वो भी क्या दिन थे
जब कॉलेज के पीछे
दूर दूर तक फैले जंगल में
मैं तुम्हारा इंतजार करता था
और फिर मेरे साथ होती थीं
मेरी बेचैनियां, बेताबियाँ और तुम ।
वो नजारा बड़ा खूबसूरत होता था
जब इन बेचैनियों को देखकर
बरबस मुस्कुरा उठती थीं
ये फिजाएं, ये हवाएं और तुम
और फिर तुम लाख जतन करती थीं
मुझे मनाने के, रिझाने के, सताने के
लेकिन मैं दिखावटी गुस्से के साथ
दूर दूर रहा करता था तब
मेरी खुशामद में बिछ जाया करती थी
ये कायनात, ये जजबात और तुम ।
तुम अपने साथ लेकर आती थीं
चुराये हुए कुछ हसीन लम्हे,
शोख अदाओं का बना हुआ गुलदस्ता
मुस्कानों से बिखराया हुआ जादू
आंचल से उड़ने वाली महक, लहक
मेहरबानियों के उजाले, पिटारे
अपनी बांहों का हार, श्रंगार, इकरार
और तब मेरी मुस्कुराहट से खिल उठता था
तुम्हारा बदन, दिल की धड़कन और तुम ।
और तब उस जंगल में भी मंगल होता था
हर दरख्त अपनी लता से प्रेमालाप करता था
गुल बुलबुल की खुशामदें करने लगता था
भंवरा कलियों पर मंडराने लगता था
मौसम में रवानी सी छा जाती थीं
तुम्हारे मदभरे नैनों से मय और छलक जाती थी
लबों पर लाज का पहरा टूट जाया करता था
और वे "जुड़ने" को आतुर हो जाया करते थे
तब प्यार के अथाह सागर में डूब जाया करते थे
मैं, मेरी मुहब्बत, मेरी वफाएं, दीवानगी और तुम ।
और घंटों हम ऐसे ही बैठा करते थे
मैं तुम्हारे नैनों में डूब जाया करता था
तुम मेरी बांहों में झूल जाया करती थीं
तब ना कुछ तुम बोलती थीं और ना मैं
तब वहां मौजूद होती थीं
खामोशियाँ, सरगोशियां और तुम ।
एक एक पल एक युग जैसा होता था
मेरे आगोश में तुम्हारा मदमस्त हुस्न होता था
तब खयालातों की दुनिया आबाद हुआ करती थी
सवालातों में ही घड़ी बीत जाया करती थीं
तुम्हारी जुल्फों को उलझाने में मजा आता था
तुम्हें हर वक्त सताने में मजा आता था
और फिर तुम अपनी आंखों से बरजने लगती थीं
और मैं उस मासूम चेहरे पर मर मिटता था
तब मेरी हो जाया करती थीं
तुम्हारी मुस्कुराहटें, तुम्हारी जिंदगी और तुम ।
हरि शंकर गोयल "हरि"
11.4.2022