✍️विचित्र सी है ये दुनिया और विचित्र हैं इसके रीति-रिवाज या, यूं कहो ढोंगी आडंबर। जहां लोग इंसान के जन्म, विवाह, आदि अनेकों उत्सवों को जिस हर्षोल्लास से मनाते हैं वो तो समझ आता है। परन्तु किसी वृद्ध की मृत्यु के सभी क्रियाक्रमों को एक जश्न या उत्सव का रूप देना ये समझ नहीं आता। आखिर! किन वेद, पुराणों, आदि ग्रंथों में इनका उल्लेख वर्णित किया गया है।
वहीं किसी किशोर या बालक की मृत्यु पर मातम मनाया जाता है तथा चहुंओर शोक का वातावरण व मायुसी छाईं रहती है।
क्या घर के किसी वृद्ध ( नींव का उखड़ जाना) का इस संसार से प्रस्थान कर जाना, किसी हर्ष का कारण हो सकता है।
ऐसा क्यों होता है? जबकि हम सब इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि हर सजीव व निर्जीव का आदि और अंत निश्चित है। जो आया है सो जायेगा भी । इंसान जीते जी तो भेदभाव की नीति अपनाता ही है फिर अंत होने के पश्चात भी ये भेदभाव, झूठा आडंबर क्यों और किसके लिए? जो पंच तत्व में विलीन हो अपनी आत्मा के साथ किसी अन्य रुप को ग्रहण कर चुका होता है और उसके पुनर्जन्म का हमें तनिक भी अहसास नहीं होता।
जब ईश्वर मनुष्य के सभी अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब रखते हैं और उसी के अनुसार उसे जीवन-मरण का वरदान प्रदान करते हैं तो हम विधाता के विधि विधान में उंगली / टांग ( ढोंग, दिखावा) करने वाले कौन होते हैं आखिर हम भी तो उस ईश्वर की ही संतान हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम अपनी परंपराओं के अनुरूप अपनी खुशी तथा विलाप, वेदनाओ को उतनी श्रद्धा से उजागर नहीं कर पाते जो असल रूप में हमारी संस्कृति की देन है, बल्कि हम उस चकाचौंध, दिखावटी व बनावटी परंपराओं के प्रति ज्यादा उत्तेजित व उत्साहित रहते हैं जो पूर्ण रूप से पाश्चात्य संस्कृति से सराबोर है और जो पूर्ण तौर पर भारतीय संस्कृति पर हावी हो चुकी है।
आज पाश्चात्य संस्कृति ने अपना रूप परिवर्तित कर भारतीय संस्कृति को अपने आगोश में समेट रखा है अर्थात यह कहना गलत नहीं होगा कि पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति में प्रवेश कर (घुलमिलकर) भारतीयों को अपने रंग में पूर्ण रूप से रंग चुकी है।🙏