भगवान सदैव मनुष्य के आस-पास ही रहते हैं मनुष्य के हृदय में भगवान का निवास है , परंतु वह इस बात को भूल जाता है , उसको विश्वास ही नहीं होता ! मनुष्य भगवान को याद नहीं कर पाता और *जब तक याद नहीं करोगे तब तक उनकी दया नहीं प्राप्त होगी !* कष्ट पड़ने पर भी मनुष्य भगवान को पहले नहीं याद करता ! जब कोई कष्ट या संकट आता है तो मनुष्य यही विचार करता है कि :-
*संकट के आये ते मनुष्य निश्चिन्त रहत ,*
*सोंचत है साथ में बिशाल परिवार है !*
*परिजन किनारे होत तबहूँ न विचार करत ,*
*सोंचत है साथ में अनेक रिश्तेदार हैं !!*
*रिश्तेदार साथ छोडइं तबहूँ न निराश होत ,*
*मनहूँ बिचारत कि समाज में व्यवहार है !*
*छोड़इ समाज साथ तबहुँ आस निज बल की ,*
*बल के घटे याद आवत दरबार है !!*
(स्वरचित)
*अर्थात्:--* जब मनुष्य पर कोई संकट आता है तब वह भगवान को नहीं याद करता उसके मन में यह विचार आता है कि मेरा परिवार है , जो इस संकट में मेरा साथ देगा ! जब परिवार साथ छोड़ देता है तब मनुष्य को लगता है कि हमारे सगे - संबंधी , रिश्तेदार हमारी सहायता करेंगे , परंतु जब रिश्तेदार भी मुंह मोड़ लेते हैं तो उसको अपने समाज का भरोसा होता है ! जब समाज उसका साथ नहीं देता तब वह अपने बाहुबल पर उस संकट का सामना करने को तैयार होता है लेकिन जब अपने बाहुबल से भी संकट का सामना करते - करते थक जाता है तब उसको *भगवान की याद आती है* और मनुष्य के मुंह से निकल पड़ता है *अब तो जो भगवान करेंगे वही ठीक है* विचार कीजिए *भगवत्कृपा* कैसे प्राप्त होगी ? हम आप तो साधारण जीव है ! इंद्रप्रस्थ की महारानी , पांडवों की राजरानी द्रौपदी , जिन्हें भगवान श्री कृष्ण की बहन होने का गौरव प्राप्त है उन पर भी *भगवत्कृपा* नहीं हुई ! यदि प्रारंभ में ही *भगवत्कृपा* हो गई होती तो क्या दुशासन उनके आंचल को स्पर्श कर पाता ? लेकिन *भगवत्कृपा* कैसे हो ! *द्रोपदी को तो अपने परिवार का भरोसा था ! भगवान को तो याद ही नहीं किया !* द्रोपदी ने मन में विचार किया :- जिसके एक पति होता है उसको घमंड होता है मेरे पाँच पति हैं और पांचों विश्व विजेता है ! गुरु द्रोण , बाबा भीष्म आदि है , परंतु द्रौपदी की प्रार्थना पर जब सब ने अपने शीश झुका लिया और दुशासन ने द्रौपदी के आंचल को पकड़ लिया तो द्रोपदी ने मन में विचार किया मैं क्षत्राणी हूं मेरे भी हाथों में इतना बल है कि मैं अपनी साड़ी को पकड़े रहूंगी ! *अब तक भगवान नहीं आये , भगवान सब देख रहे हैं लेकिन द्रोपदी पर भगवत्कृपा नहीं हुई !* जब एक ही झटके में दुशासन ने द्रौपदी के हाथ को छुड़ा दिया तब द्रोपदी को भगवान की याद आई , और दोनों हाथ को ऊपर उठा कर के द्रोपदी ने कहा:-
*जीवत है जब लौं बिरना ,*
*एहसान न आने के माथे चढ़उबै !*
*गाढ़े मां भारी भरोस तोहार ,*
*तुहैं तजि अब केहका गोहरउबै !!*
*पाँच पती पर ऐसी गती ,*
*सांझै यहि कुल माँ आगि लगउबै !*
*सासुर मां सब कायर बा ,*
*अब नइहर से बिरना बोलवउबै !!*
(द्रौपदी खण्डकाव्य)
द्रोपदी को अब विश्वास हो गया कि हमारे भैया कन्हैया के अतिरिक्त और कोई मेरी लज्जा को बचाने वाला नहीं हैं ! जब भक्त को भगवान पर पूर्ण विश्वास होता है तभी *भगवत्कृपा* होती है और द्रौपदी का विश्वास इतना अधिक बढ़ गया कि उसने दुशासन को चुनौती दे डाली ! और कहा :--
*खींच दुशासन जोरि लगाइ के ,*
*टेर हमारी जौ वैं सुनि पइहें !*
*भौजी की गोद मां होइहैं तबौ ,*
*बिसवास हमैं हरि न बिसरइहैं !*
*टेर सुने न अबेर लगे ,*
*रहिया मां कतहुँ वैं न थिर पइहैं !*
*नार नदी बन डाकत रे ,*
*बनिके हिरना बिरना चला अइहैं !!*
(द्रौपदी खण्डकाव्य)
द्रौपदी का विश्वास भगवान के प्रति हुआ तो उस पर *भगवत्कृपा* हुई ! भगवान गरुड़ की सवारी छोड़कर उनसे भी तेज चलकर दुशासन की सभा में पहुंच गये ! और फिर क्या हुआ यह सभी जानते हैं ! *जब तक भगवान की कृपा पर , भगवान पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा तब तक भगवत्कृपा नहीं प्राप्त की जा सकती !* मनुष्य संसार पर विश्वास करने में अपना समय व्यर्थ में नष्ट करता रहता है जबकि यदि प्रारंभ में ही उसे भगवान पर विश्वास करके उनके दरबार में अपनी प्रार्थना , अपना आवेदन रख दे तो शायद संकट आने के पहले ही चला जाय ! कहने का तात्पर्य ही है *भगवत्कृपा* तो निरंतर बरस रही है , परंतु *भगवतेकृपा* को प्राप्त करने के लिए , *भगवत्कृपा* का पात्र बनने के लिए हमें भगवान के प्रति , *भगवत्कृपा* के प्रति अपने हृदय में पूर्ण विश्वास प्रकट करना होगा !