इस संसार में आर्त्त प्रपन्न भक्त तो तत्क्षण ही अजर अमर , प्रशांत , बैकुंठ में अपने भावनुकूल सारुप्य , सायुज्य , सामीप्य , सालोक्य मुक्तिरूपा *भगवत्कृपा* प्राप्त कर लेते हैं परंतु दृप्त प्रपन्न भक्त शरीरावसानपर्यंत इस संसार में रहना चाहते हैं और तदन्तर मोक्ष की प्रार्थना करते हैं ! यद्यपि उनके शरणागत होने के साथ ही उन्हें मुक्ति उपलब्ध हो जाती है तथापि उनकी इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान इस शरीर पर्यंत उन्हें संसार में रखने के लिए राजी हो जाते हैं ! *अब शंका यह होती है कि:-* इस जीवन के पुण्यमय प्रारब्ध को रखकर केवल सुख में जीवन यापन की व्यवस्था तथा पापमय प्रारब्धों को नष्ट कर दुख रहित जीवन यापन की व्यवस्था करने में समर्थ होते हुए भी भगवान ऐसा क्यों नहीं करते इसका समाधान भी देखिए:--
*शोकास्पदांशमथनाश्रयतां भवाब्धौ ,*
*रागास्पदांशसहजं न रुणत्सि दु:खम् !*
*नोचेदमी जगति रंगधुरीण भूय: ,*
*क्षोदिष्ठभोगरसिकास्तव न स्मरेयु: !!*
(न्यासतिलक)
*अर्थात:-* हे रंगधुरीण भगवन ! आप पिछले जन्मों के प्रारब्धों को नष्ट कर देते हैं किंतु इस जन्म के पापमय प्रारब्ध को नष्ट नहीं करते क्योंकि जब इस शरीर में सुख ही सुख मिलता रहेगा तो छुद्र सांसारिक भोगों में लिप्त भक्त आपको स्मरण नहीं करेंगे ! भगवान यदि मानव को दुख ना दें तो क्षुद्र स्त्री , पुत्र , परिवार और भोगों में फंसा रहने से संसार में उसकी रुचि उत्पन्न होगी और भगवदनुभव की चाहत समाप्त हो जाएगी ! तथा *भगवतकृपा* से परे होकर उसे पुनः ना जाने किस अनर्थ का सामना करना पड़ेगा ! अतः श्री भगवान अपने भक्तों के प्रारब्ध के अंतर्गत पापों को निमित्त बनाकर दुखमयी परिस्थितियों को उत्पन्न कर उन्हें सांसारिक दोषों का अनुभव करा कर संसार से विरक्त बना देते हैं ! यह भी *भगवत्कृपा* का एक प्रकार है ! अपने अंश (जीव) को इस संसार से विरक्त एवं अपने प्रति अनुरक्त बनाने के लिए वे स्वयं अपने कृपा प्रदर्शन का वर्णन करते हैं :--
*यस्यानुग्रहमिच्छामि धनं तस्य हराम्यहम् !*
*बान्धवेभ्यो वियोगेन् भृशं भवति दु:खित: !!*
*यदि मां तेन दु:खेन संतप्तो न परित्यजेत् !*
*तं प्रसादं करिष्यामि य: सुरैरपि दुर्लभ: !!*
*अर्थात:-* भगवान कहते हैं मैं जिस पुरुष पर कृपा करना चाहता हूं उसकी संपत्ति को हर लेता हूं तथा उसे बंधुओं से वियुक्त कर देता हूं ! उस वियोग - दुख से संतप्त होता हुआ भी यदि वह मेरा परित्याग नहीं करता तो उसके ऊपर मैं वह कृपा करता हूं जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है शास्त्रों में कहा भी गया है :-
*हरिर्दु:खानि भक्तेभ्यो हितबुद्धया करोति हि !*
*शस्त्रक्षाराग्निकर्माणि स्वपुत्रस्य पिता तथा !!*
*अर्थात:-* श्री भगवान हित करने के विचार से भक्तों को दुख उसी प्रकार देते हैं जिस प्रकार पिता अपने पुत्र को कठिन रोग से बचाने के लिए शस्त्र , क्षार और अग्नि से उसकी चिकित्सा करता है ! भगवान भी संसार से वैराग्य और भगवदनुभव की पात्रता उत्पन्न करने एवं सुख देने के लिए दृप्त प्रपन्न भक्तों को दुख देते हैं क्योंकि दु:खानुभव होने पर ही अच्छी तरह से सुख का आस्वादन किया जा सकता है ! शास्त्रों में कहा गया है :--
*अग्ने: शीतेन तोषस्य तृषा भक्तस्य च क्षुधा !*
*क्रियते सुख कर्तृत्वं तद्विलोमस्य चेतरै: !!*
*अर्थात:-* शीत ही अग्नि को सुखप्रद बनाता है तथा पिपासा और क्षुधा जल और अन्न को सुखदायक बनाते हैं ! वैसे अग्नि आदि भी शीत आदि को सुखद बनाते हैं ! शीत , भूख , प्यास आदि दुख देने वाले हैं इनसे होने वाले दुख के तारतम्य से ही सुख प्राप्त होता है ! इस विवेचन से स्पष्ट है कि दुख ही सुख को मधुर बनाता है दुख दिए बिना भगवान जीवो को सुख नहीं देते क्योंकि सुख दुख दोनों परस्पर आश्रित हैं ! वह प्रारब्ध के अनुसार होने वाले दुखों को नहीं रोकते ! *यह एक विलक्षण भगवत्कृपा है* जो दुख रूप में सन्निहित है ! यह सब की समझ में आने वाली बात नहीं है ! प्रपन्न भक्त ही *भगवत्कृपा* के इस दुखा अवतार को पहचान कर प्रसन्न होते हैं !