धानी चुनर ओढ़ प्रकृति शिवजी को रिझाने लगी है
हवा भी बादलों के साथ प्रेम गीत गुनगुनाने लगी है
सावन में बारिश की बूंदें दिल में प्रीत जगाने लगी है
पिया मिलन को आतुर गोरी ऐसे में अकुलाने लगी है
दिल में अनजानी सी कोई चोट उभर आई है
सावन की काली घटा ने ये कैसी आग लगाई है
मदमस्त होकर मयूर ने पीहू पीहू की रट लगाई है
सखि, इस जुदाई से तो नन्ही सी जान पे बन आई है
काजल की कोर आंखों से नाराज होकर चुप सी है
होठों पे लाली तो सजी है मगर वह खामोश सी है
कंगन और चूड़ी ने बजना छनछनाना छोड़ दिया है
बिंदिया की जगमग बिन साजन के बुझी बुझी सी है
निढाल सी बांहें आगोश में जाने को बेकरार हो रही हैं
तरसती निगाहें कब से प्रियतम का इंतजार कर रही हैं
मिलन के कितने हसीन अरमान सजाए बैठा है ये दिल
फूलों की सेज कांटों की तरह बदन में नश्तर पिरो रही है
श्री हरि
29.7.22