shabd-logo

इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022

126 बार देखा गया 126

इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था।

अख़लाक़ तीस बरस का होगया। मगर बावजूद कोशिशों के उसको किसी से इ’श्क़ न हुआ लेकिन एक दिन अंगर्ड बर्ग मैन की पिक्चर “फ़ॉर होम दी बिल टूल्स” का मेटिनी शो देखने के दौरान में उसने महसूस किया कि उसका दिल उस बुर्क़ापोश लड़की से वाबस्ता हो गया है जो उसके साथ वाली सीट पर बैठी थी और सारा वक़्त अपनी टांग हिलाती रही थी।

पर्दे पर जब साया कम और रोशनी ज़्यादा होती तो अख़लाक़ ने उस लड़की को एक नज़र देखा। उस के माथे पर पसीने के नन्हे-नन्हे क़तरे थे। नाक की फ़िनिंग पर चंद बूंदें थीं, जब अख़लाक़ ने उसकी तरफ़ देखा तो उसकी टांग हिलना बंद होगई। एक अदा के साथ उसने अपने स्याह बुर्के की जाली से अपना चेहरा ढाँप लिया। ये हरकत कुछ ऐसी थी कि अख़लाक़ को बेइख्तियार हंसी आ गई।

उस लड़की ने अपनी सहेली के कान में कुछ कहा। दोनों हौले-हौले हंसीं। इसके बाद उस लड़की ने नक़ाब अपने चेहरे से हटा लिया। अख़लाक़ की तरफ़ तीखी-तीखी नज़रों से देखा और टांग हिला कर फ़िल्म देखने में मशग़ूल होगई।

अख़लाक़ सिगरट पी रहा था। अंगर्ड बर्ग मैन उसकी महबूब ऐक्ट्रस थीं। “फ़ॉर होम दी बिल टूल्ज़” में उसके बाल कटे हुए थे। फ़िल्म के आग़ाज़ में जब अख़लाक़ ने उसे देखा तो वो बहुत ही प्यारी मालूम हुई। लेकिन साथ वाली सीट पर बैठी हुई लड़की देखने के बाद वो अंगर्ड बर्ग मैन को भूल गया। यूं तो क़रीब क़रीब सारा फ़िल्म उसकी निगाहों के सामने चला मगर उसने बहुत ही कम देखा।

सारा वक़्त वो लड़की उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर छाई रही।

अख़लाक़ सिगरेट पर सिगरेट पीता रहा। एक मर्तबा उसने राख झाड़ी तो उसका सिगरेट उंगलियों से निकल कर उस लड़की की गोद में जा पड़ा। लड़की फ़िल्म देखने में मशग़ूल थी इसलिए उसको सिगरेट गिरने का कुछ पता न था।

अख़लाक़ बहुत घबराया। इसी घबराहटमें उसने हाथ बढ़ा कर सिगरेट उसके बुर्के पर से उठाया और फ़र्श पर फेंक दिया। लड़की हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई। अख़लाक़ ने फ़ौरन कहा, “माफ़ी चाहता हूँ, आप पर सिगरेट गिर गया था।”

लड़की ने तीखी-तीखी नज़रों से अख़लाक़ की तरफ़ देखा और बैठ गई। बैठ कर उसने अपनी सहेली से सरगोशी में कुछ कहा, दोनों हौले-हौले हंसीं और फ़िल्म देखने में मशग़ूल होगईं।

फ़िल्म के इख़्तिताम पर जब क़ाइद-ए-आ’ज़म की तस्वीर नमूदार हुई तो अख़लाक़ उठा। ख़ुदा मालूम क्या हुआ कि उसका पांव लड़की के पांव के साथ टकराया। अख़लाक़ एक बार फिर सर-ता-पा माज़रत बन गया, “माफ़ी चाहता हूँ... जाने आज क्या होगया है।”

दोनों सहेलियां हौले-हौले हंसीं। जब भीड़ के साथ बाहर निकलीं तो अख़लाक़ उनके पीछे-पीछे हो लिया। वो लड़की जिससे उसको पहली नज़र का इश्क़ हुआ था मुड़-मुड़ कर देखती रही। अख़लाक़ ने इसकी परवाह न की और उनके पीछे-पीछे चलता रहा। उसने तहय्या कर लिया था कि वो उस लड़की का मकान देख के रहेगा।

माल रोड के फुटपाथ पर वाई एम सी ए के सामने उस लड़की ने मुड़ कर अख़लाक़ की तरफ़ देखा और अपनी सहेली का हाथ पकड़ कर रुक गई। अख़लाक़ ने आगे निकलना चाहा तो वो लड़की उससे मुख़ातिब हुई, “आप हमारे पीछे पीछे क्यों आरहे हैं?”

अख़लाक़ ने एक लहज़ा सोच कर जवाब दिया, “आप मेरे आगे आगे क्यों जा रही हैं।”

लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी। इसके बाद उसने अपनी सहेली से कुछ कहा, फिर दोनों चल पड़ीं। बस स्टैंड के पास उस लड़की ने जब मुड़ कर देखा तो अख़लाक़ ने कहा, “आप पीछे आ जाईए। मैं आगे बढ़ जाता हूँ।”

लड़की ने मुँह मोड़ लिया।

अनारकली का मोड़ आया तो दोनों सहेलियां ठहर गईं। अख़लाक़ पास से गुज़रने लगा तो उस लड़की ने उससे कहा, “आप हमारे पीछे न आईए। ये बहुत बुरी बात है।”

लहजे में बहुत संजीदगी थी। अख़लाक़ ने “बहुत बेहतर” कहा और वापस चल दिया। उसने मुड़ कर भी उनको न देखा। लेकिन दिल में उसको अफ़सोस था कि वो क्यों उसके पीछे न गया।

इतनी देर के बाद उसको इतनी शिद्दत से महसूस हुआ था कि उसको किसी से मोहब्बत हुई है। लेकिन उसने मौक़ा हाथ से जाने दिया। अब ख़ुदा मालूम फिर उस लड़की से मुलाक़ात हो या न हो।

जब वाई एम सी ए के पास पहुंचा तो रूक कर उसने अनारकली के मोड़ की तरफ़ देखा। मगर अब वहां क्या था। वो तो उसी वक़्त अनारकली की तरफ़ चली गई थीं।

लड़की के नक़्श बड़े पतले पतले थे। बारीक नाक, छोटी सी ठोढ़ी, फूल की पत्तियों जैसे होंट जब पर्दे पर साये कम और रोशनी ज़्यादा होती थी तो उसने उसके बालाई होंट पर एक तिल देखा था जो बेहद प्यारा लगता था। अख़लाक़ ने सोचा था कि अगर ये तिल न होता तो शायद वो लड़की नामुकम्मल रहती। इसका वहां पर होना अशद ज़रूरी था।

छोटे छोटे क़दम थे जिनमें कंवारपन था। चूँकि उसको मालूम था कि एक मर्द मेरे पीछे पीछे आरहा है। इसलिए उनके उन छोटे छोटे क़दमों में एक बड़ी प्यारी लड़खड़ाहट सी पैदा होगई थी। उसका मुड़ मुड़ कर तो देखना ग़ज़ब था। गर्दन को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका देकर वो पीछे अख़लाक़ की तरफ़ देखती और तेज़ी से मुँह मोड़ लेती।

दूसरे रोज़ वो अंगर्ड बर्ग मैन का फ़िल्म फिर देखने गया। शो शुरू होचुका था। वॉल़्ट डिज़नी का कार्टून चल रहा था कि वो अंदर हाल में दाख़िल हुआ। हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता था।

गेट कीपर की बैट्री की अंधी रोशनी के सहारे उसने टटोल-टटोल कर एक ख़ाली सीट तलाश की और उस पर बैठ गया।

डिज़नी का कार्टून बहुत मज़ाहिया था। इधर-उधर कई तमाशाई हंस रहे थे। दफ़अ’तन बहुत ही क़रीब से अख़लाक़ को ऐसी हंसी सुनाई दी जिसको वो पहचानता था। मुड़ कर उसने पीछे देखा तो वही लड़की बैठी थी।

अख़लाक़ का दिल धक-धक करने लगा। लड़की के साथ एक नौजवान लड़का बैठा था। शक्ल-ओ-सूरत के ए’तबार से वो उसका भाई लगता था। उसकी मौजूदगी में वो किस तरह बार-बार मुड़कर देख सकता था।

इंटरवल होगया। अख़लाक़ कोशिश के बावजूद फ़िल्म अच्छी तरह न देख सका। रोशनी हुई तो वो उठा। लड़की के चेहरे पर नक़ाब था, मगर उस महीन पर्दे के पीछे उसकी आँखें अख़लाक़ को नज़र आईं जिनमें मुस्कुराहट की चमक थी।

लड़की के भाई ने सिगरेट निकाल कर सुलगाया। अख़लाक़ ने अपनी जेब में हाथ डाला और उससे मुख़ातिब हुआ, “ज़रा माचिस इनायत फ़रमाईए।”

लड़की के भाई ने उसको माचिस देदी। अख़लाक़ ने अपना सिगरेट सुलगाया और माचिस उसको वापस देदी, “शुक्रिया!”

लड़की की टांग हिल रही थी। अख़लाक़ अपनी सीट पर बैठ गया। फ़िल्म का बक़ाया हिस्सा शुरू हुआ। एक दो मर्तबा उसने मुड़ कर लड़की की तरफ़ देखा। इससे ज़्यादा वो कुछ न कर सका।

फ़िल्म ख़त्म हुआ। लोग बाहर निकलने शुरू हुए। लड़की और उसका भाई साथ थे। अख़लाक़ उनसे हट कर पीछे पीछे चलने लगा।

स्टैंर्ड के पास भाई ने अपनी बहन से कुछ कहा। एक टांगे वाले को बुलाया, लड़की उसमें बैठ गई। लड़का स्टैंर्ड में चला गया। लड़की ने नक़ाब में से अख़लाक़ की तरफ़ देखा। उसका दिल धक-धक करने लगा। टांगा चल पड़ा।

स्टैंर्ड के बाहर उसके तीन-चार दोस्त खड़े थे। इनमें से एक की साईकल उसने जल्दी-जल्दी पकड़ी और टांगे के तआ’क़ुब में रवाना होगया।

ये तआ’क़ुब बड़ा दिलचस्प रहा। ज़ोर की हवा चल रही थी, लड़की के चेहरे पर से नक़ाब उठ-उठ जाती। स्याह जारजट का पर्दा फड़फड़ा कर उसके सफ़ेद चेहरे की झलकियां दिखाता था। कानों में सोने के बड़े बड़े झूमर थे। पतले पतले होंटों पर स्याही माइल सुर्ख़ी थी और बालाई होंट पर तिल... वो अशद ज़रूरी तिल।

बड़े ज़ोर का झोंका आया तो अख़लाक़ के सर पर से हैट उतर गया और सड़क पर दौड़ने लगा। एक ट्रक गुज़र रहा था। उसके वज़नी पहिए के नीचे आया और वहीं चित्त गया।

लड़की हंसी, अख़लाक़ मुस्कुरा दिया। गर्दन मोड़ कर हैट की लाश देखी जो बहुत पीछे रह गई थी और लड़की से मुख़ातिब हो कर कहा, “उसको तो शहादत का रुतबा मिल गया।”

लड़की ने मुँह दूसरी तरफ़ मोड़ लिया।

अख़लाक़ थोड़ी देर के बाद फिर उससे मुख़ातिब हुआ, “आपको एतराज़ है तो वापस चले जाता हूँ।”

लड़की ने उसकी तरफ़ देखा मगर कोई जवाब न दिया।

अनारकली की एक गली में टांगा रुका और वो लड़की उतर कर अख़लाक़ की तरफ़ बार-बार देखी नक़ाब उठा कर एक मकान में दाख़िल हो गई। अख़लाक़ एक पांव साईकल के पैडल पर और दूसरा पांव दुकान के थड़े पर रखे थोड़ी देर खड़ा रहा। साईकल चलाने ही वाला था कि उस मकान की पहली मंज़िल पर एक खिड़की खुली। लड़की ने झांक कर अख़लाक़ को देखा मगर फ़ौरन ही शर्मा कर पीछे हट गई। अख़लाक़ तक़रीबन आध घंटा वहां खड़ा रहा, मगर वो फिर खिड़की में नमूदार न हुई।

दूसरे रोज़ अख़लाक़ सुबह-सवेरे अनारकली की उस गली में पहुंचा। पंद्रह-बीस मिनट तक इधर-उधर घूमता रहा। खिड़की बंद थी। मायूस हो कर लौटने वाला था कि एक फ़ालसे बेचने वाला सदा लगाता आया। खिड़की खुली, लड़की सर से नंगी नमूदार हुई।

उसने फ़ालसे वाले को आवाज़ दी, “भाई फ़ालसे वाले ज़रा ठहरना,” फिर उसकी निगाहें एक दम अख़लाक़ पर पड़ीं। चौंक कर वो पीछे हट गई।

फ़ालसे वाले ने सर पर से छाबड़ी उतारी और बैठ गया। थोड़ी देर के बाद वो लड़की सर पर दुपट्टा लिए नीचे आई। अख़लाक़ को उसने कनखियों से देखा। शर्माई और फ़ालसे लिए बग़ैर वापस चली गई।

अख़लाक़ को ये अदा बहुत पसंद आई। थोड़ा सा तरस भी आया। फ़ालसे वाले ने जब उसको घूर के देखा तो वो वहां से चल दिया, “चलो आज इतना ही काफ़ी है।”

चंद दिन ही में अख़लाक़ और उस लड़की में इशारे शुरू होगए। हर रोज़ सुबह नौ बजे वो अनारकली की इस गली में पहुंचता। खिड़की खुलती वो सलाम करता, वो जवाब देती, मुस्कुराती। हाथ के इशारों से कुछ बातें होतीं। इसके बाद वो चली जाती।

एक रोज़ उंगलियां घुमा कर उसने अख़लाक़ को बताया कि वो शाम के छः बजे के शो सिनेमा देखने जा रही है। अख़लाक़ ने इशारों के ज़रिया से पूछा, “कौन से सिनेमा हाउस में?”

उसने जवाब में कुछ इशारे किए मगर अख़लाक़ न समझा। आख़िर में उसने इशारों में कहा, “काग़ज़ पर लिख कर नीचे फेंक दो।”

लड़की खिड़की से हट गई। चंद लम्हात के बाद उसने इधर-उधर देख कर काग़ज़ की एक मड़ोरी सी नीचे फेंक दी।

अख़लाक़ ने उसे खोला। लिखा था,“प्लाज़ा... परवीन।”

शाम को प्लाज़ा में उसकी मुलाक़ात परवीन से हुई। उसके साथ उसकी सहेली थी। अख़लाक़ उसके साथ वाली सीट पर बैठ गया। फ़िल्म शुरू हुआ तो परवीन ने नक़ाब उठा लिया। अख़लाक़ सारा वक़्त उसको देखता रहा। उसका दिल धक-धक करता था। इंटरवल से कुछ पहले उसने आहिस्ता से अपना हाथ बढ़ाया और उसके हाथ पर रख दिया। वो काँप उठी। अख़लाक़ ने फ़ौरन हाथ उठा लिया।

दरअसल वो उसको अँगूठी देना चाहता था, बल्कि ख़ुद पहनाना चाहता था जो उसने उसी रोज़ ख़रीदी थी।

इंटरवल ख़त्म हुआ तो उसने फिर अपना हाथ बढ़ाया और उसके हाथ पर रख दिया, वो काँपी लेकिन अख़लाक़ ने हाथ न हटाया। थोड़ी सी देर के बाद उसने अँगूठी निकाली और उसकी एक उंगली में चढ़ा दी... वो बिल्कुल ख़ामोश रही। अख़लाक़ ने उसकी तरफ़ देखा। पेशानी और नाक पर पसीने के नन्हे-नन्हे क़तरे थरथरा रहे थे।

फ़िल्म ख़त्म हुआ तो अख़लाक़ और प्रवीण की ये मुलाक़ात भी ख़त्म हो गई। बाहर निकल कर कोई बात न होसकी। दोनों सहेलियां टांगे में बैठीं। अख़लाक़ को दोस्त मिल गए। उन्होंने उसे रोक लिया लेकिन वो बहुत ख़ुश था। इसलिए कि प्रवीण ने उसका तोहफ़ा क़बूल कर लिया था।

दूसरे रोज़ मुक़र्ररा औक़ात पर जब अख़लाक़ परवीन के घर के पास पहुंचा तो खिड़की खुली थी। अख़लाक़ ने सलाम किया। परवीन ने जवाब दिया। उसके दाहिने हाथ की उंगली में उसकी पहनाई हुई अँगूठी चमक रही थी।

थोड़ी देर इशारे होते रहे इसके बाद परवीन ने इधर-उधर देख कर एक लिफ़ाफ़ा नीचे फेंक दिया। अख़लाक़ ने उठाया। खोला तो उसमें एक ख़त था, अँगूठी के शुक्रिए का।

घर पहुंच कर अख़लाक़ ने एक तवील जवाब लिखा। अपना दिल निकाल कर काग़ज़ों में रख दिया। उस ख़त को उसने फूलदार लिफाफे में बंद किया। उस पर सेंट लगाया और दूसरे रोज़ सुबह नौ बजे प्रवीण को दिखा कर नीचे लेटर बक्स में डाल दिया।

अब उनमें बाक़ायदा ख़त-ओ-किताबत शुरू होगई। हर ख़त इ’श्क़-ओ-मोहब्बत का एक दफ़्तर था। एक ख़त अख़लाक़ ने अपने ख़ून से लिखा जिसमें उसने क़सम खाई कि वो हमेशा अपनी मोहब्बत में साबित क़दम रहेगा। इसके जवाब में ख़ूनी तहरीर ही आई। परवीन ने भी हलफ़ उठाया कि वो मर जाएगी लेकिन अख़लाक़ के सिवा और किसी को शरीक-ए-हयात नहीं बनाएगी।

महीनों गुज़र गए। इस दौरान में कभी-कभी किसी सिनेमा में दोनों की मुलाक़ात हो जाती थीं। मिल कर बैठने का मौक़ा उन्हें नहीं मिलता था। प्रवीण पर घर की तरफ़ से बहुत कड़ी पाबंदियां आइद थीं।

वो बाहर निकलती थी या तो अपने भाई के साथ या अपनी सहेली ज़ुहरा के साथ। इन दो के इलावा उसको और किसी के साथ बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी। अख़लाक़ ने उसे कई मर्तबा लिखा कि ज़ुहरा के साथ वो कभी उसे बारहदरी में जहांगीर के मक़बरे में मिले। मगर वो न मानी। उसको डर था कि कोई देख लेगा।

इस अस्ना में अख़लाक़ के वालिदैन ने उसकी शादी की बातचीत शुरू करदी। अख़लाक़ टालता रहा जब उन्होंने तंग आकर एक जगह बात करदी तो अख़लाक़ बिगड़ गया बहुत हंगामा हुआ।

यहां तक कि अख़लाक़ को घर से निकल कर एक रात इस्लामिया कॉलिज की ग्रांऊड में सोना पड़ा। उधर परवीन रोती रही। खाने को हाथ तक न लगाया।

अख़लाक़ धुन का बहुत पक्का था। ज़िद्दी भी परले दर्जे का था। घर से बाहर क़दम निकाला तो फिर उधर रुख़ तक न किया। उसके वालिद ने उसको बहुत समझाया मगर वो न माना। एक दफ़्तर में सौ रुपये माहवार पर नौकरी कर ली और एक छोटा सा मकान किराया पर ले कर रहने लगा जिसमें नल था न बिजली।

उधर परवीन अख़लाक़ की तकलीफों के दुख में घुल रही थी। घर में जब अचानक उसकी शादी की बातचीत शुरू हुई तो उस पर बिजली सी गिरी। उसने अख़लाक़ को लिखा। वो बहुत परेशान हुआ। लेकिन प्रवीण को उसने तसल्ली दी कि वो घबराए नहीं, साबित क़दम रहे। इ’श्क़ उनका इम्तिहान ले रहा है।

बारह दिन गुज़र गए। अख़लाक़ कई बार गया, मगर परवीन खिड़की में नज़र न आई। वो सब्र-ओ-क़रार खो बैठा, नींद उसकी ग़ायब हो गई। उसने दफ़्तर जाना छोड़ दिया। ज़्यादा नागे हुए तो उसको मुलाज़मत से बरतरफ़ कर दिया गया। उसको कुछ होश नहीं था।

बरतरफ़ी का नोटिस मिला तो वो सीधा परवीन के मकान की तरफ़ चल पड़ा। पंद्रह दिनों के तवील अर्से के बाद उसे परवीन नज़र आई वो भी एक लहज़े के लिए। जल्दी से लिफ़ाफ़ा फेंक कर वो चली गई।

ख़त बहुत तवील था। परवीन की ग़ैर हाज़िरी का बाइस ये था कि उसका बाप उसको साथ गुजरांवाला ले गया था जहां उसकी बड़ी बहन रहती थी। पंद्रह दिन वो ख़ून के आँसू रोती रही। उसका जहेज़ तैयार किया जा रहा था लेकिन उसको महसूस होता था कि उसके लिए रंग बिरंगे कफ़न बन रहे हैं।

ख़त के आख़िर में लिखा, तारीख़ मुक़र्रर हो चुकी है... मेरी मौत की तारीख़ मुक़र्रर हो चुकी है। मैं मर जाऊँगी... मैं ज़रूर कुछ खा के मर जाऊंगी। इसके सिवा और कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं देता... नहीं, नहीं, एक और रास्ता भी है... लेकिन मैं क्या इतनी हिम्मत कर सकूंगी। तुम भी इतनी हिम्मत कर सकोगे? मैं तुम्हारे पास चली आऊँगी, मुझे तुम्हारे पास आना ही पड़ेगा।

तुमने मेरे लिए घर बार छोड़ा। मैं तुम्हारे लिए ये घर नहीं छोड़ सकती, जहां मेरी मौत के सामान हो रहे हैं... लेकिन मैं बीवी बन कर तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ। तुम शादी का बंदोबस्त कर लो। मैं सिर्फ़ तीन कपड़ों में आऊँगी। ज़ेवर वग़ैरा सब उतार कर यहां फेंक दूंगी।

जवाब जल्दी दो, हमेशा तुम्हारी, परवीन।

अख़लाक़ ने कुछ न सोचा, फ़ौरन उसको लिखा मेरी बाहें तुम्हें अपने आग़ोश में लेने के लिए तड़प रही हैं। मैं तुम्हारी इज़्ज़त-ओ-इस्मत पर कोई हर्फ़ नहीं आने दूंगा। तुम मेरी रफ़ीक़ा-ए-हयात बन के रहोगी। ज़िंदगी भर मैं तुम्हें ख़ुश रखूंगा।

एक दो ख़त और लिखे गए इस के बाद तय किया कि परवीन बुध को सुबह-सवेरे घर से निकलेगी। अख़लाक़ टांगा ले कर गली के नुक्कड़ पर उसका इंतिज़ार करे।

बुध को मुँह अंधेरे अख़लाक़ टांगे में वहां पहुंच कर परवीन का इंतिज़ार करने लगा। पंद्रह-बीस मिनट गुज़र गए। अख़लाक़ का इज़्तिराब बढ़ गया, लेकिन वो आगई। छोटे-छोटे क़दम उठाती वो गली में नमूदार हुई। चाल में लड़खड़ाहट थी। जब वो टांगे में अख़लाक़ के साथ बैठी तो सर-ता-पा काँप रही थी। अख़लाक़ ख़ुद भी काँपने लगा।

घर पहुंचे तो अख़लाक़ ने बड़े प्यार से उसके बुर्के की नक़ाब उठाई और कहा, “मेरी दूल्हन कब तक मुझसे पर्दा करेगी।”

परवीन ने शर्मा कर आँखें झुका लीं, उसका रंग ज़र्द था, जिस्म अभी तक काँप रहा था। अख़लाक़ ने बालाई होंट के तिल की तरफ़ देखा तो उसके होंटों में एक बोसा तड़पने लगा। उसके चेहरे को अपने हाथों में थाम कर उसने तिल वाली जगह को चूमा।

परवीन ने न की उसके होंट खुले। दाँतों में गोश्त ख़ौरा था। मसूड़े गहरे नीले रंग के थे, गले हुए। सड़ान्द का एक भबका अख़लाक़ की नाक में घुस गया। एक धक्का सा उसको लगा। एक और भबका परवीन के मुँह से निकला तो वो एक दम पीछे हट गया।

परवीन ने हया आलूद आवाज़ में कहा, “शादी से पहले आपको ऐसी बातों का हक़ नहीं पहुंचता।”

ये कहते हुए उसके गले हुए मसूड़े नुमायां हुए। अख़लाक़ के होश-ओ-हवास ग़ायब थे दिमाग़ सुन हो गया। देर तक वो दोनों पास बैठे रहे। अख़लाक़ को कोई बात नहीं सूझती थी। परवीन की आँखें झुकी हुई थीं।

जब उसने उंगली का नाख़ुन काटने के लिए होंट खोले तो फिर उन गले हुए मसूड़ों की नुमाइश हुई। बू का एक भबका निकला। अख़लाक़ को मतली आने लगी। उठा और “अभी आया” कह कर बाहर निकल गया।

एक थड़े पर बैठ कर उसने बहुत देर सोचा। जब कुछ समझ में न आया तो लायलपुर रवाना होगया। जहां उसका एक दोस्त रहता था। अख़लाक़ ने सारा वाक़िया सुनाया तो उसने बहुत लॉन-तान की और उससे कहा, “फ़ौरन वापस जाओ। कहीं बेचारी ख़ुदकुशी न करले।”

अख़लाक़ रात को वापस लाहौर आया। घर में दाख़िल तो परवीन मौजूद नहीं थी... पलंग पर तकिया पड़ा था। उस पर दो गोल गोल निशान थे। गीले!

इसके बाद अख़लाक़ को परवीन कहीं नज़र न आई।

 

42
रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
0.0
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
1

बाँझ

7 अप्रैल 2022
15
0
0

मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहे

2

बदसूरती

7 अप्रैल 2022
3
0
0

साजिदा और हामिदा दो बहनें थीं। साजिदा छोटी और हामिदा बड़ी। साजिदा ख़ुश शक्ल थी।  उनके माँ-बाप को ये मुश्किल दरपेश थी कि साजिदा के रिश्ते आते मगर हामिदा के मुतअल्लिक़ कोई बात न करता। साजिदा ख़ुश शक्ल थी

3

बादशाहत का ख़ात्मा

7 अप्रैल 2022
2
0
0

टेलीफ़ोन की घंटी बजी, मनमोहन पास ही बैठा था। उसने रिसीवर उठाया और कहा, “हेलो... फ़ोर फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन...”  दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई, “सोरी... रोंग नंबर।” मनमोहन ने रिसीवर रख दिया और किता

4

फूजा हराम दा

7 अप्रैल 2022
1
0
0

हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था

5

फुसफुसी कहानी

7 अप्रैल 2022
2
0
0

सख़्त सर्दी थी। रात के दस बजे थे। शाला मार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी। गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रवैय्या पस्

6

बर्फ़ का पानी

7 अप्रैल 2022
1
0
0

“ये आप की अक़ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं” “मेरी अक़ल पर तो उसी वक़्त पत्थर पड़ गए थे जब मैंने तुम से शादी की भला इस की ज़रूरत ही क्या थी अपनी सारी आज़ादी सल्ब कराली।” “जी हाँ आज़ादी तो आप की यक़ीनन सल्ब हूई

7

बलवंत सिंह

7 अप्रैल 2022
0
0
0

शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

8

बाई बाई

7 अप्रैल 2022
2
0
0

नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

9

बचनी

7 अप्रैल 2022
2
0
0

भंगिनों की बातें हो रही थीं। खासतौर पर उन की जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरिया और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ

10

फ़ूभा बाई

7 अप्रैल 2022
1
0
0

हैदराबाद से शहाब आया तो इस ने बमबई सैंट्रल स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहला क़दम रखते ही हनीफ़ से कहा। “देखो भाई। आज शाम को वो मुआमला ज़रूर होगा वर्ना याद रखो में वापस चला जाऊंगा।” हनीफ़ को मालूम था कि वो मु

11

फूलों की साज़िश

7 अप्रैल 2022
0
0
0

बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

12

फुंदने

7 अप्रैल 2022
0
0
0

कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

13

फाहा

7 अप्रैल 2022
1
0
0

गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

14

बग़ैर इजाज़त

7 अप्रैल 2022
1
0
0

नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

15

बदतमीज़ी

7 अप्रैल 2022
2
0
0

“मेरी समझ में नहीं आता कि आप को कैसे समझाऊं” “जब कोई बात समझ में न आए तो उस को समझाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए” “आप तो बस हर बात पर गला घूँट देते हैं आप ने ये तो पूछ लिया होता कि मैं आप से क्या कहना

16

पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
0
0
0

वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

17

क़ीमे की बजाय बोटियाँ

20 अप्रैल 2022
1
0
0

डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

18

ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे

20 अप्रैल 2022
1
0
0

ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

19

ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

20 अप्रैल 2022
0
0
0

सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

20

गर्म सूट

20 अप्रैल 2022
2
0
0

गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

21

चन्द मुकालमे

20 अप्रैल 2022
0
0
0

“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

22

गोली

20 अप्रैल 2022
2
0
0

शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

23

चूहे-दान

20 अप्रैल 2022
0
0
0

शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

24

चोरी

20 अप्रैल 2022
0
0
0

स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

25

ऊपर नीचे और दरमियान

20 अप्रैल 2022
0
0
0

मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

26

क़र्ज़ की पीते थे

20 अप्रैल 2022
0
0
0

एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

27

कबूतरों वाला साईं

20 अप्रैल 2022
1
0
0

पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

28

काली कली

20 अप्रैल 2022
0
0
0

जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास ख

29

क़ासिम

20 अप्रैल 2022
0
0
0

बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

30

बासित

20 अप्रैल 2022
0
0
0

बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

31

तीन मोटी औरतें

20 अप्रैल 2022
0
0
0

एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

32

लालटेन

20 अप्रैल 2022
0
0
0

मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

33

क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
0
0
0

क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

34

ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
0
0
0

मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

35

ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
0
0
0

उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

36

ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
0
0
0

“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

37

मम्मी

20 अप्रैल 2022
0
0
0

नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

38

इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
0
0
0

इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

39

यज़ीद

20 अप्रैल 2022
0
0
0

सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

40

उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
1
0
0

क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

41

अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
0
0
0

ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

42

नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
0
0
0

मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए