*भगवत्कृपा* प्राप्त करने का एक साधन और शरणागति को कहा गया है ! शरणागति की व्याख्या नहीं हो सकती ! शरणागति एक प्रकार की ही नहीं होती , बल्कि अधिकारी के अनुसार शरणागति में भी भेद होता है ! जहां *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए *विश्वास* का होना आवश्यक है वही *शरणागति की भूमि भी विश्वास ही है* जहां विश्वास होता है , साधक अपनी योग्यता के अनुरूप , विश्वास के अनुरूप प्रभु की महिमा को जैसी और जितनी समझता है उसी ढंग से वह प्रभु की शरण होता है ! शरणागति को साधक के हृदय की पुकार कहा गया है ! यह कला सीखने से नहीं आती !
*शरणागति भगवान की , करइ विघ्न सब नाश !*
*शरणागति मिलती नहीं , बिना पूर्ण विश्वास !!*
*चरण शरण में जो गया , हुआ तुरत कल्यान !*
*शरणागति से प्राप्त हो , भगवत्कृपा महान !!*
(स्वरचित)
शरणागति मिलती कैसे है ? जब तक मनुष्य अपने विवेक , गुण और आचरणों द्वारा अपने दोषों का नाश कर लेने की आशा रखता है तब तक उसमें शरणागति का भाव जागृत नहीं होता ! जब अपने प्राप्त विवेक और बल का प्रयोग करके भी साधक अपने दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ पाता है , जब उसका सब प्रकार का अभिमान गल जाता है और वह अपने को सर्वथा निर्बल समझ लेता है तथा भगवान की महिमा इस प्रकार जान लेता है कि *वह सर्वशक्तिमान , सर्वगुणसंपन्न , परब्रह्म परमेश्वर , पतितपावन और दीनवत्सल है ! प्रत्येक प्राणी चाहे वह कितना ही पापी , कितना ही नीच क्यों ना हो उस को अपनाने के लिए , उससे प्यार करने के लिए भी हर समय हर जगह प्रस्तुत रहते हैं !* एवं साथ ही यह संदेह रहित विश्वास हो जाता है कि मैं जैसा भी हूं उनका हूं , एकमात्र वही मेरे हैं , उनके अतिरिक्त मेरा और कोई नहीं है तथा जिसके हृदय में उनके प्रेम की लालसा है और जो उसकी पूर्ति से निराश भी नहीं हुआ है उस साधक पर *भगवत्कृपा* होती है और शरणागति का भाव ह्रदय में जागृत होता है !
*लोक लोकान्तर जीत लंक को बनाया दुर्ग ,*
*सृष्टि का समस्त ऐश्वर्य जहाँ छाया है !*
*सोई विभीषण ऐश्वर्य राजपद त्याग ,*
*प्रभु के चरण में परम सुख पाया है !!*
*कनककसिपु के कुमार भक्तराज हुए ,*
*कोई मोह बन्धन उन्हें बाँध नहीं पाया है !*
*प्रभु की शरण में जो आये प्रहलाद भक्त ,*
*खम्भ फारि के नरसिंह प्रकटाया है !!*
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*जगत के नेह नाते , मोह में सदा फंसाते ,*
*बड़ी बलवती भगवान की ये माया है !*
*माया के प्रपञ्चों को बिसारि के निराला जीव ,*
*प्रभु के चरण से जो नेह लगाया है !!*
*अपने समस्त कर्म प्रभु को समर्पि कर ,*
*जिसने भी चरण शरण में लगाया है !*
*"अर्जुन" कहें कि संसार बीच वही जीव ,*
*भगवत्कृपा का वरदान दिव्य पाया है !!*
(स्वरचित)
जब मनुष्य का यह विश्वास दृढ़ हो जाता है कि जिस शरीर , बुद्धि , मन आदि को मैं अपना समझता था एवं संसार के जिन व्यक्तियों को , जिस संपत्ति और परिस्थिति को अपनाकर मैंने उनसे अपना संबंध जोड़ रखा है वह कोई मेरे नहीं है तथा जब इस भाव से वह सब ओर से निराश हो जाता है तब उसका उन शरणागतवत्सल भगवान की ओर लक्ष्य जाता है ! उस पर *भगवत्कृपा* होती है और उसके मन में शरणागत होने की लालसा प्रकट होती है ! *भगवत्कृपा* होने पर ही प्राणी में शरणागति का भाव उत्पन्न होता है और शरणागति ही जीव का अंतिम पुरुषार्थ है |