सनातन धर्म में *भगवत्कृपा* प्राप्ति के कई साधन बताये गये हैं ! जैसे कि :- जप , तप , पूजा , पाठ , सतसंग आदि | कभी कभी मनुष्य दिग्भ्रमित हो जाता है कि वह *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कौन सा मार्ग चुने | प्राचीनकाल की कथाओं को पढकर ऐसा लगता है कि सबसे महत्तपूर्ण साधन जप एवं तप ही रहे होंगे | परंतु किसी भी जप या तप से अधिक श्रेष्ठ व सरल साधन है *संतकृपा* प्राप्त करना , सतसंग करना | बिना सतसंग किये न तो ईश्वर के विषय में जाना जा सकता है और न ही किसी भी जप या तप के विषय में | क्योंकि:--
*बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग !*
*मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग !!*
(मानस)
सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्र जी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता ! जब तक प्रभु चरणों में अचल प्रेम नहीं होगा तब तक *भगवत्कृपा* दिवास्वप्न ही रहेगी |बिना सतसंग के *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त की जा सकती ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए हृदय में भक्ति का होना आवश्यक है और वह भक्ति सतसंग से ही प्रादुर्भूत हो सकती है ! सतसंग की श्रेष्ठता को स्वयं मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम माता शबरी को नवधा भक्ति की शिक्षा देते हुए प्रतिपादित करते हैं | नव प्रकार की भक्ति में प्रथम भक्ति सतसंग को ही बताते हुए स्वयं श्रीराम प्रभु के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :--
*"प्रथम भगति संतन कर संगा !*
(मानस)
जब प्रथम भक्ति (सतसंग) मनुष्य करेगा तभी उसको भगवान की कथाओं में प्रेम उत्पन्न होगा ! भगवत्कथाओं में उत्पन्न प्रे ही नवधा भक्ति का दूसरा पायदान है ! यथा :---
*दूसरि रति मम कथा प्रसंगा*
(मानस)
*भगवत्कृपा* की प्राप्ति में सतसंग को ही महत्त्व देते हुए वेदव्यास जी भी श्रीमद्भागवतम् में भक्त प्रहलाद के माध्यम से प्रथम भक्ति "श्रवणं" ही बताते हैं | यथा:--
*श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् !*
*अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् !!*
(श्रीमद्भागवत)
*श्रवण:-* ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना ! *कीर्तन:-* ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना ! *स्मरण:-* निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना !! *पाद सेवन: -* ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना ! *अर्चन:-* मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना ! *वंदन:-* भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना ! *दास्य:-* ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना ! *सख्य:-* ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना ! *आत्मनिवेदन:-* अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना ! यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं ! *श्रवणं* का अर्थ हुआ प्रभु की लीलाओं को श्रवण करना | प्रभु की लीलाओं का रसास्वादन करने के लिए सतसंग की ही शरण लेनी पड़ेगी | कहने का तात्पर्य यह है कि :- जब तक हम प्रबुद्ध ज्ञानियों की संगत नहीं करेंगे तब तक पूजा , पाठ , जप , तप , आराधना के विषय में जानेंगे कैसे ?? अत: सतसंग ही *भगवत्कृपा* प्राप्ति की प्रथम सीढी होने के साथ ही श्रेष्ठ भी है | सतसंग से ही मनुष्य में भगवान का दर्शन करने या प्राप्त करने की इच्छायें प्रबल होती हैं और वह जप एवं तपस्या की ओर अग्रसर होता है |
लोग तरह तरह के अनुष्ठान तो करते हैं परंतु लोगों को फल *( भगवत्कृपा)* नहीं मिल रहा है | आखिर ऐसा क्यों ??? इसका एक ही कारण है कि आज:--
*झूठइ लेना झूठइ देना*
*झूठइ भोजन झूठ चबेना*
(मानस)
आज यदि लोग *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं तो उसका एक ही कारण है कि चारों ओर झूठ का साम्राज्य फैला दिखाई पड़ रहा *लोग सत्य के संग अर्थात् सतसंग से विमुख हो रहे हैं |* सतसंग न करके लोग सिर्फ किताब (ग्रंथ) पढकर ही सबकुछ पा जाना चाहते हैं जो कि सम्भव नहीं है | *सतसंग के महत्त्व को समझने का प्रयास किया जाय कि:-* जब बच्चे को पहली बार विद्यालय में प्रवेश कराना होता है तो उसके एक महीने पहले से ही परिवार के लोगों के द्वारा बच्चे के मस्तिष्क में विद्यालय एवं वहाँ के विषय में सकारात्मक बातें आरोपित की जाती हैं | तब बच्चा परिवार का त्याग करके विद्यालय जाने के योग्य होता है | परिवार के लोगों द्वारा विद्यालय के विषय में जो बात (सतसंग) बच्चे से की जाती है उसको सुनकर (श्रवणं) बच्चा स्वयं को विद्यालय के लिए तैयार करता है | यदि किसी भवन के छत पर पहुँचना है तो मनुष्य को सीढी का प्रयोग करते हुए एक एक पायदान चढकर ऊपर पहुँचना होगा | *भगवत्कृपा* प्राप्ति रूपी छत के सीढी का पहला पायदान है सतसंग , बिना उस पर चढे किसी को कुछ (लक्ष्य) नहीं प्राप्त हो सकता | यदि उच्च शिक्षा की आकांक्षा है तो मनुष्य को प्राईमरी (प्राथमिक शिक्षा) लेनी ही पड़ेगी , क्योंकि सीधे आप शास्त्री , आचार्य , चिकित्सक या अधिवक्ता नहीं बन सकते | भगवत्मार्ग में उच्चता प्राप्त करने आकांक्षा है तो सतसंग करना पड़ेगा क्योंकि भगवत्प्राप्ति की प्राईमरी है सतसंग | जब तक सतसंग नहीं किया जायेगा तब तक *भगवत्कृपा* मिलने में संदेह ही बना रहेगा ! भगवान के सभी नामों में जिस प्रकार श्री राम नाम सर्वश्रेष्ठ है , उसी प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्ति के साधनों में "सतसंग" ही सर्वश्रेष्ठ है | अत: सतसंग करते रहना चाहिए जिससे कि *भगवत्कृपा* का लाभ मिल सके ! जिस प्रकार गंगा जी की धारा सतत् प्रवाहमान है परंतु लाभ उसी को मिलता है गंगा जी में उतरकर स्नान करता है , उसी प्रकार *भगवत्कृपा* भी सतत् बरस रही है परंतु उसका लाभ लेने के लिए सतसंग सागर में उतरकर स्नान करना पड़ेगा , तभी *भगवत्कृपा* का लाभ मिल पायेगा !