*संतकृपा* अर्थात सत्संग *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त होता है ! बिना *भगवत्कृपा* के सत्संग नहीं मिल सकता और जब तक सत्संग नहीं होगा तब तक हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता और भक्ति का प्रादुर्भाव हुए बिना जीव भगवान की ओर उन्मुख नहीं हो सकता और जब तक जीव भगवान की ओर उन्मुख नहीं होगा तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती! *कुल मिलाकर भगवत्कृपा एवं संतकृपा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं !* श्री रघुनाथ जी की विशेष दया एवं अपार *भगवत्कृपा* से ही संत समागम होता है और उसके फल स्वरुप जिओ के समस्त पापों का नाश हो जाता है ! यथा:--
*सेवत साधु द्वैत भय भागै !*
*श्री रघुवीर चरन लय लागै !!*
*देह जनित विकार सब त्यागै !*
*तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै !!*
(विनय पत्रिका)
सत्संग से सांसारिक द्वंद:- राग - द्वेष , मान - अपमान हर्ष - शोक आदि समाप्त हो जाते हैं और जीव अपने निज स्वरूप में अनुरक्त हो जाता है अर्थात जीवन का परम पुरुषार्थ परमात्मतत्व को प्राप्त कर लेता है ! सत्संग का महत्व इसीलिए इतना है कि यह अत्यंत सुगम साधन होते हुए भी ऊंचा से ऊंचा लाभ प्रदान करता है ! *ऊंचा लाभ क्या है ?* इस पर भी विचार करना आवश्यक है आज के भौतिक युग में अधिक बड़ी सफलता को , अधिक धन प्राप्त होने को लोग ऊँचा लाभ कह सकते हैं परंतु *सत्य तो यही है की परमात्मा की प्राप्ति से बढ़कर ऊंचा लाभ अन्य कोई हो ही नहीं सकता* भगवान श्रीराम को प्राप्त करने में विभीषण को क्या परिश्रम करना पड़ा ? *भगवत्कृपा* से ही उन्हें परम भागवत हनुमान जी का सत्संग मिला और जब विभीषण पर *भगवत्कृपा* हुई और हनुमान जी जैसे संत उनको मिले तो उनको भगवान से मिलने का मार्ग प्रशस्त कर दिया और विभीषण जी ने *भगवत्कृपा* का आभार मानते हुए हनुमान जी से कहा:-
*अब मोहि भा भरोस हनुमंता !*
*बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता !!*
(मानस)
और हनुमान जी से सत्संग करने के फलस्वरूप विभीषण पर *श्री राघवेंद्रसरकार की कृपा* मानो उमड़ पड़ी ! भगवान ने उन्हें लंका का अविचल राज्य ही नहीं दिया प्रत्युत अपना अलौकिक प्रेम भी प्रदान किया और मुक्त कंठ से भगवान कह पड़े :--
*सुनु लंकेश सकल गुन तोरे !*
*ताते तुम्ह अतिशय प्रिय मोरे !!*
(मानस)
विभीषण जी के ऊपर पहले *संतकृपा* हुई उसके बाद में *भगवत्कृपा* का प्रसाद मिला ! *श्री राम की कृपा* से जिसे सत्संग मिलता है उसके सारे संशय दूर हो जाते हैं अर्थात अपने भूले हुए स्वरूप की स्मृति हो जाती है काग भुसुंडि जी कहते हैं:--
*राम कृपा तव दर्शन भयऊ !*
*तव प्रसाद सब संशय गयऊ !!*
(मानस)
यहां गोस्वामी जी *राम कृपा पर विशेष बल देते प्रतीत होते हैं !* सत्संग भगवत्प्राप्ति का एकमात्र सुगम और अमोघ उपाय है ! एक निमिष का सत्संग भी दुर्लभ होता है परंतु सत्संग मिलता उसी को है जिसे *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है ! जिसकी ओर प्रभु कृपा कर एक बार देख लेते हैं:-
*सतसंगति दुर्लभ संसारा !*
*निमिष दंड भरि एकउ बारा !!*
*संत विशुद्ध मिलहिं परि तेहीं !*
*चितवहिं राम कृपा करि जेहीं !!*
( मानस)
यह निर्णय असंभव सा है कि *भगवत्कृपा* से सत्संग की प्राप्ति होती है अथवा सत्संग से *भगवत्कृपा* की ! वस्तुतः इन दोनों को अन्योन्याश्रित ही कहा जा सकता है ! *भगवत्कृपा* से सत्संग और सत्संग से *भगवत्कृपा* यह क्रम चलता ही रहता है आवश्यकता है इसको समझने की |