कुछ लोग कहते हैं सत्संग *भगवत्कृपा* से प्राप्त होता है तो कुछ लोग यह कहते हैं सत्संग से *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होती है ! इस विषय पर विचार किया जाए कि *सत्संग से भगवत्कृपा मिलती है कि भागवत्कृपा से सत्संग मिलता है* आइए विचार करते हैं ! परमात्मतत्व की प्राप्ति मनुष्य जीवन का परमपुरुषार्थ है श्रीमद्भगवतगीता में तत्व प्राप्ति के लिए कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्ति योग आदि साधन बताए गए किंतु वर्तमान समय में मनुष्य कोई भी कठिन परमार्थिक साधन करने में अपने को असमर्थ पाता है ! कभी वह समय के अभाव का बहाना बनाता है , कभी पारिवारिक समस्याओं का और कभी शारीरिक अस्वस्थता का ! पर सच्चाई यह है कि उसमें साधन करने की रुचि या लगन ही नहीं होती ! यदि एक बार सच्ची लगन उत्पन्न हो जाय तो साधक को सभी ओर से सहायता प्राप्त होने लगती है ! जो मार्ग अगम दिखाई देता है वही सुगम हो जाता है ! *यदि सुगमता की दृष्टि से देखा जाए तो भगवत्कृपा प्राप्त के लिए सत्संग से बढ़कर और कोई साधन नहीं दिखता* सतसंगति से मनुष्य सहज ही अपार भवसागर को पार कर जाता है ! दूसरी ओर जिस साधक के हृदय में सत्संग करने की इच्छा उत्पन्न हो उसे अपने ऊपर भगवान की बड़ी भारी कृपा समझनी चाहिए क्योंकि:--
*सतसंगत मुद मंगल मूला !*
*सोई फल सिधि सब साधन फूला !!*
(मानस)
सत्संग सब मंगलों का मूल है ! जैसे फूल से फल , फल से बीज और बीज से वृक्ष होता है उसी प्रकार कृपा साध्य सत्संग से विवेक , विवेक से सत का ग्रहण और उससे भक्ति की प्राप्ति होती है ! सत्संग से इस प्रकार सहज ही मनुष्य आवागमन के चक्र से छूट जाता है ! *ऐसा क्यों कहा गया ?* इसलिए कि भगवान को उनकी भक्ति से प्राप्त करना सबसे सुगम है और भक्ति सत्संग से सहज ही प्रकट हो जाती है ! इसलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्संग को संसृति का अंत बताया है ! यथा:--
*भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी !*
*बिनु सत्संग न पावहिं प्रानी !!*
*पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता !*
*सतसंगति संसृति कर अंता !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* भक्ति के माध्यम से *भगवत्कृपा* को प्राप्त करना सबसे सरल है क्योंकि भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है , परंतु सत्संग ( संतो के संग ) के बिना प्राणी इसे पा नहीं सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते सतसंगति ही संसृति (जन्म मरण के चक्र) का अंत करती है ! तुलसीदास जी बताते हैं :--
*बिनु सत्संग विवेक न होई !*
*राम कृपा बिनु सुलभ न सोई !!*
(मानस)
सत्संग के समान अन्य कोई लाभ नहीं है वह सुलभ होता है केवल *भगवत्कृपा* से ! सत्संग *भगवत्कृपा* के बिना नहीं प्राप्त हो सकता ! भूत भावन भोलेनाथ माता पार्वती से कहते हैं :--
*गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु हानि !*
*बिनु हरि कृपा न होई सो गावहिं वेद पुरान !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* शिव जी कहते हैं हे गिरिजे ! संत समागम के समान कोई दूसरा लाभ नहीं है और वह संत समागम *भगवत्कृपा , हरिकृपा* के बिना नहीं हो सकता ! ऐसा वेद और पुराण गाते हैं ! संतों की संगत करने से ही *भागवत्कृपा* की प्राप्ति हो सकती है , और इस संसार में कोई भी ऐसा देश , ऐसा काल नहीं है जहां संत सरलता से न मिलते हों , संत तो प्रत्येक देश - काल में विराजमान होते हैं ! यथा:---
*सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा !*
*सेवत सादर समन कलेसा !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* संत समाज सब देशों में , सब समय सभी को सहज में ही प्राप्त हो सकता है और आदर पूर्वक सेवन करने से समस्त क्लेशों को भी नष्ट कर देता है ! संत तो प्रत्येक स्थान पर मिल जाते हैं परंतु जब तक *भगवत्कृपा* नहीं होती है तब तक निकट तो होने पर भी इन संतों की पहचान नहीं हो पाती ! पता नहीं चलता कि अमुक व्यक्ति संत है ! *जो सतत परब्रह्म परमात्मा के यथार्थ तत्व को जानता है , उसे उपलब्ध कर चुका है वही संत है* संत के लक्षण बताते हुए वेदव्यास जी महाराज लिखते हैं :--
*सन्तो हि सत्येन नयन्ति सूर्यं ,*
*सन्तो भूमिं तपसा धारयन्ति !*
*सन्तो गतिर्भूतभव्यस्य राजन् ,*
*सतां मध्ये नावसीदन्ति सन्त: !!*
(महाभारत/वनपर्व)
*अर्थात्:-* सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य का संचालन करते हैं , संत महात्मा अपनी तपस्या से तेज से इस पृथ्वी को धारण करते हैं ! राजन ! सत्पुरुष ही भूत , वर्तमान और भविष्य के आश्रय हैं ! श्रेष्ठ पुरुष संतो के बीच में रहकर कभी दुख नहीं उठाते हैं और यह तभी संभव होता हो पाता है जब मनुष्य पर *भगवत्कृपा* हो क्योंकि *भगवत्कृपा* के बिना *संतकृपा* नहीं हो सकती और *संतकृपा* के बिना *भगवत्कृपा* की प्राप्ति करना बड़ा दुष्कर है !