मुझे आज भी याद आती है
वो हमारी अंतिम मुलाकात
सावन का सुहाना महीना था
और थी शीतल सी चांद रात
चंबल का जल ठहरा हुआ था
जैसे किसी का पहरा हुआ था
आसमान भी बड़ा खामोश था
बहारों को भी कहाँ होश था ।
तुम्हारी जुल्फें बिखरी हुईं थीं
चेहरे पर लकीरें उकरी हुईं थीं
खुद से ही नाराज लग रही थीं
तबीयत से नासाज लग रही थीं
आंखों में विद्रोह की चिंगारियां थी
होठों पर जमाने की दुश्वारियां थी
आवेश से बदन थरथरा रहा था
गला भी क्षोभ से भरभरा रहा था
तुम लगातार मुझे देखे जा रही थीं
शायद आखिरी दुआएं लेके जा रही थीं
मैं स्थिर सा खड़ा कुछ कह ना सका
तुम्हें आगोश में लिए बिन रह ना सका
मेरे कंधे से लगकर तुम खूब रोई थी
रो रोकर अपनी आंखें खूब सुजोई थी
दिल की धड़कनें बात कर रही थीं
मुहब्बत की इंतहा जजबात भर रही थी
मेरे प्रेम पत्र सब लौटा दिए थे तुमने
सूखा गुलाब का फूल भी बिखरा दिया था तुमने
वो हर सामान जो दिया था तुमको मैंने
वो सब कुछ लौटा दिया था तुमने ।
पर तुम चाहकर भी लौटा नहीं पाईं
आंखों की वो सरगोशियां जो तैरती थीं
हमारे मिलने पर तुम्हारी आंखों में
वो मनमोहक मुस्कान जो थिरक जाती थी
मुझे देखकर बरबस तुम्हारे लबों पर ।
वो अंगडाई जो प्यार के अतिरेक में
तुम लेती थीं और चिपट जाती थीं मुझसे
वो चुलबुलापन जो मेरी बातों से
छलक पड़ता था तुम्हारे अंग अंग से ।
वो मदभरी शामें जो बिताई थीं हमने
वो जजबाती रातें जो गुजारी थीं तारों के तले
वो रेशमी दुपट्टे की महक के कण
जो बिखरे पड़े हैं इन दरख्तों के बीच ।
तुम क्या क्या लौटा सकती हो ?
वो सपने जो हम दोनों ने मिलकर देखे थे ?
वो प्लान जो हमने मिलकर बनाये थे ?
वो तराने जो हमने मिलकर गाये थे ?
मेरी सांसों की महक क्या लौटा पाओगी ?
तुम्हारे लबों पे जो चिपकी हुई हैं
मेरे लबों की गुस्ताखियाँ
क्या कभी उन्हें वापस कर पाओगी ?
ये सब पुरानी चीजें लेकर
तुम नया जीवन कैसे आरंभ करोगी
अपने दिल पर लिखा मेरा नाम
किस "इरेजर" से मिटा पाओगी ?
अगर ऐसा कर पाओ तो
मुझे बताने जरूर आना एक दिन
तब शायद वो हमारी अंतिम मुलाकात होगी
मैं इंतजार करूंगा तुम्हारा, मरते दम तक ।
हरि शंकर गोयल "हरि"
13.4.22