दिनांक :4.2.2022
समय : शाम 7:30 बजे
प्रिय डायरी जी
ये सप्ताह इतना बिजी रहा कि क्या बताऊँ! तुमसे भी अच्छे से बात नहीं हो पाई।
आफिस में यह एक एक्ट के रूल्स बनाने में निकल गया। सारा दिन मीटिंग होती है। मैं तो फिर भी समय से घर आ जाती हूँ, पर अन्य अधिकारी देर रात 10-10:30 बजे तक आफिस में ही रहते हैं।
मेरी "राम वही जो सिया मन भाये" अभी पब्लिश नहीं हो पाई है। यह कहानी मेरे दिल के बहुत करीब है। कुछ लोगों ने अंदाजा भी लगा लिया था। विस्तार से किसी और दिन बताउंगी। यह मेरी पूर्ण होने वाली पहली लंबी कहानी/नावेल होगी। हालांकि मैंने 'वो अनमनी सी लड़की' पहले शुरू की थी पर जब यह कहानी लिखनी शुरू की तो उसके लिए टाइम नहीं निकाल पाई। रिजल्ट तो प्रतिलिपि टीम जाने, बस एक दिली ख्वाईश है कि जो रचनाएँ विशेषकर अवार्ड/ पुरस्कार के लिए लिखी जाती हैं उन्हें एक पहचान (रिकॉग्निशन) मिलना तो बनता है। क्योंकि एक एप की पहचान लेखकों की मेहनत की वजह से ही होती है।
सखी तुम गवाह हो, कि आजकल मेरे पूरे 16 घंटे काम करते हुए ही व्यतीत हो रहें हैं। सुबह घर पर, फिर आफिस में, कभी-कभी मंत्रालय में, फिर घर में और फिर प्रतिलिपी पर लेखन। थकान भी हो जाती है पर जब पाठकों की समीक्षाएँ पढ़ती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मेरी मेहनत सफल रही। लेकिन समीक्षा तो एक-दो ही होती हैं। मैं स्वयं भी ज्यादा समय नहीं दे पा रही हूँ। पर एक बात मन को कभी-कभी कचोटती है जिसका जिक्र फिर कभी करूँगी । सुधा नारायण मूर्ति जी ने एक बार कहा था कि कभी भी कोई काम फ़्री में मत करो। ख़ैर! आगे देखते हैं क्या होता है।
और सबसे जरूरी बात जो पाठक हैं ना, वो ही लेखकों के लिए टॉनिक का काम करते हैं। अगर पाठक रचना पढ़ेंगे नहीं और अपनी समीक्षा देंगे नहीं तो लेखक के लिखने का कोई मकसद नहीं रह जायेगा। इसलिए पाठकों के लिए भी कुछ सोचना चाहिए। जैसे जो ज्यादा रचनाएँ पढ़ेगा उसके वॉलेट में हर माह 30 रुपये आयेंगें।
अब दो दिन छुट्टी है, आफिस की, तो थोड़ा रिलैक्स फील हो रहा है।
बाकी की बातें कल करेंगे।
शुभरात्रि
तुम्हारी सखी,
गीता