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काली कली

20 अप्रैल 2022

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जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास खड़ा उस की तामीर देखता रहा था। जब लहू का आख़िरी क़तरा बाहर निकला तो लहू की हौज़ में मक़्तूल की लाश डूब गई और वो फिर से उड़ गया।

थोड़ी देर के बाद नन्हे नन्हे परिंदे उड़ते, चूं चूं करते हौज़ के पास आए तो उन की समझ में न आया कि उन का बाप ये लाल लाल पानी का ख़ूबसूरत हौज़ कैसे बन गया। नीचे तह में एक क़तरा ख़ून अपने लहू की आख़िरी बूँद जो उस ने चोरी चोरी अपने दल के खु़फ़िया गोशे में रख ली थी तड़पने लगी। उस का ये रक़्स ऐसा था जिस में ज़र्क़-बर्क़ पिशवाज़ों का कोई भड़कीला-पन नहीं था, मासूम बच्चे के से चहल थे। वो उछल कूद रही थी और अपने दिल ही में ख़ुश हो रही थी। उस को इस बात का होश ही नहीं रहा था कि वो चार चिड़ियां जो हौज़ के ऊपर बे-क़रारी से फड़ फड़ाती दायरा बनाती उड़ रही हैं उन के दिल हांप रहे हैं और बहुत मुम्किन है वो हाँपते हाँपते उन के सीनों से उछल कर हौज़ में गिर पड़ें। वो अपनी ख़ुशी में मस्त थी।

ऊपर उड़ी हुई चिड़ियों में एक चिड़िया ने जो शक्ल-ओ-सूरत के एतबार से चिड़ा मालूम होता था कहा “तुम रो रही हो?”

चिड़िया ने अपनी उड़ान हल्की कर दी, चुनांचे तेज़ हवा में लुढ़कते हुए उस ने अपने नन्हे से नरम-ओ-नाज़ुक और रेशम जैसे पर को अपनी चोंच से फुला कर अपनी एक आँख पोंछी और जल्दी से अपने दूसरे परों के अंदर उस आँसू आलूद परी को छुपा लिया। दूसरी आँख के इस जल दीप को उस ने ऐसे ही नन्हे से मख़मलीं पर से फूंक मारी, वो फ़ौरन राख बन कर हौज़ की सुर्ख़ आँखों में सुरमे की तहरीर बन कर तैरने लगी।

हौज़ की ये तबदीली देख कर बाक़ी तीन चिड़ियों ने पलट कर चौथी चिड़िया की तरफ़ देखा और आँखों में उस की सरज़निश की और एक दम अपने सारे पर समेट लिए और चश्म-ए-ज़दन में वो हौज़ के अंदर थीं हौज़ का लाल लाल पानी एक लहज़े के लिए थरथरा उठा। उस ने ज़बरदस्ती उन की बंद चोंचों में अपनी बड़ी चोंच से अपने ख़ून की एक एक बूँद डालने की कोशिश की, जिस तरह माँ बाप अपने प्यारे बच्चों के हलक़ में चमचों के ज़रिये से दवा टपकाते हैं, मगर वो ना खुलीं

वो समझ गया कि इस का क्या मतलब है चुनांचे उस की आँखों से उतना ही सफ़ैद पानी बह निकला जितना इस हौज़ में लाल था जो वो क़ातिल इस एक लाल बूँद के बग़ैर, जो उस के ऊपर उड़ रही थी और इस सफ़ैद पानी समेत, जो वो उस के वजूद में छोड़ गया था।

उस ने ये सफ़ैद आँसू और बहाने चाहे मगर वो बिलकुल ख़ुश्क थे। एक सिर्फ़ उस की आँखों की बसारत बाक़ी थी वो उसी पर क़ाने होगया उस ने देखा कि उस के हौज़ के पानी का रंग बदल रहा है। उस के लिए ये बड़ी तकलीफ़-देह बात थी कि जब क़त्ल नहीं किया गया था। क़त्ल के बाद तो उस ने सुना था कि सफ़ैद से सफ़ैद ख़ून भी जीता जागता सुर्ख़ हो जाता है।

दिन ब-दिन हौज़ का पानी नई रंग इख़्तियार करने लगा शुरू शुरू में तो वो गर्मगर्म सुर्ख़ क़ुर्मुज़ी था। थोड़ी देर में भूसला-पन उस में पैदा होने लगा ये तबदीली बड़ी सुस्त रफ़्तार थी।

उस ने सुना था कि क़ुदरत अटल है वो कभी तबदील नहीं होती। वो सोचता कि ये क़ुदरत कैसी है जो उस की अपने अनासिर से तख़लीक़ की हुई चीज़ को टुकड़े टुकड़े कर के अब उसे किसी तस्वीर-साज़ की प्लेट बना रही है जिस पर वो एक मर्तबा साफ़ और शुद्ध रंग लगा कर फिर उस पर सैंकड़ों दूसरे रंगों की तहें चढ़ा देता है और बहुत मसरूर होता है इस में मसर्रत अंगेज़ बात ही क्या है और इस बात के लिए कि एक बे-गुनाह को क़त्ल करवा देना ? ये और भी ज़्यादा अजीब है।

मैं अगर अपने क़ातिल की जगह होता तो क्या करता ? हाँ क्या करता?

उसे अपने हाथों से नुक़रई तारों वाला हार पहनाता ज़र-बफ़्त की उस की उचकन हो, होख़ सर-तले दार दस्तार और उस ताइर-ताज़ी पर सवार जिस पर ज़र-बफ़्त की झूल हो और वो उस पर सवार हो कर क़ुदरत बानो को दुल्हन बना कर घर लाने के लिए रवाना हो जाये। उस के जल्व में सिर्फ़ उस के ख़ून के क़तरे हूँ।

वो सोचता कितनी शानदार सवारी होती जो आज तक किसी को भी नसीब नहीं हुई। वो एक बहुत ऊंचे दरख़्त पर अपना घोंसला बनाता जिस में हुजल-ए-उरूसी को बिठाता। उस का चेहरा हया के बाइस रंग बिरंग के परों के घूंघट की ओट में होता। वो उस निक़ाब को बहुत हौलेहौले उठाता। जूं जूं निक़ाब ऊपर उठती, उस का दिल नफ़रत-ओ-हक़ारत से लबरेज़ होता जाता। उस के इंतिक़ामी जज़्बे की आग और ज़्यादा तेज़ होती जाती जैसे उस की नक़ाब के परास पर तेल निचुड़ रहे हों लेकिन वो इस जज़्बे को अपने दिल में वहीं दबा देता जैसे वो मुरझाए हुए फूलों की रूखी सूखी और बे-कैफ़ पत्तियां हैं जिन्हें कई नन्ही नन्ही नाग सपनियों ने फूंकें मार मार कर डस दिया हो।

शब-ए-उरूसी में उस ने अपनी दुलहन से बड़ी प्यार और मुहब्बत भरी बातें कीं, ऐसी बातें जिन को सुनने के बाद सब परिन्दों ने मुत्तफ़िक़ा तौर पर ये फ़ैसला किया कि ये ऐसा कलाम है जो अगर फ़रिश्ते और हूरें भी अपने साज़ों पर गाएँ तो ख़ुद को आजिज़ समझें और बरबतों के तार झुँझला उठें कि ये नग़्मा हम से क्यों अदा नहीं हो सकता। आख़िर कार फ़रिश्तों ने अपने हलक़ में अपनी अपनी दुलहनों की मांग के सींदूर भर लिए और मर गए। हूरों ने अपने बरबत तोड़ डाले और उन के बारीक तारों का फंदा बना कर ख़ुदकुशी कर ली।

उस को अपने ये अफ़्क़ार बहुत पसंद आए थे। इस लिए कि ये ग़ैब से आए हैं। चुनांचे उस ने गाना शुरू किया। उस का अलहान वाक़ई इल्हामी था। अगर परिन्दों के हुजूम को वो सिर्फ़ चंद नग़्मे सुनाता तो वो यक़ीनन बेखु़दी के आलम में ज़ख़्मी तुयूर के मानिंद फड़फड़ाने लगतीं और इसी तरह फड़फड़ाती फड़फड़ाती क़ुदरत के अश्जार को प्यारी हो जातीं। वो अपने तमाम पत्ते और अपनी कोमल शाख़ों को नोच कर उन की लाशों पर आराम से रख देते। उधर बाग़ के सारे फूल अपनी तमाम पत्तियां उन पर निछावर कर देते। खुली और अन-खुली गलियां भी ख़ुद को उन की मजमूई तुर्बत की आराइश के लिए पेश कर देतीं।

फिर तमाम सर-निगूँ हो कर इंतिहाई ग़मनाक सुरों में धीमे धीमे सुरों में शहीदों का नोहा गातीं सातों आसमानों के तमाम फ़रिश्ते अपने अपने आसमान की खिड़कियां खोल कर इस सोग के जश्न का नज़ारा करते और उन की आँखें आँसूओं से लबरेज़ हो जातीं जो हल्की हल्की फ़ुवार की सूरत में इन ख़ाकी शहीदों की फूलों से लदी फंदी तुर्बत को नम आलूदा कर देतीं ताकि उस की ताज़गी देर तक रहे।

सुना है कि ये तुर्बत देर तक क़ायम रही फूल जब बिलकुल बासी हो जाते, पत्ते ख़ुश्क हो जाते तो उन की जगह अपने बदन से नोच नोच कर आहिस्ता आहिस्ता इस तुर्बत पर रख दिए जाते।

उधर दूसरे बाग़ में जो अपनी ख़ूबसूरती के बाइस तमाम दुनिया में बहुत मशहूर था। एक ताहिर जिस का नाम बुलबुल यानी हज़ार दास्तान है अपने हुस्न और अपनी ख़ुश-इलहानी पर नाज़ां बल्कि यूं कहिए कि मग़रूर था। बाग़ की हर कली उस पर सौ जान से फ़िदा थी मगर वो उन को मुँह नहीं लगाता।

अगर कभी अज़राह-ए-तफ़रीह वो कभी किसी कली पर अपनी ख़ूबसूरत मिनक़ार की ज़र्ब लगा कर उसे क़ुदरत के उसूलों के ख़िलाफ़ पहले ही खोल देता तो उस ग़रीब का जी बाग़ बाग़ हो जाता, पर वो शादी मर्ग हो जाती।

और दिल ही दिल में दूसरी खुली अन-खुली कलियां हसद और रश्क के मारे जल भुन कर राख हो जातीं और वो किसी चट्टान की चोटी के सख़्त पत्थर पर हौले से यूं बैठता कि उस पत्थर को उस का बोझ महसूस न हो। इतमिनान कर के उस पत्थर ने उसे ख़ंदापेशानी से क़बूल कर लिया है तो वो मोम कर देने वाला एक हुज़्निया नग़्मा शुरू करता ब-फ़र्त-ए-अदब और तअस्सुर के बाइस सर-निगूँ हो जाते।

कलियां सोचतीं कि ये क्या वजह है कि वो हमें अपने इल्तिफ़ात से महरूम रखता है हम में से अक्सर जल जल के भस्म होगईं पर उस को हमारी कुछ पर्वा नहीं।

एक सफ़ैद कली अपने शबनमी आँसू पूंछ कर कहती है “ऐसा न कहो बहन उस को हमारी हर अदा ना-पसंद है।”

काली कली कहती। “तू सफ़ैद झूट बोलती है मेरी तरफ़ कभी आँख उठा कर देख दोनों दीदे फोड़ डालूं।”

कासनी कली को दुख होता : “ऐसा करोगी तो तुम कहाँ रहोगी?”

सफ़ैद कली तंज़िया अंदाज़ में इस मग़रूर परिंदे की तरफ़ से जवाब देती। “इस के लिए दुनिया के तमाम बाग़ों की कलियों के मुँह खुले हैं वो नीले आसमान के नीचे जहां भी चाहे अपने हसीन ख़ेमे गाड़ सकता है।”

काली कली मुस्कुराती ये मुस्कुराहट संग-ए-अस्वद के छोटे से काले तरीड़े के मानिंद खिलती।

“सफ़ैद कली ने ठीक कहा है। ख़्वाह मुझे ख़ुश करने के लिए ही कहा हो मैं यहां का बादशाह हूँ”

सफ़ैद कली और ज़्यादा निखर गई। “हुज़ूर! आप शहनशाह हैं और हम सब आप की कनीज़ें।”

काली कली ने ज़ोर से अपने पर फड़फड़ाए जैसे वो बहुत ग़ुस्से में है। “हम मैं मुझे शामिल न करो मुझे उस से नफ़रत है।”

जूंही काली कली की ज़बान से ये गुस्ताख़ाना अल्फ़ाज़ निकले, सब चिड़ियां डर के मारे फड़फड़ाती हुई वहां से उड़ गईं। एक सिर्फ़ काली कली बाक़ी रह गई।

उस ने आँख उठा कर भी इस चट्टान को न देखा जिस के एक कंगरे की नोक पर वो अकड़ कर खड़ा था काली कली उस के क़दमों में थी अपनी इस बे-एतिनाई और राऊनत के साथ।

हसीन-ओ-जमील बुलबुल को इस बे-एतिनाई और राऊनत से पहली मर्तबा दो-चार होना पड़ा था। उस के वक़ार को सख़्त सदमा पहुंचा, चट्टान से नीचे उतर कर वो हौले हौले जैसे टहल रहा है, काली कली के क़रीब से गुज़रा गोया वो उस को मौक़ा दे रहा है कि तुम ने जो ग़लती की है दुरुस्त कर लो पर उस ने इस फ़य्याज़ाना तोहफ़े को ठुकरा दिया।

इस पर बुलबुल और झुँझलाया और मुड़ कर काली कली से मुख़ातब हुआ। “ऐसा मालूम होता है, तुम ने मुझे पहचाना नहीं।”

काली कली ने उस की तरफ़ देखे बग़ैर कहा। “ऐसी तुम में कौन सी ख़ूबी है जो कोई तुम्हें याद रखे तुम एक मामूली चिड़े हो, जो लाखों यहां पड़े झक मारते हैं।”

बुलबुल सरापा अज्ज़ होगया। “देखो, मैं इस बाग़ का तमाम हुस्न तुम्हारे क़दमों में ढेर कर सकता हूँ”

काली कली के होंटों पर काली तंज़िया मुस्कुराहट पैदा हुई। “मैं रंगों के बे-ढब, बे-जोड़ रंगों के मिलाप को हुस्न नहीं कह सकती हुस्न में यक-रंगी और यक-आहंगी होनी चाहिए।”

“तुम अगर हुक्म दो तो मैं अपनी सुर्ख़ दुम नोच कर यहां फेंक दूंगा ”

“तुम्हारी सुर्ख़ दुम के पर सुरख़ाब के पर तो नहीं हो जाऐंगे रहने दो अपनी दुम में मेरी दुम देखते रहा करो, जो संग-ए-अस्वद की तरह काली है और आबनूस की तरह काली और चमकीली।”

ये सुन कर वो और ज़्यादा झुँझला गया और सोचे समझे बग़ैर काली कली से बग़ल-गीर होगया। फिर फ़ौरन ही पीछे हिट कर माज़रत तलब करने लगा, “मुझे माफ़ कर देना। बाग़ की मग़रूर तरीन हसीना!”

काली कली चंद लम्हात बिलकुल ख़ामोश रही, फिर उस के बाद ऐसा मालूम हुआ कि रात के घुप्प अंधेरे में अचानक दो दिए जल पड़े हैं। “मैं तुम्हारी कनीज़ हूँ प्यारे बुलबुल!”

बुलबल ने चोंच का एक ज़बरदस्त ठूंगा मारा और बड़ी नफ़रत-आमेज़ ना-उम्मीदी से कहा। “जा, दूर हो जा, मेरी नज़रों से और अपने रंग की स्याही में सारी उम्र अपने दिल की स्याही घोलती रह ”
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ
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सआदत हसन मंटो की बदनाम कहानियाँ है कि मंटो की यथार्थ और घनीभूत पीड़ा के ताने-बानो से बुनी गयी हैं। 'बू', 'खुदा की कसम', 'बांझा' काली सलवार, समेत कई ढ़ेर सारी कहानियां हैं। इनमें कई कहानियां विवादित रही। 'बू' ने तो उन्हें अदालत तक घसीट लिया था।
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बदसूरती

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फूजा हराम दा

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बर्फ़ का पानी

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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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फूलों की साज़िश

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बाग़ में जितने फूल थे। सब के सब बाग़ी होगए। गुलाब के सीने में बग़ावत की आग भड़क रही थी। उस की एक एक रग आतिशीं जज़्बा के तहत फड़क रही थी। एक रोज़ उस ने अपनी कांटों भरी गर्दन उठाई और ग़ौर-ओ-फ़िक्र को बालाए ताक़

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फुंदने

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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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बग़ैर इजाज़त

7 अप्रैल 2022
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नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया उस को वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई घास के एक तख़्ते पर लेट कर उस ने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। कैसी पुर-फ़ज़ा जगह है हैरत है कि आज तक मेरी नज़रों से ओझल रही नज़रें ओझल इ

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7 अप्रैल 2022
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पेशावर से लाहौर तक

20 अप्रैल 2022
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वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर से उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई

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क़ीमे की बजाय बोटियाँ

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डाक्टर सईद मेरा हम-साया था उस का मकान मेरे मकान से ज़्यादा से ज़्यादा दो सौ गज़ के फ़ासले पर होगा। उस की ग्रांऊड फ़्लोर पर उस का मतब था। मैं कभी कभी वहां चला जाता एक दो घंटे की तफ़रीह हो जाती बड़ा बज़्लास

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ये हैरत मुझे अब भी है कि ख़ास तौर पर ख़ाली बोतलों और डिब्बों से मुजर्रद मर्दों को इतनी दिलचस्पी क्यूं होती है?...... मुजर्रद मर्दों से मेरी मुराद उन मर्दों से है जिन को आम तौर पर शादी से कोई दिलचस्पी

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

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सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियो

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गंडा सिंह ने चूँकि एक ज़माने से अपने कपड़े तबदील नहीं किए थे। इस लिए पसीने के बाइस उन में एक अजीब क़िस्म की बू पैदा होगई थी जो ज़्यादा शिद्दत इख़तियार करने पर अब गंडा सिंह को कभी कभी उदास करदेती थी। उस

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चन्द मुकालमे

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“अस्सलाम-ओ-अलैकुम” “वाअलैकुम अस्सलाम” “कहीए मौलाना क्या हाल है” “अल्लाह का फ़ज़ल-ओ-करम है हर हाल में गुज़र रही है” “हज से कब वापस तशरीफ़ लाए” “जी आप की दुआ से एक हफ़्ता होगया है” “अ

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शफ़क़त दोपहर को दफ़्तर से आया तो घर में मेहमान आए हुए थे। औरतें थीं जो बड़े कमरे में बैठी थीं। शफ़क़त की बीवी आईशा उन की मेहमान नवाज़ी में मसरूफ़ थी। जब शफ़क़त सहन में दाख़िल हुआ तो उस की बीवी बाहर निकली

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चूहे-दान

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शौकत को चूहे पकड़ने में बहुत महारत हासिल है। वो मुझ से कहा करता है ये एक फ़न है जिस को बाक़ायदा सीखना पड़ता है और सच्च पूछिए तो जो जो तरकीबें शौकत को चूहे पकड़ने के लिए याद हैं, उन से यही मालूम होता है क

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स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?” मर्द-ए-मुअम्म

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ऊपर नीचे और दरमियान

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मियां साहब! बहुत देर के बाद आज मिल बैठने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। बेगम साहिबा! जी हाँ! मियां साहब! मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर नाअह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारिय

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क़र्ज़ की पीते थे

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एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे, बाहर हवादार मौजूद था। उसमें बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवानख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरादास महाजन बैठ

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कबूतरों वाला साईं

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पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भर

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काली कली

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क़ासिम

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बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररह

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बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उसकी कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उसको इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़्वाहिश नहीं थी, इसके अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिससे उसकी माँ उसकी शादी

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तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी क

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लालटेन

20 अप्रैल 2022
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मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उसकी सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम में जितने दिन गुज़ारे हैं उनके हर लम्हे की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है जो भुलाये

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क़ुदरत का उसूल

20 अप्रैल 2022
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क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिलकुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आप को मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ाय

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ख़त और उसका जवाब

20 अप्रैल 2022
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मंटो भाई ! तस्लीमात! मेरा नाम आप के लिए बिलकुल नया होगा। मैं कोई बहुत बड़ी अदीबा नहीं हूँ। बस कभी कभार अफ़साना लिख लेती हूँ और पढ़ कर फाड़ फेंकती हूँ। लेकिन अच्छे अदब को समझने की कोशिश ज़रूर करती हूँ

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ख़ुदा की क़सम

20 अप्रैल 2022
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उधर से मुसलमान और इधर से हिंदू अभी तक आ जा रहे थे। कैम्पों के कैंप भरे पड़े थे। जिनमें ज़रब-उल-मिस्ल के मुताबिक़ तिल धरने के लिए वाक़ई कोई जगह नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद उनमें ठूंसे जा रहे थे। ग़ल्ला न

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ख़ुशबू-दार तेल

20 अप्रैल 2022
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“आप का मिज़ाज अब कैसा है?” “ये तुम क्यों पूछ रही हो अच्छा भला हूँ मुझे क्या तकलीफ़ थी ” “तकलीफ़ तो आप को कभी नहीं हुई एक फ़क़त मैं हूँ जिस के साथ कोई न कोई तकलीफ़ या आरिज़ा चिमटा रहता है ” “य

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मम्मी

20 अप्रैल 2022
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नाम उसका मिसेज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरम्याने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उसका ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अ’ज़ीम में मारा गया था, उसकी पेंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से

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इश्क़-ए-हक़ीक़ी

20 अप्रैल 2022
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इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के बारे में अख़लाक़ का नज़रिया वही था जो अक्सर आ’शिकों और मोहब्बत करने वालों का होता है। वो रांझे पीर का चेला था। इ’श्क़ में मर जाना उसके नज़दीक एक अज़ीमुश्शान मौत मरना था। अख़लाक़ तीस

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यज़ीद

20 अप्रैल 2022
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सन सैंतालीस के हंगामे आए और गुज़र गए। बिल्कुल उसी तरह जिस मौसम में ख़िलाफ़-ए-मा’मूल चंद दिन ख़राब आएं और चले जाएं। ये नहीं कि करीम दाद, मौला की मर्ज़ी समझ कर ख़ामोश बैठा रहा। उसने उस तूफ़ान का मर्दाना

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उल्लू का पट्ठा

20 अप्रैल 2022
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क़ासिम सुबह सात बजे लिहाफ़ से बाहर निकला और ग़ुसलख़ाने की तरफ चला। रास्ते में, ये इसको ठीक तौर पर मालूम नहीं, सोने वाले कमरे में, सहन में या ग़ुसलख़ाने के अंदर उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो किसी

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अब और कहने की ज़रुरत नहीं

20 अप्रैल 2022
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ये दुनिया भी अ’जीब-ओ-ग़रीब है... ख़ासकर आज का ज़माना। क़ानून को जिस तरह फ़रेब दिया जाता है, इसके मुतअ’ल्लिक़ शायद आपको ज़्यादा इल्म न हो। आजकल क़ानून एक बेमा’नी चीज़ बन कर रह गया है । इधर कोई नया क़ानून बनता

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नया क़ानून

20 अप्रैल 2022
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मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उसकी तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर थी और उसने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इसके बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्ड

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