शोख अदाओं के खंजर से कैसे दिल को संभाला है
न जाने क्या सोचकर इश्क का रोग दिल ने पाला है
जबसे चखा है इन तीखे नयनों का खारा सा नमक
तेरी कसम गले से उतरता नहीं कोई भी निवाला है
न जाने कब तू मेरे ख्वाबों में आ जाये, यही सोचकर
घर की हर खिड़की और दरवाजा मैंने खोल डाला है
तन्हाइयों को बांहों में समेटे सोने की कोशिश करते हैं
दुश्मन नींद ने भी आज न जाने कब का बैर निकाला है
लचकते बदन की महक ने जिंदा रखा है अब तक "हरि"
वरना तो इस बेदर्द जमाने ने कब का हमें मार डाला है
हरिशंकर गोयल "हरि"
3.5.22