जब तक मनुष्य का *संतकृपा* नहीं होगी तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त की जा सकती ! सत्संग के माध्यम से *संतकृपा* को प्राप्त करके ही *भगवत्कृपा* की प्राप्ति की जा सकती है ! संतो की महिमा सर्वत्र गाई गई है !ो संतो की महिमा को भगवान श्रीराम ने स्वयं नारद जी के प्रति सविस्तार कहा है और यहां तक कह दिया कि :-
*मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते !*
*कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं कि हे नारद मुनि ! सुनो संतो के जितने गुण हैं उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते तो साधारण व्यक्ति संतों की महिमा को कैसे बता सकता है ! संत ही हैं जो मनुष्य को भगवान से मिला देते हैं , *भगवत्कृपा* की प्राप्ति करा देते हैं ! संतो की महिमा बताते हुए ऋषभदेव जी अपने पुत्रों को उपदेश करते हैं , और संतों के लक्षण बताते हैं कि :--
*महान्तस्ते समचित्ता: प्रशान्ता ,*
*विमन्यव: सुहृद: साधवो ये !*
(श्रीमद्भागवत)
*अर्थात्:-* ऋषभदेव जी कहते हैं :- महापुरुष संत वही है जो समचित्त , शांत स्वभाव , क्रोधहीन , सबके सुहृद और सदाचार संपन्न हो , ऐसे संतों का मिलना *भगवत्कृपा* से ही संभव होता है ! निरंतर राम कथा का गायन करने वाले कागभुशुण्डि जी महाराज को जब गरुड़ देव मिले , उनसे सत्संग करने का अवसर मिला तो कागभुसुंडि जी गरुड़ जी से कह पड़े :--
*आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब विधि हीन !*
*निज जन जानि राम मोहिं संत समागम दीन !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* कागभुशुण्डि जी कहते हैं कि :- हे गरुड़ जी ! यद्यपि मैं सब प्रकार से तुच्छ हूँ फिर भी श्री रामचंद्र जी ने आज मुझे अपना निज जन जानकर संत समागम दिया ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है भगवान की भक्ति करना और वह भक्ति संतो के संग सत्संग करने से ही हृदय में प्रकट हो सकती है ! श्री रघुनाथ जी की भक्ति सुलभ और समस्त सुखों की जननी है और संत उस त्रिताप नाशिनी , कलिमल हरिणी भक्ति का कारण दान करते रहते हैं , परंतु वह (संत) इतनी सरलता से नहीं प्राप्त होते हैं ! संत एवं सत्संग तभी प्राप्त हो पाता है जब अकारण करुणा वरूणालय भगवान द्रवित होकर के *भगवत्कृपा* करते हैं ! यथा:--
*रघुपति भगति सुलभ सुखकारी !*
*सो त्रयताप सोक भयहारी !!*
*बिनु सतसंग भगति नहिं होई !*
*ते तब मिलैं द्रवै जब सोई !!*
*जब द्रवैं दीनदयाल राघव , साधु संगति पाईये !*
*जेहि दरस परस समागमादिक पापरासि नसाईये !!*
(विनय पत्रिका)
कुल मिलाकर जब तक *भगवत्कृपा* नहीं होती तब तक संतो के संग समागम नहीं होता और जब तक संतो के संग समागम करके सत्संग नहीं किया जाएगा तब तक *भगवत्कृपा* की प्राप्ति नहीं हो सकती !