दिनांक : 09.02.2022
समय : रात 11 बजे
प्रिय सखी,
मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रबहुसु दसरथ अजर बिहारी।
होइ है वही जो राम रच राखा,
को करे तरफ़ बढ़ाए साखा।॥
धीरज धरम मित्र अरु नारी,
आपद काल परखिये चारी।।
पता नहीं यहां नारी शब्द का प्रयोग तुलसीदास जी ने तुकबंदी के लिए किया है या अपने अनुभवों से ऐसा लिखा है या नारी को सेवा करने के लिए प्रेरित करने के लिए लिखा है। जो भी है, सोच -विचार कर ही लिखा है, धार्मिक ग्रंथ के कई मायने होते हैं, हम मंदबुध्दि वहां तक नहीं पहुंच पाते। पर में सोचती हूँ, नारी तो हमेशा सेवा करती ही है, ये उसे घुट्टी में मिला होता है।
बचपन में खाना मनपसन्द न हो तो माँ कई और ऑप्शन देतीं हैं। "पराठा खा लो, अच्छा पनीर की भुजिया बना देती हूँ, चलो! अच्छा दूध-रोटी ही खा लो ।" बचपन में माँ नखरे सहती थी, इसलिए हम नखरे करते भी थे।
लेकिन बाद में किसी ने इस तरह लाड़ दिखाया ही नहीं। हम सब भी अपने आप सब कुछ खाने लगीं। फिर बच्चों और पति, सास ससुर के नखरे पूरे करने लगी।
कुछ सालों बाद पति भी बच्चा हो जाता है, कब उस पर भी दुलार बरसने लगता है... पता ही नहीं चलता। ये खालो, दवाई खालो, ये शर्ट पहन लो, उनके सिर में तेल भी लग जाता है।
लड़कों के जीवन में कई माँए आती हैं, पहले मां, फिर बहन भी माँ हो जाती है, पत्नी तो होती ही है। बुढ़ापे में बेटियाँ भी, एक उम्र के बाद बूढ़े पिता की माँ ही बन जाती हैं।
लेकिन लड़कियों के पास जीवन में केवल एक ही माँ होती है.
बड़े होने के बाद उसे दोबारा कोई माँ नहीं मिलती, वो लाड़- दुलार, नखरे, दोबारा कभी नहीं आते।
मैं कोशिश करती हूँ कभी-कभी अपनी मम्मी की माँ बनने की, पर डांट ही मिलती है, "वहाँ भी लगी रहती है, यहां भी आकर लग जाती है, तू बैठ मैं चाय बनाती हूँ, इतनी बड़ी हो गई चाय बनानी नहीं आई। तेरी चाय में चीनी तो होती ही नहीं।"
पर मैं जानती हूँ वो ऐसा क्यों कहती हैं, माँ हैं ना!
गीता भदौरिया