डायरी दिनांक १९/०८/२०२२
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माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण आज से ५१३४ वर्ष पूर्व धरा पर अवतरित हुए थे। प्रत्येक कल्प के आठवें मन्वंतर जिसे वैवस्वत मन्वंतर के नाम से भी जाना जाता है, की २८ वीं चतुर्युगी के द्वापर के उत्तरार्द्ध में भगवान श्री कृष्ण का अवतार होता है, ऐसा पुराणों में वर्णित है।
भगवान श्री कृष्ण को भगवान विष्णु का पूर्णावतार कहा जाता है। पूर्ण का अर्थ समस्त से है। भगवान के अन्य अवतार कुछ विशेष उद्देश्य से हुए थे। उन अवतारों में धर्म के किसी स्वरूप विशेष का प्रतिपादन किया गया था। इसलिये वे पूर्ण अवतार नहीं कहे जाते हैं।
भगवान श्री राम को भी मनीषी पूर्ण अवतार कहते हैं। उन्होंने भी धर्म के विभिन्न रूपों का प्रतिपादन किया था। पर उस अवतार में भगवान श्री राम ने मर्यादा को सर्वाधिक वरीयता दी थी। इसीलिये भगवान श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।
श्री कृष्णावतार का मुख्य उद्देश्य उस सार्वभौमिक धर्म या सत्य का प्रतिपादन करना है, जिसमें किसी भी कर्म के स्वरूप की अपेक्षा उसके उद्देश्य और भावना का अधिक महत्व है। कई बार धर्म की स्थापना के लिये ऐसे कर्म भी किये जा सकते हैं, जिन्हें सामान्यतः अधर्म माना जाता है। बहुत बार धर्म लगते कर्म के पीछे भी कुछ गलत उद्देश्य हो सकता है।
भगवान श्री कृष्ण का चरित्र अति गुह्य है। उनके जीवन के सारे चित्रण इस तरह के हैं, जिन्हें आसानी से समझना संभव नहीं है। चाहे भगवान श्री कृष्ण का गोपियों के साथ प्रेम हो, चाहे उनका पांडवों के साथ संबंध हो, चाहे उनके द्वारा महाभारत के युद्ध में कूटनीति का परिचय देना हो, तथा अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में खुद के वंश के विनाश की ही भूमिका को तैयार करना हो, ज्यादातर चरित्र आसानी से समझ में नहीं आते।
भगवान श्री कृष्ण के जीवन चरित्र से मनुष्य बहुत कुछ सीख सकता है। उनका जीवन विषम परिस्थितियों को अनुकूलता में बदलने का साक्षात उदाहरण है। जन्म के समय ही उनके पिता उन्हें गोकुल छोड़ आये। गांव के गोपों के मध्य उनका बचपन बीता। बचपन से ही उन्होंने अति शक्तिशाली राक्षसों का सामना किया तथा उन्हें यमलोक भी पहुंचाया।
नंदगोप एक संपन्न गोप बताये गये हैं। जो मनुष्य खुद आगे बढकर अपना कार्य करता है, वही उन्नति प्राप्त करना है। तथा धन के मद में खुद कार्य नहीं करता है, उसकी जल्द अवनति होने लगती है। नौकरों के भरोसे काम को छोड़ना उचित नहीं है। एक संपन्न गोप परिवार के सदस्य होने पर भी श्री कृष्ण खुद गायों को वन में चराने जाते थे। गायों की सेवा खुद करते थे।
समय समय पर परंपराओं में बदलाव आवश्यक है। वैसे अधिकांश लोग परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाते। उसमें शक्तिशाली माने जाते कुछ लोग लगातार परंपरा परिवर्तन के मध्य रुकावट बनते हैं। साधारण मनुष्यों का साहस उन शक्तिशाली लोगों से उलझने का नहीं होता है।
भगवान श्री कृष्ण के जीवन का एक ऐसा चरित्र है जिसमें उन्होंने अनुपयुक्त परंपरा का आगे बढकर विरोध किया। गोवर्धन धारण की लीला में इंद्र उस शक्ति संपन्न मनुष्य का प्रतीक हैं जिसके भय से साधारण मनुष्य अनुपयुक्त परंपरा का निर्वहन करते रहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने समय की आवश्यकता के अनुसार गोवर्धन महाराज की पूजा की। जो कि उस समय की एक बड़ी क्रांति मानी जा सकती है।
भगवान श्री कृष्ण और गोपियों के मध्य का प्रेम एक आध्यात्मिक प्रेम था, जिसकी अधिक गहराई से व्याख्या करने की आवश्यकता है। वैसे भी गोपियों को उनके श्री कृष्ण के साथ मिलन का आशीर्वाद माता कात्यायनी ने दिया था। फिर गोपियों और श्री कृष्ण का मिलन नहीं हो पाया, ऐसी धारणा पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
भगवान श्री कृष्ण के चरित्र की सबसे बड़ी बात उनके द्वारा मित्रता का निर्वहन करना कहा जा सकता है। बचपन में निर्धन वर्ग के मित्रों के लिये अपने तथा दूसरे संपन्न गोपों के घरों से माखन चोरी की लीला की। महर्षि सांदीपनि से विद्या गृहण करते समय एक निर्धन ब्राह्मण सुदामा के साथ मित्रता की तो द्वारिकाधीश होने के उपरांत भी उस मित्रता का निर्वाह किया। पांडवों में अर्जुन के साथ श्री कृष्ण की मित्रता थी तो अर्जुन के रथ के सारथी भी बन गये। वैसे मन रूपी रथ के इंद्रियाँ रूपी अश्व बताये हैं। आत्मा रूपी सारथी द्वारा उस रथ का संचालन किया जाता है। इंद्रिय रूपी अश्व बहुत हठी होते हैं। आसानी से सारथी के वश में नहीं आते। पर जब मन रूपी रथ की बागडोर ही ईश्वर के हाथों में सौंप दी जाती है, फिर इंद्रियां भी वश में रहती हैं।
महाभारत के द्रोण पर्व में एक प्रसंग है। जयद्रथ को अभिमन्यु वध का कारण मान अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व उन्होंने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह स्वयं अग्नि में प्रवेश कर अपने प्राण दे देंगें। उस समय एक अनोखा प्रसंग लिखा है। रात्रि काल में जब सभी पांडव वीर शयन कर रहे थे, श्री कृष्ण ने अपने सारथी दारुक को अपने पास बुलाया। भगवान श्री कृष्ण ने अपने मन के उद्गार दारुक के समक्ष इस प्रकार व्यक्त किये।
" मित्र दारुक। अर्जुन ने आवेश में आकर ऐसी प्रतिज्ञा कर ली है, जिसका पूर्ण होना लगभग असंभव ही है। कौरव पक्ष में गुरु द्रोण, कर्ण के अतिरिक्त भी बड़े बड़े महारथी वीर हैं। सभी कोशिश यही करेंगें कि अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके। पर अर्जुन मेरा मित्र है। इसलिये उसकी प्रतिज्ञा पूरी होनी चाहिये। मेरी यही कोशिश रहेगी। फिर भी यदि किसी कारण से अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाया तो मैं सारी मर्यादाओं का बंधन तोड़ दूंगा। जिस चिता में अर्जुन अपने प्राण देंगें, उस चिता की अग्नि शांत होने से पूर्व ही मैं अर्जुन के सभी शत्रुओं का अकेले ही वध कर दूंगा और फिर मैं भी उसी अग्नि में अपने प्राण त्याग दूंगा।
मित्र। वैसे तो आवश्यकता नहीं पड़ेगी। फिर भी आप आज रात ही मेरा गरुड़ध्वज रथ तैयार कर लो। मेरे सारे अमोघ अस्त्र उस रथ में रख लो। अश्वों को नहला धुलाकर और भोजन कराकर तैयार रखना। मैरे पांचजन्य की ध्वनि पर ध्यान रखना। जैसे ही मेरे पांचजन्य की तुमुल ध्वनि (एक विशेष ध्वनि जिससे श्री कृष्ण अपने परिचितों को संकेत देते थे) सुनाई दे, तुरंत अस्त्र शस्त्रों से युक्त उस रथ को लेकर मेरे पास आ जाना। "
अधिकांश लोग महाभारत के पात्रों में मित्रता के आदर्श के रूप में कर्ण का नाम लेते हैं जिसने मित्रता के लिये अपने प्राण भी दाव पर लगा दिये। पर श्री कृष्ण की मित्रता के समक्ष कर्ण की मित्रता कहीं भी नहीं टिकती। श्री कृष्ण की अर्जुन से मित्रता निस्वार्थ थी। पांडवों से उनकी जितनी नजदीकी रिश्तेदारी थी, कौरवों से भी उतनी ही नजदीकी रिश्तेदारी थी। अर्जुन से मित्रता कर श्री कृष्ण ने कभी भी अपना कोई मतलब हल नहीं किया जबकि दुर्योधन से मित्रता कर कर्ण को संपन्नता से जीवन जीने का अवसर मिला। श्री कृष्ण ने कभी भी अपने मित्र अर्जुन को आपत्ति में अकेला नहीं छोड़ा, वहीं महाभारत की कथाओं के जानकार जानते हैं कि कर्ण अपने मित्र दुर्योधन को गंधर्वों के मध्य अकेला छोड़ भाग आया था। तथा विराट युद्ध में भी वह दुर्योधन को असहाय छोड़ भाग गया था।
भगवान श्री कृष्ण की मित्रता के उदाहरण के रूप में सुदामा और अर्जुन की कथाएँ सुनाई जाती हैं। पर श्री कृष्ण की मित्रता का सबसे बड़ा उदाहरण पांडवों की पत्नी द्रोपदी के साथ उनकी मित्रता थी। विभिन्न धर्म ग्रंथों और महाभारत में भी उल्लेख है कि द्रोपदी ने श्री कृष्ण को अपना सखा माना था तथा श्री कृष्ण भी याज्ञसेनी को अपनी सखी ही कहते थे। जब द्रोपदी के पांचों वीर पति उसके सम्मान की रक्षा नहीं कर पाये तब द्रोपदी के सखा श्री कृष्ण ने ही उनके सम्मान की रक्षा की थी।
धन की अधिकता किसी भी धार्मिक व्यक्ति के मन को भी भ्रमित कर देती है। संवर्तक मणि के लोभ में कितने ही यादव वीरों, जिनमें से अक्रूर जी तो परम भक्त कहे जाते हैं, का आध्यात्मिक पतन हुआ। यह कथा दर्शाती है कि अधिक धन की अभिलाषा उन लोगों को भी दिग्भ्रमित कर देती है, जिनपर धर्म की रक्षा का भार होता है।
संस्कारों के अतिरिक्त संगति किसी के भी जीवन में गहरा प्रभाव डालती है। खुद भगवान विष्णु के अवतार रहे भगवान श्री कृष्ण और भगवान श्री राम के परम भक्त जामवंत जी की पुत्री माता जामवंती के पुत्र सांब किस तरह कुसंगति का शिकार हुए, भगवान श्री कृष्ण द्वारा समझाने और दंडस्वरूप कोढी होने का श्राप पाकर भी सद्विचारों को धारण नहीं कर पाये। कथा के अनुसार कोढ होने पर उन्हें अपने पूर्व विचारों पर पश्चाताप हुआ था। फिर भगवान श्री कृष्ण की सलाह से सांब ने भगवान सूर्य की उपासना कर कोढ से मुक्ति पायी थी। माना जाता है कि सांब ने जिस स्थान पर भगवान सूर्य की उपासना की थी, वहीं कौणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। कुसंगति बार बार अपना प्रभाव छोड़ती है। बाद में सांब और उनके अशिष्ट मित्रों के कारण ही महर्षि दुर्वासा का श्राप यादव कुल पर लगा जिसके कारण यादव वीरों का संहार हुआ। वैसे महर्षि दुर्वासा से पूर्व देवी गांधारी ने भी यदुवंश के नाश का श्राप भगवान श्री कृष्ण को दिया था।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।