*भगवत्कृपा* का पात्र बनने के लिए भगवान एवं उनकी कृपा पर विश्वास का होना बहुत आवश्यक है ! जब तक विश्वास नहीं होता है तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! जैसे अरुणोदय मात्र से अमावस्या की घोर निशा का नाश हो जाता है उसी प्रकार भगवान का पूर्ण विश्वास होने के पूर्व ही अर्थात थोड़े ही विश्वास से पाप ताप रूपी तम नष्ट हो जाता है ! मनुष्य तभी तक पापाचरण करता है और तभी तक संसार के विविध दुखों के दावानल में दग्ध होता रहता है जब तक उसका ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं होता ! *ईश्वर है* :- इस विश्वास से ही मनुष्य निर्विकार , नि:शंक , निर्भय और निश्चिंत हो जाता है ! भगवान पर भरोसा करने वाला पुरुष इस बात को भलीभांति जानता है कि भगवान सर्वव्यापी , सर्वशक्तिमान , परमदयालु योगक्षेमवाहक , विश्वम्भर और परम सुधी हैं ! ऐसी अवस्था में वह सब कुछ देख रहे हैं ! ऐसा विश्वास होने के कारण मनुष्य पाप नहीं करता ! पाप करने के बाद भी यदि आकंठ हो जाय तो भी यदि विश्वास है तो *भगवत्कृपा* बरसाने भगवान दौड़े चले आते हैं ! जैसे ग्राह के लिए आये थे :--
*पान के काज गयो गजराज ,*
*कुटुम्ब समेत धंस्यो जल माहीं !*
*पान कर्यो जल शीतल को ,*
*अस्नान की केलि रची तेहि ठाहीं !!*
*कोपि के ग्राह गह्यो गजराज ,*
*बुड़ाय लयो जल दीन की नाहीं !*
*जो भर सूँड़ रही जल पै तिहिं ,*
*बेरि पुकार करी हरि पाहीं !!*
पूर्ण विश्वास से जब गजराज ने भगवान की पुकार की तो भगवान एक क्षण भी बैकुंठ में नहीं रह सके और तुरंत भक्त की पुकार पर *भगवत्कृपा* बरसाने के लिए भक्तवत्सल भगवान चल पड़े ! जलाशय पर पहुंचते ही भगवान ने अद्भुत *भगवत्कृपा* की कवि ने भाव दिया :--
*दक्षिण करस्थ चक्र की कठोर ठोकर से ,*
*जल शूर ग्राह की समस्त शक्ति सो गई !*
*बाम कर कंज से संभाला है करीश पग ,*
*देखते ही विधि शंभू की भी मति खो गई !!*
*पीत पट कोने पे अंगोछते पोंछते हैं "बिंदु" ,*
*शोभा यह उर अनुराग बीज बो गई !*
*मानो ब्रजराज कहते हैं प्यारे गजराज ,*
*क्षमा करो ! टेर सुनने में देर हो गई !!*
यह भगवान की अद्भुत *भगवत्कृपा* है कि भक्त के पुकारने पर दौड़े आए और गजराज से क्षमा भी मांगी ! कि हे गजराज , क्षमा करो ! हम को आने में थोड़ा देर हो गई ! ऐसी भक्तवत्सलता कहां देखने को मिलती है और जब *गजराज ने भगवान के चरणों में शीश नवा कर कहा कि* :- हे भगवन ! आपने मेरे प्राण बचाए यह आपकी कृपा है ! तो *भगवान ने कहा* :- गजराज मैं तुम्हारे प्राण बचाने नहीं आया और ना ही अपनी प्रशंसा सुनने के लिए आया हूं ! गजराज आश्चर्यचकित होकर पूछता है भगवान तो आपके आने का क्या कारण था ? जब आप मेरे प्राण बचाने नहीं आए तो क्यों आए ? क्योंकि मैंने तो प्राण बचाने के लिए ही बुलाया था ! भगवान कहते हैं :--
*आया हूं ना अपनी प्रशंसा सुनने के लिए ,*
*आया हूं ना दीन बंधुता का मान लेने को !*
*आया हूं ना पाने के लिए शतावधान पद ,*
*आया हूं ना दु:ख की दशा का ज्ञान लेने को !!*
*आया हूं ना "बिंदु" चारु चक्र गति देखने को ,*
*आया हूं ना ग्राह से भी युद्ध ठान लेने को !*
*आया हूं ना प्राण दान देने को तुम्हें गजेंद्र ,*
*आया हूं तुम्हारा कंज पुष्प दान लेने को !!*
वाह रे भक्तवत्सल ! भगवान ने गजेंद्र से साफ कह दिया कि मैं ना तो अपने चक्र की धार देखने आया हूं , और ना ही ग्राह से युद्ध करने आया हूं , तुमने अपनी सूंड़ में जो पुष्प समर्पित करने के लिए उठाया था मैं तो वही पुष्प का दान लेने आया हूं ! इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं ! *भगवत्कृपा* एवं भगवान पर विश्वास होने पर ही भगवान को प्रकट होना पड़ता है ! ग्राह ने भगवान पर अंतिम समय में पूर्ण विश्वास किया और उस पर *भगवत्कृपा* बरस पड़ी ! भगवान स्वयं नंगे पांव चले आए ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए पूर्ण विश्वास का होना परम आवश्यक है !