लखनऊ- गंगा के किनारे बसा उन्नाव जिला आज जल प्रदूषण से किस कदर जूझ रहा है कि जिले के अधिकांश भाग के जलस्तर में क्रोमियम और फास्फोरस घर बना चुका है। पानी जहरीला बन चुका है जबकि प्रशासन कारगर कदम उठाने की जगह शायद मौत का खेल शुरू होने का इंजतार कर रहा है। प्रदूषण विभाग कागजी बाजीगरी में मस्त है वहीं मीट उत्पादक केंद्र धडल्ले से पानी को जहर बनाने में तुले हुए हैं। केंद्र सरकार गंगा को आचमन लायक बनाने का प्रोजेक्ट तैयार कर रही है। करीब 2 हजार करोड रुपये इस पर खर्च होने की उम्मीद है। सवाल यह है कि गंगा के किनारे बसे जिलों से जो गंगा के पानी को मैला किया जा रहा है उस पर नकेल क्यों नहीं सकी जा सकी है। जब तक जल प्रदूषण को नहीं रोका जायेगा तब तक गंगा कलयुग में आचमन लायक नहीं हो सकतीं। उन्नाव जिले में पानी का प्रदूषण उस दिन से शुरू हो गया जब औद्योगिक साइट की आधारशिला रखी गई। मुनाफे के चक्कर में मीट उत्पादक यूनिट की स्थापना की गई। एक तरह से जिला लेखनी और तालवार की जगह पशुअों के रक्त का घर बन गया है। जिले में करीब तीन दर्जन से अधिक मीट उत्पादक यूनिट हैं जिनमें जल प्रदूषण को रोकने का कोई कारगर इंतजाम नहीं है। विभागीय सेटिंग से पूरा खेल वर्षों से चल रहा है और इसके जरिये मौत का नया रूप तैयार किया जा रहा है। जिला प्रशासन के पास तो कोई रिपोर्ट तक नहीं है जो बता सके कि आखिर जिले में लेदर और मीट प्रोडक्ट यूनिट का क्या हाल है। हाल ही में एक आरटीआई प्रेषक को प्रशासन की और गोलमोल जवाब देकर यह बताने की कोशिश की गई कि जिले में सब कुछ ठीक है और गंगा के शुभचिंतक उसका ख्याल रखने में लगे हैं। इधर जल संसाधन मंत्रालय भी मानता है कि जिले में पानी की तबीयत बहुत नासाज है। रोकधाम के कदम तो उठाये गये लेकिन प्रदेश और जिला स्थित नौकरशाही ने उस पर कुठाराघात कर पूरी कोशिश का गला घोंट कर रख दिया है। सीधे गंगा में जा रहा ट्रीटमेंट प्लांट का पानी : गंगा न हो गईं उन्हें मैला करने का केंद्र बना दिया गया है। नगर में बनी जेल ड्रेनेज का हाल यह है कि इसका पानी सीधे गंगा में जा रहा है। बिना रिफाइन के लाखों गैलन कचरा गंगा को प्रदूषित करने में लगा है। बंधरा सीईटीपी का भी कुछ यही हाल है। सन 2004 में 6 करोड की लागत से बने ट्रीटमेंट प्लांट में बेरोकटोक प्रदूषित जल बहाया जा रहा है। आंकडों की बात करें तो सन 2010 में लखनऊ आईआईटीआर ने जिले के भूगर्भजल के 24 सैंपल लिये थे इनमें 18 पीने का पानी योग्य तथा 6 सैपल प्रदूषित जल के लिए गये। जानकर ताज्जुब होगा कि 18 पीने के पानी के सैपल में गजब की अशुद्धता सामने आई थी। 13 सैपल में बढा हुआ टीडीएस, भारीपन, फ्लोराइड, सल्फेट, क्लोराइड, अलकेलाइन, मैगनीज, व मरकरी पाया गया। 6 सैपल तो ट्रीटमेंट प्लांट से लिये गये थे उनमें फ्लोराइड क्रोमियम, मैजनीज, भारीपन की मात्रा बहुत अधिक पाई गई थी। बंथर तथा दही चौकी स्थित ट्रीटमेंट प्लांट की सेहत भी कुछ ठीक नहीं है। रिपोर्ट बताती हैं कि इनमें सीईपीटी 14.76 तथा 0.520 एमजी/एल है। जब इसे ट्रीट किया गया तो प्रदूषण का हाल 3.254 और 0.490 एमजी/एल रहा। इनमें बडी मात्रा में कापर, कैडमियम, जिंक, निकिल पाया गया है। जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। इनकी हालत तो और भी बदतर : मार्च 2012 में जब लखनऊ की टीम ने लेदर तथा मीट प्रोडक्ट यूनिट के सैपल लिये तो मिर्जा ट्रेनर्स में 4455 यूजी/एल हेक्सावेलंट क्रोमियम पानी में पाया गया था। जेआर इंटर कालेज दही चौकी के निकट पानी के प्रदूषण की हालत 602 यूजी/एल रही इसी तरह शिवनगर में 141 यूजी/एल, ढकारी में 50 यूजी/एल तथा मगनगर में 102 यूजी/एल हैक्सावेलंट क्रोमियम पाया गया जा चुके है। लुखरखेडा व ढकरी में सबसे अधिक लवणता पानी में है। उन्नाव बाईपास के इलाकों के पानी में क्रोमियम की मात्रा सबसे अधिक बनी हुई है। इस रोडे को खत्म करे बिना नहीं बेनेगी बात : जिले में लेदर और मीट प्रोडक्ट यूनिट में जल प्रदूषण को रोकने के लिए जो सीईपीटी बनाये गये हैं वह बिल्कुल कारगर नहीं है। असल में इन्हें विदेशी तकनीक से लगाने में करोडो का खर्च आयेगा, ऐसे में विभागीय सांठगांठ से पूरा काम चलाया जा रहा है। रुस्तम फूड लिमिटेड में रिकार्ड के मुताबित 25 टन मीट सप्लाई प्रतिदिन की है। 25 केएलडी के प्लांट गंदा पानी बाहर निकल रहा है। इसमें बीअोडी 59 से 30 के बीच है। एअोवी एक्सपोर्ट में 84 टन मीट प्रोडक्ट होता है और 700 केएलडी पानी निकल रहा है। टीएसएस 275 तथा बीअोडी 267 है। जेएस में तो प्लांट कई सालों से काम ही नहीं कर रहा था। मिर्जा का हाल यह है कि प्री मानसून टीएसएस आउटलेट 200 होना चाहिए जबकि 100 है वहीं बीअोडी 45 जबकि 30 होनी चाहिए । फलक के पानी में 5 से 7 प्रतिशत तक फास्फेट, 450 सीअोडी तथरा 353 बीअोडी है। बीअोडी- बायो कैमिकल आक्सीजन डिमांड - पानी में इसकी मात्रा अधिक है तो फिर वह पीने लायक नहीं है। सीअोडी- कैमिकल आक्सीजन डिमांड- ट्रीटमेंट के बाद पानी में कैमिकल की मात्रा बहुत कम होनी चाहिए। खासकर क्रोमियम और निकिल नहीं होना चाहिए। टीडीएस- टोटल डिसाल्वड सालिड- पानी में अघुलनशील पदार्थों को नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा यह तो स्टोन और पेट के रोग होते हैं टीएसएस- सस्पेंड सालिड- इनकी वजह से पानी में आक्सीजन की मात्रा हो जाती है और वह पीने लायक नहीं रहता