पुष्प और बेटी की अभिलाषा,
एक जैसी होती है।
वो खिलती है हमेशा दूसरों के,
लिए।
और वो टूटती और झुकाती भी,
है हमेशा दूसरों की,
ख़ुशी के लिए।
जैसे पुष्प की अपनी मनमर्जी,
नही चलती है।
वैसे ही बेटियों की भी हालत,
कुछ कुछ वैसी ही,
होती है।
पुष्प भी डाली से टूट कर,
किसी के गले का हार बन,
जाती है।
बेटियां भी अपने बाबुल के,
आँगन को छोड़ कर,
किसी के घर की,
शोभा बन जाती है।
पुष्प का दर्द कोई नही समझता,
है न कोई पूछता है की,
की डाली से टूट कर बिखर,
जाने पे कैसा लगता है।
वैसे ही बटेयों का दर्द कोई,
नही समझता है की,
अपने आँगन को छोड़ कर जब,
वो जाती है।
तो कैसा उसे लगता है।
पुष्प भी खिल कर अपना,
वजूद खो देती है खुशबु,
बन कर।
वैसे ही बेटियां भी खिलखिला,
कर चहक कर।
अपने आँगन को सुना करके,
दूसरों की आँगन में गुम,
हो जाती है।
पुष्प और बेटी की यही अभिलाषा,
होती होगी कोई उसे न तोरे कोई,
उसे रोंदे।
काश ऐसा हो जाता तो कितना,
अच्छा होता।