जो *भगवत्कृपा* पर विश्वास करके उसी पर निर्भर रहता है वह किसी काल में दुखी नहीं हो सकता ! वह तो प्रत्येक बात में भगवान का विधान समझता है और भगवान के विधान को उनकी दया से ओतप्रोत देखकर प्रफुल्लित होता रहता है ! अनेकों कष्ट आने पर भी वह यही समझता है कि मेरे नाथ ने मेरे लिए जो कुछ विधान कर दिया है वही परमकल्याणी रूप है और वास्तव में भी ऐसा ही है ! उसकी बुद्धि में यह भाव नहीं आता कि भगवान का कोई विधान कभी जीव के लिए अमंगल रूप होता है ! मंगलमय भगवान अपने अंश (जीव) का अमंगल कभी कर ही नहीं सकते ! जब कभी भी किसी के लिए दुख का विधान करते हैं तो अत्यंत ही दया के बस हो उसके कल्याणार्थ ही करते हैं ! भगवान श्री कृष्ण के बाल मित्र सुदामा को भला कौन भूल सकता है ! दरिद्रता में दिन बिताने के बाद भी उन्होंने कभी भी भगवान को कोई दोष नहीं दिया और उसे *परम भगवत्कृपा* मान करके जीवन यापन करते रहे ! पत्नी ने जब उनको भगवान श्री कृष्ण के पास सहायता के लिए भेजने का प्रयत्न किया तो उन्होंने इसको भी *भगवत्कृपा* माना , क्योंकि उनको यह लगा कि पत्नी के बहाने भगवान श्री कृष्ण हम पर कृपा करके अपना दर्शन देने के लिए बुला रहे हैं ! यथा :--
*स एवं भार्यया विप्रो बहुश: प्रार्थितो मृदु !*
*अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम् !!*
(श्रीमद्भागवत)
*अर्थात्:-* सुदामा पत्नी की प्रार्थना को सुनकर के अपने मन में विचार करते हैं कि *धन मिले चाहे ना मिले परंतु भगवत्कृपा से श्री कृष्ण का दर्शन तो हो जाएगा* और यह जीवन का बहुत बड़ा लाभ है ! भगवान पर सुदामा जी को परम विश्वास था और उस विश्वास क उनको फल भी मिला ! जिनके चरणकमल भगवती लक्ष्मी अपने कोमल हाथों से स्पर्श करते हुए चरणसेवा करती हैं वही दीनबंधु दीनानाथ *विशेष भगवत्कृपा* करके आज ब्राह्मण सुदामा के चरणों को अपने आंसुओं से धोते हैं ! यह *भगवत्कृपा* नहीं तो और क्या है ? भगवान के भरोसे जीवन व्यतीत करने वाले कष्ट भले ही पाते हैं परंतु उन पर *विशेष भगवत्कृपा* सदैव बनी रहती है ! यह *भगवत्कृपा* ही है कि:--
*तुलसी विरवा बाग के सींचत में मुरझाय !*
*राम भरोसे जे रहें, पर्वत पे हू हरियांय !!*
*अर्थात:-* तुलसीदास जी कहते हैं कि कुछ ऐसे पौधे होते हैं जो बगीचे में रहकर नित्य पानी की सिंचाई होने के बाद भी मुरझा जाते हैं , जबकि राम जी के भरोसे रहने वाले पर्वतों पर उगने वाले पौधे जिनकी देख रेख और सिंचाई करने वाला कोई नहीं है वे हमेशा हरे भरे बने रहते हैं ! ठीक उसी प्रकार अनेकों सुख - संपत्ति , ऐश्वर्य होने के बाद भी मनुष्य सुखी नहीं रहता , सुख का आनंद नहीं उठा पाता , क्योंकि वह यह समझता है कि सब कुछ मेरा बनाया हुआ है ! वहीं एक निर्धन अपनी झोपड़ी में बिना किसी भौतिक साधन के सूखी रोटी खाकर भगवान का भजन करता है और परम सुख का अनुभव करता है ! क्योंक् उसको भगवान पर भरोसा होता है कि भगवान जो कर रहे हैं हमारे लिए वह अच्छा ही है और रहेगा ! *भगवत्कृपा* भगवान पर विश्वास करने के बाद ही प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य को यह विश्वास हो जाता है कि जिस ईश्वर ने कृपा करके हमको यह मानव शरीर दिया है वह हमको जिस प्रकार रखना चाहेगा हम रहेंगे ! *हमारा अधिकार है कर्म करना कर्म के अनुसार फल मिलता रहेगा* जो इस प्रकार के विचार मन में रखता है और अनेक प्रकार के पापों से बचा रहता है वह *भगवत्कृपा* का पात्र बन जाता है !