अपने कर्मानुसार अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ जीव मानवयोनि प्राप्त करता है | मानव योनि में आकर जीव का उद्देश्य होता है जन्म - जन्मातर के आवागमन से मुक्ति पाना अर्थात मोक्ष प्राप्त करना | जीव को मोक्ष बिना *भगवत्कृपा* के कदापि नहीं प्राप्त हो सकती | गर्भ में जिस *भगवत्कृपा* से जीव अपना समय व्यतीत करता है तथा प्रतिज्ञा करता है कि संसार में जाने के बाद वह भगवद्कार्यों में संलग्न रहते हुए अखण्ड *भगवत्कृपा* प्राप्त करके मुक्त हो जायेगा | परंतु इस संसार में आने के बाद जीव अनेक प्रकार के मोहादि में लिप्त होकर *भगवत्कृपा* के दिव्य अनुभव को भूल जाता है | संसार में अनेक प्रकार की कामनाओं के वशीभूत होकर जीव दुख के सागर में डूबने लगता है | दुख के इस सागर से जीव को सिर्फ *भगवत्कृपा* ही उबार सकती है | यह *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए मनुष्य अनेकानेक उपाय भी करता है परंतु जब तक जीव को *गुरुकृपा (संतकृपा)* नहीं प्राप्त होती तब तक *भगवत्कृपा* के विषय में सोंचा ही नहीं जा सकता | क्योंकि :-
*"गुरु बिनु होइ न ज्ञान , ज्ञान न होइ विराग बिनु" |*
(मानस)
जब तक जीव पर *भगवान की कृपा* नहीं होती तब तक उसे *संतकृपा* भी नहीं प्राप्त हो सकती | बाबा जी ने मानस में लिखा है :-
*"बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता" !*
(मानस)
*बिना भगवत्कृपा के संतकृपा और बिना संतकृपा के भगवत्कृपा नहीं मिल सकती है !* कुछ लोगों के लिए यह थोड़ा भ्रमित करने वाला विषय हो सकता है परंतु इसमें भ्रम जैसी कोई बात ही नहीं है | दोनों ही एक दूसरे के पूरक है | एक दूसरे के बिना कुछ भी नहीं प्राप्त किया जा सकता | जब तक ह्रदय में प्रतट अनेकों प्रकार के दुर्गुणों का विनाश नहीं होगा तब तक यह मन *भगवत्कृपा* की ओर उन्मुख ही नहीं होगा और इन दुर्गुणों का विनाश सत्संगति अर्थात *संतकृपा* से ही हो पाना संभव है क्योंकि सतसंगति के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है | *संतकृपा के बिना भगवान या भगवत्कृपा के विषय में जाना भी नहीं जा सकता* इसलिए *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए *संतकृपा* का होना परम आवश्यक है और *संतकृपा* भी तभी प्राप्त हो सकती है जीव के ऊपर *भगवत्कृपा* हो | लोग *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए अनेकानेक उपाय किया करते हैं परंतु उन्हें वह *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो पाती क्योंकि जब तक हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं होगा तब तक मनुष्य दिखावा चाहे जितना करें परंतु उसे *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती | नौ प्रकार की भक्ति में पहली भक्ति संतों की संगत अर्थात सत्संग या यूं कहिए कि *संतकृपा* को बताया गया है :-
*प्रथम भगति संतन कर संगा !*
(मानस)
जब तक मनुष्य प्रथम भक्ति नहीं करेगा तब तक भक्ति के सोपान पर नहीं चढ़ सकता और यह *सन्तकृपा* से ही संभव है | *भगवत्कृपा एवं संत कृपा में उतना ही अंतर है जितना एक न्यायाधीश एवं अधिवक्ता में !* जिस प्रकार बिना न्यायाधीश की अनुशंसा के कोई अधिवक्ता नहीं बन सकता और बिना अधिवक्ता की शरण लिये कोई भी साधारण मनुष्य न्यायाधीश तक नहीं पहुंच सकता क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं | संतों का अस्तित्व भगवान से ही और भगवान का अस्तित्व संतो से है इन दोनों में कभी भी भेद नहीं समझना चाहिए | यदि *भगवत्कृपा* प्राप्ति की इच्छा है तो मनुष्य को सर्वप्रथम *गुरुकृपा / संतकृपा* प्राप्त करनी पड़ेगी और *संतकृपा* तभी प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य सत्संग की ओर उन्मुख होगा अन्यथा जीवन में दिखावे का सत्संग एवं अनुष्ठान करने से *भगवत्कृपा* कदापि नहीं प्राप्त हो सकती | *भगवत्कृपा से संतकृपा* अर्थात सत्संग प्राप्त होता है लिखा गया है :-
*बिनु सत्संग विवेक न होई !*
*राम कृपा बिनु सुलभ ना सोई !!*
(मानस)
इसी चौपाई से सार प्राप्त कर लेना चाहिए कि बिना *संतकृपा* के विवेक जागृत नहीं हो सकता और जब तक *भगवत्कृपा* नहीं होगी तब तक *संतकृपा* नहीं प्राप्त हो सकती है | गाय की कृपा से हमें बछड़ा प्राप्त होता है | गाय क्या है ? :- *भगवत्कृपा* और बछड़ा है :- *संतकृपा* यदि गाय *(भगवत्कृपा)* को पकड़ना है तो गाय के पीछे न भाग करके बछड़ा *(संतकृपा)* पकड़ लीजिए गाय कहीं जा ही नहीं सकती | यही है *भगवत्कृपा* का रहस्य |