रही थी। “आज मुझे ज़रूरी एक काम से बाहर जाना है। पर मुसीबत ये है कि अम्मी जान इजाज़त नहीं देंगी। कहेंगी मुतवातिर तीन शामों से तू बाहर जा रही है। और मैं उन से वाअदा करचुकी हूँ कि ठीक साढ़े आठ बजे पहुंच जाऊंगी।”

सुरय्या ने “पूछा किस से?”

बिलक़ीस ने ग़ैर इरादी तौर पर जवाब दिया। “लतीफ़ साहब से” ये कह कर वो एक दम ख़ामोश होगई। सुरय्या सोचने लगी कि ये लतीफ़ साहिब कौन हैं........... उन के हाँ तो कभी इस नाम का आदमी नहीं आया था। सुरय्या ने इस शश-ओ-पंज में अपनी बहन से पूछा “ये लतीफ़ साहब कौन हैं बाजी।?”

“लतीफ़ साहब.............. मुझे क्या मालूम............. कौन हैं अर... अर... सचमुच ये कौन हैं।”

एक दम संजीदा होकर “सुरय्या .............. तू ने आज का सबक़ याद किया? तो बहुत वो ............ होगई है। इस लिए तो ऊटपटांग सवाल करती रहती है।”

सुरय्या की मासूमियत को ठेस पहुंची। “बाजी मैंने कभी कोई वाहियात बात नहीं की। आप ने किस लतीफ़ साहब से मिलने का वाअदा क्या हुआ है।”

बिलक़ीस उस की मासूमियत से तंग आगई। झुँझला कर बोली। “ख़ामोश रह........ इतने में अंदर सेहन से बिलक़ीस की माँ की आवाज़ सुनाई दी “बिलक़ीस। बिलक़ीस।”

बिलक़ीस की आवाज़ दब गई। उस ने हौले लहजे में अपनी बहन से कहा ले “ये इकन्नी” पर्स में से उस ने एक इकन्नी निकाल कर उस को दी “इमली ले लेना। हर रोज़ एक आना दिया करूंगी तुझे इमली के लिए। और देख आधी आज मेरे लिए रख छोड़ना। अम्मी मुझे बुला रही हैं। और देख जो बातें हुई हैं। उन को न बताना, ले वो ख़ुद ही आरही हैं” सेहन के आगे जहां बरामदा के फ़र्श पर बिलक़ीस अपनी माँ के क़दमों की चाप सुनती है और सुरय्या से कहती है..... “ले भाग अब यहां से।”

बिलक़ीस की माँ आती है। एक उधेड़ उम्र की औरत बहुत ग़ुस्सैली। उस के चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल से साफ़ अयाँ है कि वो एक जाबिर माँ है। आते ही बिलक़ीस को डांटती है।

“ये जो मैं दो घंटे से तुझे बुला रही हूँ तू ने कानों में रूई ठोंस रखी है क्या?”

बिलक़ीस मिस्कीन बिल्ली की सी आवाज़ में जवाब देती है।

“नहीं तो...........”

बिलक़ीस की माँ की आवाज़ और ज़्यादा बुलनद होजाती है।

“और ये मैंने क्या सुना है।”

“क्या अम्मी जान?”

“कि तू फिर आज बाहर जाना चाहती है.......... शरीफ़ बहू बेटियों की तरह तेरा घर में जी ही नहीं लगता......... दीदे का पानी ही ढल गया है।”

बिलक़ीस ने आँखें झुका कर बड़ी नरम-ओ-नाज़ुक आवाज़ में कहा।

“आप तो ना-हक़ बिगड़ रही हैं।”

बिलक़ीस की माँ जहांआरा ग़ज़ब-नाक होगई और कहा “अभी अभी एक आदमी तुम्हारी किसी सहेली के यहां से आया था। कहता था कि बीबी तैय्यार रहें। कॉलिज के जलसे में जाना है।”

बिलक़ीस ने यूं झूट मूट का इज़हार किया। “हाय.............. जलसे में?....... मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी......... ये जलसा बहुत ज़रूरी है अम्मी जान। मैं न गई तो प्रिंसिपल साहिबा बहुत बुरा मानेंगी। मेरा ख़याल है मुझे फ़ौरन तैय्यार होजाना चाहिए।”

माँ को उस से काम कराना था। उसे कॉलिज के जलसे जलूसों से कोई दिलचस्पी नहीं थी...... “तू चल मेरे साथ और बैठ के मेरे साथ आटा गूँध।”

बिलक़ीस ने अपनी सजावट एक नज़र देखी और बड़ी पुर-दर्द लहजे में कहा। “लेकिन अम्मी जान”

माँ का लहजा कड़ा हो गया। “नहीं आज मेरे साथ कोई बहाना नहीं चलेगा..... समझीं।?”

बिलक़ीस ने हार मान कर अपनी माँ से कहा। “आटा गूँधने के बाद तो मुझे इजाज़त मिल जाएगी।?”

माँ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई। “देखूंगी........... चल बैठ जा मेरे सामने।”

बिलक़ीस वहीं कमरे में बैठने लगी। मगर उसे एक दम ख़याल आया कि बावर्ची-ख़ाना और सेहन बाहर हैं। यहां वो अपनी माँ का सर आटा गूँधेगी। “चलिए अम्मी जान।”

दोनों बावर्ची-ख़ाने में दाख़िल हुईं......... कुछ इस तरह जैसे आगे आगे पुलिस का सिपाही और पीछे हथकड़ी लगा मुल्ज़िम। उस की माँ एक पीढ़ी पर अपना भारी भरकम जिस्म ढीला छोड़ कर बैठ गईं कि पीढ़ी को ज़र्ब न पहुंचे। फिर उस ने बिलक़ीस की तरफ़ देखा और कहा। “टुकुर टुकुर मेरा मुँह क्या देखती है, बैठ जा यहां मेरे सामने!”

बिलक़ीस गंदे फ़र्श पर ही पैरों के बल बैठ गई और मुँह बना कर पूछा। “पानी कहाँ है?”

पानी पास ही पड़ा था। अस्ल में उसे सुझाई कम देने लगा था....... सामने प्रात में आटे की छोटी सी ढेरी पड़ी थी। उस ने ढेरी में पास पड़ी गड़वी से थोड़ा सा पानी बादिल-ए-नाख़्वास्ता डाला और आटे पानी को मिला कर जल्दी जल्दी मुक्कियां माने लगी....... लेकिन उस ने देखा कि सामने सहन में लगे क्लाक की सूईयां बता रही थी कि आठ बजने वाले हैं। चाहिए तो ये था कि उस की मुक्कियां तेज़ हो जाएं मगर वो इस सोच में ग़र्क़ थी कि जहां उसे साढे़ आठ बजे पहुंचना है क्या वो ये आटा गूँधने के बाद पहुंच सकेगी।

उस की माँ उस के सर पर खड़ी थी। एक दम चिल्लाई। “बिलक़ीस ये मुक्कियां मार रही है या किसी का सर सहला रही है।”

बिलक़ीस अभी सोच ही रही थी क्या कहे अस्ल में वो ये चाहती थी कि अपना गीले आटे से भरा हाथ मुक्का बना कर या अपनी माँ के सर पर दे मारे या अपने सर पर। ख़ुद को इतना पीटे कि बेहोश हो जाये...... लेकिन उसे ठीक साढे़ आठ बजे वहां पहुंचना था। इस लिए उस ने जल्दी जल्दी आटा गूँधा और फ़ारिग़ होगई।

हाथ धो कर उस ने सुरय्या से कहा.......... “जाओ एक टांगा ले आओ।”

सुरय्या चली गई।

बिलक़ीस ने आईने में ख़ुद को देखा। लिप स्टिक दुबारा लगाई। किसी क़दर बिखरे हुए बालों को दुरस्त किया और कुर्सी पर बैठ कर बड़े इज़्तिराब में टांग हिलाने लगी।

थोड़ी देर बाद सुरय्या आ गई। उस ने अपनी बड़ी बहन से कहा। “बाजी टांगा आ गया है।”

बिलक़ीस की टांग हिलना बंद होगई। वो उठ खड़ी हुई। बुर्क़ा उठाया ही था कि बाहर सहन से इस के भाई की आवाज़ आई...... “बिल्ली ....... बिल्ली।”

बिलक़ीस ने कहा। “क्या है भाई जान?”

उस का भाई ख़ुद अन्दर तशरीफ़ ले आया और उस के हाथों में अपनी क़मीस दे कर कहा। “धोबी कमबख़्त ने फिर दो बटन ग़ारत कर दिए। मेहरबानी कर के ....... ”

बिलक़ीस को ऐसा महसूस हुआ कि दो बटन उस के सर पर दो पहाड़ बन कर टूट पड़े हैं। “नहीं भाई जान मुझे ठीक साढे़ आठ बजे कॉलिज के जलसे में पहुंचना है।”

उस के भाई ने बड़े इत्मिनान और बिरादराना मुहब्बत से कहा। “तुम वक़्त पर पहुंच जाओगी...... लो ये दो बटन हैं...... तुम तो यूँ चुटकियों में टांग दोगी।”

“नहीं भाई जान.......... वक़्त हो गया है ........... सवा आठ हो चुके हैं।”

“अम्मी जान ने तुम्हें इजाज़त दे दी है।”

“नहीं।”

“तो बटन टाँक दो..... इजाज़त मैं ले दूँगा।”

“सच्च.......?”

“मैंने आज तक तुम से कोई झूटी बात कही है।”

“लाईए........... ”

बिलक़ीस ने बटन लिए और सोई में धागा पिरो कर बटन टाँकने शुरू करदिए। उस की उंगलियों में बला की फुर्ती थी। दो मिनट से कम अर्से में उस ने अपने भाई की क़मीस में दो बटन लगा दिए। वो बहुत ममनून वो मुतशक़्क़िर हुआ। बाहर जा कर उस ने अपनी माँ से सिफ़ारिश की कि वो बिलक़ीस को कॉलिज के जल्से में जाने की इजाज़त दे दे। उस की ये सिफ़ारिश सुन कर उस की माँ उस पर बरस पड़ी.............. “तुम दोनों आवारागर्द हो............ घर में तुम्हारा जी ही नहीं लगता..................... तुम कहाँ जाने की तैय्यारियां कर रहे हो?............... देखो मैं तुम से कहे देती हूँ कि न बिलक़ीस कहीं जाएगी न तुम। घर में बैठो और काम करो।”

“लेकिन अम्मी जान, मैं तो आप ही के लिए बाहर जा रहा हूँ।”

“मुझे क्या तकलीफ़ है कि तुम मेरे लिए बाहर जा रहे हो...... मेरे लिए जब भी तुम गए डाक्टर बुलाने के लिए गए।”

“लेकिन अम्मी जान .......... आप के ज़ेवरों का भी तो पता लेना है......... जिस सुनार को आप ने बनने के लिए दिए थे, वो चार रोज़ से ग़ायब है।”

“हाए....... तुम ने मुझे पहले क्यों न कहा........ कहाँ ग़ायब हो गया है?”

“अब जाऊंगा तो मालूम करूंगा।”

“जाओ जल्दी जाओ........ और मुझे इत्तिला दो कि वो वापिस आगया है कि नहीं....... मेरा सोना उस से वापिस ले आना............ साढे़ चार तोले दो माशे और चार रत्तियां है।”

“बहुत बेहतर........ बिलक़ीस को अब आप इजाज़त दीजिए।”

उस की माँ ने बादल-ए-नाख़्वास्ता कहा कि “चली जाये। मगर मुझे उस का ये हर रोज़ शाम का घर से बाहर रहना पसंद नहीं।”

बिलक़ीस का भाई ज़ेरे लब मुस्कुराया और अंदर जाकर अपनी बहन को ख़ुशख़बरी सुनाई के अम्मी जान से जो उस ने फ़राड क्या वो चल गया और उस को इजाज़त मिल गई। बिलक़ीस बहुत ख़ुश हुई। आठ बज कर बीस मिनट हुए थे।

उस ने अपना बुर्क़ा पहना। बाहर निकलने ही वाली थी कि उस की माँ ने उसे बुलाया और उस से कहा। “देखो बिलक़ीस तुम जा तो रही हो, लेकिन मेरा एक काम करती जाओ।”

बिलक़ीस को ऐसा महसूस हुआ कि उस का रेशमी बुर्क़ा लोहे की चादर बन गया है। “बताईए अम्मी जान।

“एक ख़त लिखवाना था तुम से”

बिलक़ीस ने एक शिकस्त-ख़ूर्दा और ग़ुलाम के मानिंद ब-दर्जा-ए-मजबूरी ठंडी सांस भर के कहा।

“लाईए लिख देती हूँ।”

बिलक़ीस की आँखें तो नहीं बल्कि उस के जिस्म का रुवां रुवां रो रहा था। उस ने ख़त मुकम्मल किया। बाहर ताँगा खड़ा था। उस में बैठी और उसे जहां पहुंचना था पहुंची।

उस ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मगर कोई जवाब न मिला............ किवाड़ों को ग़ुस्से में आकर ज़ोर से धकेला......! वो खुले थे, बिलक़ीस गिरते गिरते बची....... अंदर उस का दोस्त जिस से वो मिलने आई थी। ख़्वाब-ए-ख़रगोश में था। उस ने उस को जगाने की कोशिश की मगर वह बेदार न हुआ.......... आख़िरी वह जली भुनी, बड़बड़ाती वहां से चली गई “मेरी जूती को क्या ग़र्ज़ पड़ी है कि यहां ठहरूँ मैं इतनी मुसीबत से यहां आई और जनाब मालूम नहीं भंग पी कर सो रहे हैं।”
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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बाँझ

7 अप्रैल 2022
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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहे

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बदसूरती

7 अप्रैल 2022
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साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी।  उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी

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बादशाहत का ख़ात्मा

7 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”  दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किता

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फूजा हराम दा

7 अप्रैल 2022
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हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था

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फुसफुसी कहानी

7 अप्रैल 2022
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सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्

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बर्फ़ का पानी

7 अप्रैल 2022
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“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई

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बलवंत सिंह

7 अप्रैल 2022
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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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बाई बाई

7 अप्रैल 2022
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नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

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बचनी

7 अप्रैल 2022
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भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ

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फ़ूभा बाई

7 अप्रैल 2022
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हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मु

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फूलों की साज़िश

7 अप्रैल 2022
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बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

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फुंदने

7 अप्रैल 2022
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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

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फाहा

7 अप्रैल 2022
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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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बग़ैर इजाज़त

7 अप्रैल 2022
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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
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“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गर्म सूट

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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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गोली

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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चोरी

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

20 अप्रैल 2022
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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

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क़ासिम

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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