*भगवत्कृपा* तो निरन्तर प्रवाहमान है परंतु इसका अनुभव उसी को होता है जो भगवान का भक्त होता है , जिसका भगवान पर पूर्ण विश्वास होता है , भगवान तो स्वयं घोषणा करते हैं :--
*हम भगतनि के भगत हमारे !*
*सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी ,*
*यह ब्रत टरत न टारे !!*
*भगतनि काज लाज हिय धरि कै ,*
*पाइ पियादे धाऊं !*
*जहं जहं पीर परै भगतनि कौं ,*
*तहं तहं जाइ छुड़ाऊं !!*
*जो भगतनि सौं बैर करत है ,*
*सो निज बैरी मेरौ !*
*देखि बिचारि भगत हित कारन ,*
*हौं हांकों रथ तेरौ !!*
*जीते जीतौं भगत अपने के ,*
*हारें हारि बिचारौ !*
*सूरदास सुनि भगत विरोधी ,*
*चक्र सुदर्शन जारौं !!*
*अर्थात्:-* श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती | यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगड़ने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौड़कर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं | इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है | (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है | वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है | तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पड़ती है) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पड़ता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं | जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ | अब तू मेरा भक्त है ! *अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं !* श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं ! सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं | *कैसी अद्भुत प्रतिज्ञा है भगवान की* यह भक्तों के ऊपर अपार *भगवत्कृपा* ही है ! मनुष्य को भगवान पर विश्वास रखना चाहिए कि मेरा कोई भी काम *भगवत्कृपा* से बिगड़ ही नहीं सकता ! विश्वास कैसा होना चाहिए ? *बट विस्वास* विश्वास बरगद के पेड़ की तरह विशाल एवं सघन होना चाहिए ! जैसे बरगद के वृक्ष की सघनता को भेदकर सूर्य की किरणें उसकी छाया को नहीं पार पाती उसी प्रकार मनुष्य का विश्वास भी सघन होना चाहिए जहाँ अविश्वास का कण भी न पहुँचे ! यदि भगवान पर ऐसा दृढ़ विश्वास है तो *भगवत्कृपा* स्वमेव बरस पड़ेगी !
जब *भगवान एवं उनकी कृपा* पर पूर्ण विश्वास हो जाय तो अपने प्रत्येक कार्य निपटाते हुए भगवान के नाम का स्मरण करता रहे और जीवन में सुख दुख जो भी आये उसे *भगवत्कृपा* मानकर
स्वीकार करे ! हमारे सन्तों ने कहा है :--
*सीताराम सीताराम सीताराम कहिये !*
*जाही विधि राखैं राम ताही विधि रहिये !!*
*जिंदगी की डोर सौंप हाथ दीनानाथ के !*
*महलों राखें चाहे झोपड़ी में वास दें !!*
*धन्यवाद निर्विवाद राम राम कहिये !*
*जाहि विधि राखैं राम ताही विधि रहिये !!*
जीवन का प्रत्येक निर्णय भगवान पर छोड़ दो ! वह आपकी हर समय रक्षा करेगा ! ईश्वर के सामने अपनी इच्छाएं रखो , इन इच्छाओं के लिए समय तय मत करो ! जो जीवन में घटेगा उस पर प्रश्न मत खड़े करो , बल्कि प्रभु पर अटूट विश्वास रखो , फिर देखना प्रभु आपको गोद से नहीं उतारेंगे ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भक्ति में हमारा विश्वास कमजोर नहीं होना चाहिए ! सुख-दुख, संकट में हमेशा प्रभु को याद करों ! बाकी सब प्रभु जी *भगवत्कृपा* से ठीक ही करेंगे !