*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान को लोग अनेकों रूप में मानते हैं , उनकी पूजा करते हैं , परंतु सत्य तो यह है की *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भगवान को अपनी वात्सल्यमयी माता मानकर उनका पुत्र बनना पड़ेगा , क्योंकि भगवान को सर्वप्रथम *त्वमेव माता* कहकर माता की संज्ञा दी गई है ! यह विश्वास रखना चाहिए कि माता कभी अपने बच्चे का अकल्याण नहीं चाहती !
*माता इस संसार में , है भगवान स्वरूप !*
*यही सोंचती पुत्र को , लगे छाँव न धूप !!*
(स्वरचित)
जब मनुष्य अपनी माता के रूप में भगवान को देखने लगता है तब उसको भगवान में कोई दोष नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि जिस प्रकार माता अपने बच्चे के कल्याण के लिए कभी कभी उसके साथ ऐसा व्यवहार भी करती है जो बच्चों को बड़ा क्रूर प्रतीत होता है और वह भूल बस माता से अप्रसन्न भी होता है परंतु माता उसकी अप्रसन्नता की कुछ भी परवाह न कर अपने उस व्यवहार को नहीं छोड़ती क्योंकि उसका हृदय स्नेह से भरा है और वह बच्चे का परम हित चाहती है ! इसी प्रकार स्नेह सुधा के असीम सागर भगवान जिन के स्नेह की एक बूंद ने ही विश्व की सारी माताओं के हृदय में बैठकर उनको अनादिकाल से स्नेहिल बना रखा है अपने प्यारे बच्चों के लिए उनके हितार्थ ही दंड विधान किया करते हैं !
*करुणानिधान भगवान महतारी बनि ,*
*शिशु को डराते धमकाते समझाते हैं !*
*दुर्गुण रूपी अग्नि ओर बढ़े बाल शिशु तो ,*
*दण्ड विधान में भी नहीं सकुुचाते हैं !!*
*मोह वश सर्परूपी पाप की जो ओर चले ,*
*माँ की भाँति बलपूर्वक छुड़वाते हैं !!*
*भगवत्कृपा के ये रहस्य नहीं जान पाते ,*
*व्यर्थ में मनुष्य रोते चिल्लाते हैं !!*
(स्वरचित)
जिस प्रकार माता अपने पुत्र को बार-बार दंड विधान के द्वारा भयभीत करती है , वैसा ही दंड विधान भगवान का भी होता है ! जैसे माता बच्चे को आग के समीप जाने से रोक कर उसे अलग कर देती है बालक नहीं मानता तो कभी-कभी उसे बांध भी देती है , उसके हाथ से छुरी या कोई ऐसी वस्तु जो उसको हानि पहुंचाती है और उसने मोहवश ले रखी है माता उस वस्तु को बलपूर्वक छीन लेती है तथा बुरा आचरण न छोड़ने पर डराती धमकाती भी है ! माता का डराना - धमकाना , रस्सी से बांध देना यह सब बालक को भले ही अच्छा न लगे लेकिन उसके हित के लिए ही होता है ! ठीक उसी प्रकार भगवान के विधान द्वारा मनुष्य में विषय भोगों के योग्य शक्ति ना रहना , विषयों से अलग होने को बाध्य होना , विषयों का हटाना या नाश हो जाना आदि कार्य इसी श्रेणी में आते हैं ! ऐसा होने पर *विशेष भगवत्कृपा* समझनी चाहिए ! वास्तव में विषय भोग , दुनिया के धन , यश , कीर्ति , स्त्री , पुत्र आदि पदार्थ तो मनुष्य को नरकाग्नि की ओर ले जाने वाले हैं ! जो इनमें रचता बसता है वह दुख दावानल में दग्ध होने से नहीं बच सकता ! भला भगवान जो हमारे परम सुहृद हैं , परम हितेषी हैं हमें वे वस्तुयें क्यों देने लगे और क्यों हमें आसक्त रहने की स्वतंत्रता प्रदान करने लगे ! मनुष्य के विषय भोग चले जाने पर वह भगवान को दोष देता है ! वह *भगवत्कृपा* को नहीं समझ पाता ! वह यह नहीं जान पाता यह हमारी माता अर्थात भगवान ने हमारा हित करने के लिए ही इन विषय भोगों को हमसे छीना है ! यह तभी होता है जब मनुष्य को *भगवत्कृपा* और भगवान पर विश्वास नहीं रहता ! *भगवत्कृपा* का अनुभव तब तक नहीं हो सकता जब तक मनुष्य को भगवान पर पूर्ण विश्वास ना हो ! आज के समाज की भक्ति एवं विश्वास देखकर सहज ही मन के भाव फूट पड़े :--
*मानुष प्रभु कहँ मूर्ख बनावैं !*
*प्रभु भगती का करइं देखावा ,*
*कृपा समझि नहिं पावैं !!*
*(१)*
*पूजा नित्य करै बिधिपूर्वक ,*
*बहुबिधि भोग लगावैं !*
*तन मन धन सब तेरा कहिके ,*
*नित्य आरती गावैं !!*
*सबकुछ तेरा कुछ नहिं मेरा ,*
*प्रभु को रोज सुनावैं !*
*पर यदि प्रभु कुछ ले लेते तो ,*
*बिलखि बिलखि चिल्लावैं !!*
*(२)*
*भगवत्कृपा का दौरैं निशिदिन ,*
*कृपा समझि नहिं पावैं !*
*लाभ हुआ तो कृपा मानि के ,*
*बहु नैवेद्य चढ़ावैं !*
*हानि हुई तो भक्ति हेरानी ,*
*प्रभु कहँ दोष लगावैं !!*
*"अर्जुन" स्वारथ रत मानव सब ,*
*भगवत्कृपा न पावैं !!*
(स्वरचित)
मनुष्य अपने लाभ में *भगवत्कृपा* मानकर प्रसन्न होता है और हानि हो जाने पर उसकी भक्ति गायब हो जाती है और वह भगवान के ऊपर अनेकों प्रकार के मिथ्यारोप लगाने लगता है ! ऐसे मनुष्यों का विश्वास दृढ़ नहीं होता और बिना विश्वास के *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती !