गतांक से आगे:-
जोगिंदर जैसे ही अपने कमरे के दरवाजे के पास आया तो हैरान रह गया।वह शायद जब कमरे से बाहर गया था तब भी वो चीज वही रखी होगी पर उस पायल की आवाज का पीछा करते करते वह हड़बड़ी मे देखना भूल गया।
उसने देखा एक सुर्ख लाल गुलाब का फूल उसके दरवाजे के आगे रखा था।वह भौंचक्का सा उसे देखता रहा फिर सोचा ये यहां कौन रख गया।उसने गुलाब का फूल उठाया और कमरे मे ले आया और दरवाजा बंद करके अपने पलंग पर बैठ गया और मन ही मन सोचने लगा कि ये किस का काम हो सकता है ।मेरी या नरेंद्र की अभी किसी से कोई जान पहचान भी नही हुई है ज्यादा बस नोबीन और कमल से ही हुई है ।फिर ये लाल गुलाब कौन रख गया दरवाजे पर ।ऐसा भी नही है कि हममे से कोई दिलफेंक आशिक ही हो।मै तो रमनी के सिवा किसी और को अपने ख्वाबों में भी नही सोच सकता। नरेंद्र का मुझे पता है ही वो तो गांव मे भी लड़कियों से दूर भागता था । दिलफेंक आशिक बनने का सवाल ही पैदा नही होता उसका ।फिर ये कौन रख गया।
उसे एक बारगी लगा हो सकता है ये कमल थोड़ा मसखरे स्वभाव का है और वो डराने की बातें भी कर रहा था कही उसका काम तो नही है ये।
जोगिंदर सोचता सोचता सो गया वह भी थका हुआ था और उसका भी कल कालेज का पहला दिन था।
रात देर से सोने से जोगिंदर अगले दिन देर तक सोता रहा।अगर नरेंद्र झिंझोड़कर ना उठाता तो शायद देर तक सोता रहता।
जैसे ही जोगिंदर उठा उसका ध्यान तुरंत टेबल पर रखे गुलाब पर गया जो उसने रात रखा था पर घोर आश्चर्य वो वहां था ही नही।वह जोर से उछलकर बैठा और बोला,"वो कहां गया?"
अब चौंकने की बारी नरेंद्र की थी वह बोला,"कौन और क्या कहां गया ।"
जोगिंदर का सिर घुमने लगा ।उसने नरेंद्र को रात वाली सारी बात बताई कि किस तरह वह पायल की आवाज का पीछा करते हुए उस कमरे तक गया वहां उसे एक औरत की परछाईं दिखी लेकिन वो बंद दरवाजे के अंदर कैसे गयी ये एक पहेली ही बन गयी उसके लिए । लेकिन जब वो वापस आपने कमरे के दरवाजे के पास आया तो उसे एक ताजा लाल गुलाब दरवाजे पर रखा मिला।वो उसे कमरे मे भी उठा लाया था पर घोर आश्चर्य वो अब वहां नही है जहां उसने रात रखा था।
नरेंद्र बोला,"भाई मै देख रहा हूं ।तू इस विषय मे कुछ ज्यादा ही सोच रहा है ।एक तो लोग बात का बतंगड़ बना देते है ।दूसरा तू भावुक ज्यादा है ।तू इतना मत सोच ।अगर ऐसे सोचता रहा तो तू पढ़ेगा कैसे ?"
अब तो जोगिंदर को भी लगने लगा था कि वो ऐसे ही व्यर्थ की बातों मे उलझ कर अपना पढ़ाई पर से ध्यान हटा रहा है।वो भी फटाफट नित्य कर्म से निवृत्त होकर तैयार हो गया । नरेंद्र की क्लास आठ बजे की थी जोगिंदर भी बोला,"भाई मै भी तुम्हारे साथ चलता हूं। यहां अकेला रहूंगा तो फिर से वो सब सोचने लगूंगा।"
वैसे नरेंद्र जो काम कार्यान्वित करना चाहता था वो तो भगवान की कृपा से अपने आप ही हो रहा था। जोगिंदर के चाचा ताऊ ने उसका एडमिशन शहर मे इसी शर्त पर करवाया था कि वो जोगिंदर को शहर मे किसी ना किसी चीज मे उलझाकर रखेगा।
वैसे उसने भी यही सोचा था कि शहर मे किसी लड़की को जो पैसे के लालच मे आ जाएगी उसे इसके पीछे लगा दूंगा ताकि ये उसी मे उलझा रहे और गांव ना जा सके।
पर वह सतर्कता से काम ले रहा था अगर जोगिंदर को जरा भी भान हो जाता तो सारा खेल बिगड़ सकता था।
वे दोनों कालेज पहुंच गये।
बड़ा ही सुन्दर परिसर था महाविद्यालय का । चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी।तरह तरह के फूल बगीचों मे खिले थे।कमरे भी बड़े बड़े हवादार थे। दोनों का चित प्रसन्न हो गया।
जोगिंदर की क्लास लगने मे अभी समय था इसलिए वह लाइब्रेरी मे जाकर बैठ गया।वह अपने साथ वही रात वाली किताब ले आया जो उसने नोबीन से ली थी।सोचा जब तक क्लास लगेगी तब तक उसे ही पढ़ लेगा क्योंकि रात को उसे किताब मे उस होस्टल रूपी महल का फोटो तो मिल गया था लेकिन वह पढ़ नही पाया कि उस महल का इतिहास और उसमे बसने वाले राजघराने के विषय मे।
"उज्जैन सही मायने मे मंदिरों की नगरी है यहां महाकाल का राज है । वैसे उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिकापुरी, उज्जैनी, कनकश्रृंगा था।
यह शिप्रा नदी के किनारे बसा है।वैसे बहुत से राजघराने हुए है यहां पर एक ऐसा भी राजघराना था जो ज्यादा प्रसिद्ध नही था ।राजा पदमसेन का राजघराना । उनको उम्र के चालीस बसंत पार हो गये थे पर संतान का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ था। बहुत से तीर्थ करे । मन्नतें मांगी ।पर कही भी अरदास कबूल ना हुई ।
एक दिन रानी रूपावती अपने महल के झरोखे मे बैठी थी सामने राजमार्ग पर एक औरत अपने बच्चे को दुलार रही थी जिसे देखकर रानी की आंखों से आंसू बह चले जैसे ही उनके आंसू टपक कर झरोखे से नीचे गिरे। वहां एक साधू विश्राम कर रहा था वो आंसू की बूंदें उनके चेहरे पर गिरी ।उसने उठकर उपर देखा तो पाया रानी की आंखों से आंसूओं की धार बह रही थी।साधू ने महल मे अलख लगाया।रानी ने जब साधू की आवाज सुनी तो अतिथि स्वागत के लिए वो स्वयं पधारी।
साधू ने रानी को देखकर कहा,"देवी तुम्हारा मुख मलिन क्यों है । क्या दुख है तुम्हें ? "
रानी ने साधू की चरण वंदना करके कहा ,"महाराज मेरे दुख का क्या अंत है । विवाह को इतने साल हो गये पर मातृत्व का सुख अभी तक नही मिला हमें।"
इतने मे दासियां अतिथि के लिए भोजन ले आई।साधू ने भरपेट भोजन किया और थाली को प्रणाम कर उठ गया और चलते हुए अपनी झोली से एक फल निकाल कर रानी को दे दिया और बोला,"रानी आज पूर्णिमा है तुम इसे चांद की चांदनी मे बैठकर खा लेना । भगवान ने चाहा तो नौवें महीने तुम्हारी गोदी मे चांद सा पुत्र खेलेगा।"
रानी की प्रसन्नता का कोई ओर छोर नही था उसने साधू को चरण वंदना करके उन्हें दान दक्षिणा देकर विदा किया।
रानी ने उसी रात वो फल चांद की चांदनी मे बैठकर खा लिया। मन मे पूर्ण विश्वास था कि महात्मा का वचन झूठा नही हो सकता।
(क्रमशः)