मेरे अंगने में बिखरी पड़ी हैं
स्वर्ण रश्मियां, तुम्हारी मुस्कानों की
इनसे खिला खिला रहता है
मेरे दिल का मन उपवन
यहां दिन भर बरसता है
तुम्हारी इनायतों का सावन
जिनमें भीग जाता है सब कुछ
इस अंगने में महकते हैं प्रसून
हमारी मोहब्बतों के
और बसी हुई है खुशबू
हमारी वफा की, विश्वास की
इस आंगन में रोपा था हमने
एक नन्हा सा पौधा आशा का
वह आज विशाल वृक्ष बन गया है
इसकी प्राणवायु से सब पाते हैं जीवन
इसमें बसेरा है उमंगों का खुशियों का
यहां अठखेलियां करती हैं भावनाएं
दरो दीवारों से चिपके हुए हैं अहसास
तुम्हारी छुअन के रंग रोगन से
चमक रहे हैं झरोखे , दरवाजे
तुम हो तो ये आंगन भी
जिंदा सा रहता है
नहीं तो पड़ा रहता है निस्तेज
मेरा घर आंगन ही नहीं
मेरी सारी दुनिया ही तुमसे है
सिर्फ तुमसे ।
श्री हरि
9.7.22