*अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां*
*कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्;!*
*यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां*
*कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि !! ३६ !!*
*अर्थात्:-* कमल-पत्र पर जल की बूंदों के समान चञ्चल प्राणो के लिए हमने बुरे और भले का विचार न करके, क्या क्या काम नहीं किये ? हम धन-मद से मतवाले लोगों के सामने निर्लज्ज होकर अपने गुणों के कीर्तन करने का पाप तक किया है |
*अपना भाव :-*
यह संसार नाशवान है ! हमको जो जीवन मिला है वह *क्षणभंगुर* है इस जीवन के लिए जो नितान्त *क्षणभंगुर* है , जिसकी स्थिरता कुछ भी नहीं है ऐसे *क्षणभंगुर* जीवन के लिए मैंने कोई उपाय , कोई उद्यम उठा न रखा | और तो और, इस *क्षुद्र जीवन* के लिए, अपनी प्रशंसा करने का महापातक भी मैंने किया और वह भी ऐसे लोगों के सामने जो धन के मद से मतवाले हो रहे थे और किसी की ओर आँख उठा कर भी न देखते थे | हाय ! ये सब अकर्म करने पर भी मेरा मनोरथ सिद्ध न हुआ |
संसार में अपने गुणों का आप बखान करना - बड़ा भारी पाप समझा जाता है | *आत्मश्लाघा* या *आत्मप्रशंसा* वास्तव में बहुत ही बुरी है | जिसने *आत्मश्लाघा* की उसने कौन सा पाप नहीं किया ? इसी से कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं करता परन्तु आवश्यकता इस पाप को भी करा लेती है | जब किसी तरह कोई काम नहीं होता, कोई और प्रशंसा करने वाला नहीं मिलता तब मनुष्य, *क्षणस्थायी* जीवन के लिए, इस निंद्य-कर्म को भी करता है |
*जीवन क्षणभंगुर है*
*----------------------*
यह प्राण उसी तरह चञ्चल हैं, जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी की बूँद | यह जीवन बादल की छाया , बिजली की चमक और पानी के बुलबुले की तरह है |
*जीवन की चञ्चलता पर महात्मा कबीर कहते हैं -*
*पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात !*
*देखत ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात !!*
*"कबिरा" पानी हौज़ का, देखत गया बिलाय !*
*ऐसे जियरा जाएगा, दिन दश ढीली लाय !!*
*अर्थात:-* मनुष्य पानी के बुलबुले की तरह है | जिस तरह पानी का बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है | यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जाएगा जिस तरह सवेरे का तारा देखते देखते गायब हो जाता है |
*कबीरदास जी कहते हैं;-* जिस तरह देखते देखते हौज़ का पानी , मोरी की राह से निकल कर बिलाय जाता है उसी तरह यह जीवात्मा देह से निकल जाएगा दस पांच दिन की देर समझिये |
*आदिगुरु शंकराचार्य जी ने भी कहा है -*
*नलिनीदलगत जलमतितरलम् !*
*तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् !!*
*अर्थात् :-* यह जीवन कमल-पत्र पर पड़े हुए जल की तरह चञ्चल है |
ऐसे चञ्चल जीवन के लिए अज्ञानी मनुष्य नीच से नीच कर्म करने से संकोच नहीं करता - यह बड़ी ही लज्जा की बात है | अगर मनुष्य को हज़ारों-लाखों वर्ष की उम्र मिलती या सभी काकभुशुण्ड होते तो मनुष्य न जाने क्या क्या पाप कर्म न करता? बड़े ही नीच हैं, जो इस *क्षणभंगुर जीवन* के लिए, तरह-तरह के पापों की गठरी बाँध कर, अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं | मनुष्यों ! आँखें खोल कर देखो और कान देकर सुनो ! मिटटी और पत्थर अथवा लकड़ी वगैरह की बनी चीजों का तो कुछ ठिकाना है पर तुम्हारी आयु का कुछ भी नहीं | *अतः इस क्षणस्थायी जीवन में पाप-कर्म न करो |*
*यह जीवन क्या है ?? इस प्रकार समझा जाय:--*
*जैसे पंकजपत्र पर, जल चञ्चल ढरि जात !*
*त्योंही चञ्चल प्राणहू, तजि जैहें निज गात !!*
*तजि जैहें निज गात, बात यह नीके जानत !*
*तोहू छाँड़ि विवेक, नृपन की सेवा ठानत !!*
*निज गुन करत बखान, निलजता उघरी ऐसे !*
*भूल गयो सतज्ञान, मूढ़ अज्ञानी जैसे !!*
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" बिंश भाग: !!*