दिनाँक : 02.2.2022
समय : रात 8:35 बजे
प्रिय डायरी जी,
कुछ दिनों से में झाड़ू ढूंढ रहीं हूँ।
नहीं! नहीं! 'आप' की झाड़ू की बात नहीं कर रहीं हूँ। मैं बात कर रही हूँ, आप की झाड़ू की। 7 साल पहले हर हाथ और हर गली मोहल्ले में झाड़ू थमाई गई थी। घर, आफिस और सड़के चमचमा रहीं थी। 2 अकटुबर को सारे आफिस झाड़ू झड़ना से गुलजार थे। कविता और भाषण सुने सुनाए जा रहे थे। हमने भी एक मिनट में कविता लिख डाली थी-
स्वच्छता हमारी आदत हो
औे' जन -जन की जिम्मेदारी हो,
छोडो आदर्श कि बातें अब,
स्वजन ही बलिहारी हो ।।
बीते दिन प्लास्टिक पॉलीथीन के,
हाथ में झाड़न - झाड़ू हो,
सीमा पर सैनिक है डटा,
घर में शान हमारी हो।।
बहुत हुई चर्चा - परिचर्चाएं,
अभियान को "पाक" न बनायें हम,
स्वच्छता अभियान में सहयोग कर
कुछ तो पुण्य कमाएं हम।।
स्वच्छता हमारी आदत हो
न कि जिम्मेदारी हो,
छोडो आदर्श कि बातें अब,
जन - जन ही बलिहारी हो ।।
पर अब हमारी झाड़ू खो गई है। आपको मिली हो तो वापिस कर दो प्लीज!
झाड़ू लक्ष्मी होती है। खोई और मिली हुई, दोनो लक्ष्मी बढिया नहीं होती। 🤸🤸🤸🤸🤸🤸🤸
- गीता भदौरिया