मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह बड़ा उतावला होता है ! कोई भी कर्म करने के बाद तुरंत उसका फल प्राप्त करने की आशा मनुष्य करता रहता है ! *भगवत्कृपा* तुरंत नहीं प्राप्त हो जाती ! लंबे समय तक साधना करने के बाद , अपने मन के विकारों को शांत करने के बाद कहीं जाकर *भगवत्कृपा* का अनुभव होता है ! इसलिए साधक को चाहिए कि भगवान की महिमा और उनके सहज सहज कृपालु स्वभाव की ओर देखकर अपने उत्साह में कमी ना आने दे ! अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कभी निराश ना हो और भगवान के शरण होकर सर्वथा उन्हीं पर निर्भर हो जाय ! अपनी निर्बलता को जानकर इस भाव को सर्वथा मिटा दें कि मैं कुछ कर सकता हूं या मुझे कुछ करना है ! मन में सदैव एक ही भाव होना चाहिए जो कुछ हो रहा है *भगवत्कृपा* से हो रहा है
*भगवत्कृपा की प्राप्ति में , बाधा है अभिमान !*
*अहंभाव तजि प्राप्त कर , भगवत्कृपा महान !!*
(स्वरचित)
जब मनुष्य पर *भगवत्कृपा* होती है तब वह प्रभु की शरण में जाता है और जब मनुष्य प्रभु की शरण में पहुंच जाता है तब उसका अहंभाव मिट जाता है क्योंकि किसी प्रकार के बल का और गुणों का अभिमान रहते हुए मनुष्य भगवान के शरण नहीं हो पाता ! शरणागत साधक अभी भी भगवान से कुछ नहीं चाहता एवं यह भी नहीं समझता कि मेरा उन पर कोई अधिकार है ! वह तो सब प्रकार से विश्वास पूर्वक अपने आप को उनके समर्पण कर देता है और उन्हीं पर निर्भर रहता है ! जो ऐसा करता है उसी को *दिव्य भगवत्कृपा* का अनुभव होता है और वह *भगवत्कृपा* मैं आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत करता है ! शरणागति कैसे प्राप्त होगी ! यह भी जान लेना परम आवश्यक है :--
*शरणागत भक्तों का जो संग सतसंग करे ,*
*सब जीवों में जिसे राम ही दिखाता है !*
*मैंने किया , मैं ही करूँगा , मैं ही करता हूँ ,*
*यह भाव मन में कदापि जो न लाता है !!*
*भगवत्कृपा से शरणागति का जो भाव लिये ,*
*प्रतिक्षण करुणानिधान को ही ध्याता है !*
*मन से बचन से करम से समर्पण करे ,*
*वही भगवान की शरणागति को पाता है !!*
(स्वरचित)
भगवान की कृपा से शरणागत भक्तों का संग करने से और प्राप्त विवेक का आदर करने से शरणागत भाव प्राप्त होता है ! जब साधक का कोई उपाय न चले अपनी निर्बलता का पूरा पूरा अनुभव हो जाय तब उसे भगवान की शरण लेकर उनको पुकारना चाहिए ! शरणागति अचूक अस्त्र है ! इससे मनुष्य के समस्त दोष जलकर भस्म हो जाते हैं ! जब भगवान की असीम कृपा से शरणागति का भाव उदय हो जाता है उसके बाद साधक को कभी असफलता का दर्शन नहीं होता ! *मनुष्य को विचार करना चाहिए कि* मुझे सबसे अधिक प्रिय क्या है ? यदि उसे यह मालूम हो कि मेरा प्यार बहुत जगह बंटा हुआ है तो उसे समझना चाहिए कि अनेक जगह प्यार बंटा रहते हुए शरणागति का भाव उत्पन्न नहीं होता ! अतः साधक को चाहिए कि जिन अन्य वस्तुओं से संबंध जोड़ कर वह उनसे प्यार करता है उनसे प्रियता उठाकर एकत्र करें ! एकमात्र उसी को अपना प्रिय समझे कि जिसके बिना वह किसी भी प्रकार से चैन नहीं प्राप्त कर सकता ! *ऐसे प्रिय एक प्रभु ही हो सकते हैं* और यह भाव हृदय में तभी प्रकट हो सकता है जब मनुष्य पर *भगवत्कृपा* होती है ! इस संसार में सबका कोई न कोई बल होता है परंतु साधक को एक ही बल का भरोसा करना चाहिए और वह है भगवान का बल ! यथा :--
*निर्बल को बल भूप भूप बल निज बल ,*
*रात बल चोर के धनी के धन जाला को !*
*मूरख के बल मौन माननी के रोदन को ,*
*क्रोध बल बैन खल काम पाय बाला को !!*
*विप्र के बल श्रुति और कवि के बरन बल ,*
*पक्षी के बल पंख जाके उड़त उताला को !*
*भनैं द्विज "रामलाल" सब के अनेक बल ,*
*मोरे तो एक बल अवध भुआला को !!*
(संकलित)
इस प्रकार यह मानकर कि इस संसार में एक ही बल है और वह है भगवान का , साधक *भगवत्कृपा* प्राप्त कर सकता है ! शरणागति का भाव हृदय में उत्पन्न करके बहुत सहज ही *भगवत्कृपा* की पात्रता को प्राप्त किया जा सकता है