थे वे नादान परिंदे
समझ नहीं थी जिनको खतरे और सुरक्षा की ।
बनाया घोंसला उन्होंने पंखे पर।
ट्यूबलाइट पर ।
और खिड़की पर
पेड़ की डाल पर ।
थोड़े दिन सब ठीक चला ।
1 दिन की बात है मौसम बदला।
पंखा चला ।
किसी ने दिया नहीं ध्यान।
घोसला जमीन पर धड़ाम
अंदर थे 4 अंडे ।
सब टूट बिखर गए। सब बहुत दुखी हुऐ
मगर क्या करते ।
हैं परिंदे नादान नहीं समझते अपनी सुरक्षा।
कहां घोंसला बनाए।
कहां रहे सभी जगह के घोसलों का हुआ यही हाल।
मगर नादान परिंदों को फिर भी अकल ना आई।
हर साल वापस वहीं घोसले बनाते। और इसी तरह टूट कर बिखर जाते ।
स्वरचित पंक्तियां 2 नवंबर 21