*भगवतकृपा* प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य निरंतर प्रयास करता है ! कुछ लोग तो नित्य जप , तप , संध्या वंदन एवं अनुष्ठान आदि करके *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का प्रयास करते हैं ! मनुष्य *भगवत्कृपा* का पात्र बना कि नहीं बना ? उसे पता नहीं चलता ! कुछ महापुरुषों संतो के माध्यम से जानने का प्रयास करें *भगवत्कृपा* प्राप्त की प्रत्यभिज्ञा ( पहचान ) के ज्ञापक ( परिचायक ) कतिपय हेतुओं की ! इनसे साधक यह जान सकता है कि अब तक वह *भगवत्कृपा* का पात्र बना कि नहीं बना ! इस रूप से अपनी प्रत्यभिज्ञा निश्चित रूप से कर सकता है ! इन हेतुओं का जैसा उपयोग अपनी प्रत्यभिज्ञा में होता है वैसा दूसरों की प्रत्यभिज्ञा में असंदिग्ध रूप से नहीं हो सकता ! क्योंकि :--
*सुगुप्तस्यापि दम्भस्य ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति*
*अर्थात:-* मनुष्य अपने को ही यथार्थ रूप से पहचान सकता है दूसरों को नहीं ! संतो ने अनुभव द्वारा समस्त शास्त्रों का परीक्षण कर एकमत से यह निर्णय किया है कि *दुर्लभ मानव शरीर मिल जाने पर इस चेतन (जीव) का उत्तमोत्तम एवं महत्तम कर्तव्य भगवत्कृपा का पात्र बनना ही रह जाता है* यही उसका अहोभाग्य एवं मानव जन्म की सफलता है ! वह मानव बड़ा अभागा है जिसका *भगवत्कृपा* पात्र बिना बने ही प्राणांत हो गया ! भगवान वेदव्यास जी *भगवत्कृपा प्राप्ति* को ही श्रेष्ठ पर मानते हुए कहते हैं:--
*न मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित्*
(महाभारत)
*अर्थात:-* रत्न , मुक्ता , प्रवाल आदि *अचेतन जीव* , आम , निम्ब अश्त्थ आदि *अर्द्धचेतन जीव* , कृमि , कीट , पतंग आदि *चेतन जीव* -- तीन प्रकार के इन *पार्थिव जीवों* तथा पिशाच , राक्षस , यक्ष , गंधर्व , पैत्र्य , ऐन्द्र , प्राजापत्त्य वाह्य आदि आठ प्रकार के *दैव जीवों* एवं ब्रह्मा , रुद्र , इंद्र आदि *अनंत अधिकारिक जीवों* की अपेक्षा *भगवत्कृपा पात्र* प्राणी श्रेष्ठतर चेतन है ! यही बात *महाराज मनु* ने भी लिखी है :--
*किं भूतमधिकं तत:*
(मनुस्मृति)
*अर्थात :-* इस ब्रह्मांड में *भगवत्कृपा पात्र* जी से अधिक महान कोई जीव नहीं है !
*प्रत्यभिज्ञा के उपाय----*
यहां संतो द्वारा प्राप्त *भगवत्कृपा* के ज्ञापक हेतुओं का उल्लेख कर रहे हैं ! जिनसे मानव को यह विदित हो सके कि अब तक मैं *भगवत्कृपा* का पात्र बन पाया अथवा नहीं ! इसका उल्लेख *संत ज्ञानेश्वर महाराज , भक्त शठकोप स्वामी , श्रीमद्रामानुजाचार्य जी , सूरदास जी , तुलसीदास जी आदि* भगवत रसिक संतो ने अपने अपने ग्रंथों में अनेक रूपों में किया है ! *१- संत श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने* गीता की प्रसिद्ध और यथार्थ टीका *भावार्थ दीपिका* (ज्ञानेश्वरी) में इस विषय पर इस प्रकार विवेचन किया है :- जिस मानव के हृदय में बैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हो चुका हो , एवं तत्व जिज्ञासा लिए जिसकी शास्त्र श्रवण में रुचि हो उसको नि:शंसय से और निर्भय होकर यह निश्चय कर लेना चाहिए कि *मैं भगवत कृपा का पात्र बन गया हूं !* हृदय में बैराग्य का उदय एवं शास्त्र श्रवण में रुचि यह दोनों *भगवत्कृपा* के बिना नहीं रहते ! *२- स्वामी रामानुजाचार्य जी के जीवन की एक घटना है* एक दिन उनके शिष्यों ने सेवा में उपस्थित हो यह जिज्ञासा प्रकट की कि भगवन :- अभी तक हम *भगवत्कृपा* के पात्र हुए अथवा नहीं इसकी प्रतीति कैसे हो सकती है ! इसका समाधान करते हुए आचार्यवर ने कहा :- जिसने सबसे बड़े अज्ञान एवं सबसे बड़े ज्ञान स्वरूपों का यथार्थ आंकलन कर लिया है उसका निश्चय करना बृथा न होगा कि मैं *भगवत्कृपा* का पात्र बन गया हूं ! बिना *भगवत्कृपा* के इन दोनों स्वरूपों का आंकलन असंभव है ! *३- संत श्री शठकोप स्वामी* द्वारा अनुगृहीत *सहस्त्रगीता* में व्याख्या रूप भगवद्विषय ग्रंथ में उल्लेख है ! जिसकी सत्संग में रुचि है जो सत्कार , कीर्ति और धन उपलब्ध के लिए नहीं बल्कि अपने उद्धार के उद्देश्य सत्संग करता है जिसमें आभ्यंतर वैष्णवता का विकास है उसको तत्काल यह निश्चय कर लेना चाहिए कि मैं *भगवत्कृपा* का पात्र हूं ! बिना *भगवत्कृपा* के मानव के मन में सत्संग के प्रति रुचि और अाभ्यंतर वैष्णवता का विकास नहीं होता ! *प्रबंध पारिजात* में वैष्णवता के दो प्रकार उपलब्ध है :- *१- वाह्य वैष्णवता एवं *२- अाभ्यंतर वैष्णवता*
*१- बाह्य वैष्णवता:-* तिलक , छाप , कंठी , माला आदि *वाह्य वैष्णवता* कहलाते हैं !
*२- आभ्यंतर वैष्णवता:-* दया , क्षमा , अनुसूया , शौच , अनायास , मांगल्य , अकार्पण्य , अस्पृहा --- *ये ८ आत्मगुण आभ्यंतर वैष्णवता हैं* जीवात्मा के उद्धार के लिए दोनों आवश्यक है ! किंतु *भगवत्कृपा* के बिना अाभ्यंतर वैष्णवता विकसित नहीं हो सकती है ! यह *भगवत्कृपा* के पात्रत्व की सूचिका है ! दया , क्षमा , अनुसूया , शौच आदि के स्वरूप प्रसिद्ध हैं ! *केवल अनायास के स्वरूप का विवेचन किया जाता है* उसका स्वरूप है ?
*आनुकूल्यस्य संकल्प: प्रातिकूलस्य वर्जनम्*
*अर्थात:-* प्राणियों के अनुकूल चलना एवं उनके प्रतिकूल आचरण ना करना *अनायास* है ! जो प्राणियों के सुख - दुख में उनके साथ खड़ा है परमात्मा भी उसके साथ खड़े हैं ! जिसने अपने हृदय में दूसरों को स्थान दिया है उसको परमात्मा भी अपने हृदय में स्थान देते हैं ! दूसरे शब्दों में वह *भगवत्कृपा* का पात्र है |