*आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्*
*नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा !*
*योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान*
*क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम् !! ४६ !!*
*अर्थात्:-* ओ भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनो भुवनों में मैंने खोज की; पर ऐसा मनुष्य मैंने न देखा न सुना, जो अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए हथिनी के पीछे दौड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता हो |
*उक्त श्लोक पर अपना भाव:---*
त्रैलोक्य पर दृष्टि डालने पर एक भी मनुष्य ऐसा न दिखा , जो विषय रुपी हथिनी के पीछे लगे हुए मनरूपी गज को रोक सकता हो | *इसका तात्पर्य यह है कि* विषयों में फंसे हुए मन को काबू में रखना अथवा उसे विषयों से हटाना असंभव है | *मन बड़ा बलवान है |* इसके पंख नहीं पर पक्षी की तरह उड़ने वाला है ; कभी यह आकाश में जाता है और कभी पाताल में जाता है | मन शरीर को जिधर घुमाता है, शरीर उधर ही घूमता है | मन ही मनुष्य को परमात्मा से अलग रखता और मन ही उसे उससे मिला देता है | *मन की चंचलता अच्छी नहीं बल्कि उसकी चंचलता ही साधना में बाधक है |*
*महात्मा कबीरदास जी कहते हैं -*
*मन-पक्षी तब लगि उड़े, विषय-वासना मांहि !*
*ज्ञान-बाज़ की झपट में, जब लगि आया नाहिं !!*
*मन के बहुतै रंग हैं, छिन-छिन मध्ये होय !*
*एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय !!*
*जेती लहार समुद्र की, तेती मन की दौर !*
*सहजै हीरा उपजे, जो मन आवे ठौर !!*
*मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक !*
*जो मन पर असवार हैं, ते साधू कोई एक !!*
*अर्थात् :-* मन-पक्षी विषय-वासनाओं में उस वक्त तक उड़ता है जब तक वह ज्ञान बाज़ की झपट में नहीं आता | मतलब यह है कि मन विषयों में उसी वक्त तक फंसा रहता है जब तक कि उसे ज्ञान नहीं होता | *ज्ञान होते ही मन विषयों के फंदे से निकल जाता है |*
मन के अनेक रंग हैं , जो छिन-छिन में बदलते रहते हैं | *जो एक ही रंग में रंगा रहता है, वह कोई विरला ही होता है |* समुद्र की जितनी लहर हैं , मन की उतनी ही दौड़ हैं | अगर मन एक ही ठिकाने ठहर जावे तो सहज में हीरा पैदा हो जावे | *मतलब यह है कि मन के एक जगह ठहरने या स्थिर हो जाने से सिद्धि मिल जा सकती है, जगदीश के दर्शन हो सकते हैं | चंचल मन से सिद्धि दूर भागती है , जगदीश-मिलान के लिए स्थिर चित्त की आवश्यकता है |*
मन के मते न चालिये क्योंकि मन के मते अनेक हैं | मन पर सवार रहने वाले , मन को अपने वश में रखनेवाले महात्मा कोई विरले ही होते हैं | *सारांश यह कि:- मन की चाल पर न चलना चाहिए , उसकी सलाह के अनुसार काम न करना चाहिए | मन को काबू में रखना चाहिए और उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहिए | जो मन की राह पर नहीं चलते, मन के अधीन नहीं होते, मन को स्थिर रखते हैं, उसे चंचल नहीं होने देते, उसकी लगाम अपने हाथों में रखते और अपने माफिक चलते हैं - स्वयं उसकी मर्जी पर नहीं चलते, वे जगत को विजय कर सकते हैं | वे नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं और जगदीश से मिलकर अक्षय सुख के अधिकारी हो सकते हैं |* जिन्हें संसारी जालों से छूटना हो, जन्म-मरण के कष्ट न भोगने हों, नित्य और अविनाशी सुख भोगना हो, परमपद प्राप्त करना हो; *वे मन को अपने वश में करें, उसे इधर-उधर जाने से रोकें और उसे करतार के ध्यान में लगावें |*
हे मनुष्य ! अपने मन को मार , अभिमान को मार ; इसमें तेरी बड़ाई है | बड़े बड़े खूंखार जानवरों के मारने में कोई बड़ाई नहीं है | पर अभिमान-शून्य होना है बड़ा कठिन | जिस पात्र में लहसन या प्याज रखे जाते हैं, उसमें से उनकी गन्ध बड़ी कठिनाई से जाती है | *इसी तरह अभिमान भी बड़ी कठिनाई से जाता है |* इसके नाश का उपाय विवेक या ज्ञान है | *जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब जिस तरह पका हुआ आम आप-से-आप गिर पड़ता है ; उसी तरह अभिमान भी आप-से-आप दूर हो जाता है |* अभिमान के नाश होते ही चित्त शुद्ध हो जाता है | चित्त के शुद्ध होने से परमात्मा के दर्शन होने की राह साफ़ हो जाती है |
*मनुष्यों ! अभ्यास करो , अभ्यास से सब कठिनाइयां हल हो जाती है | जैसे भी हो , मन को वासनाहीन बनाओ | वासनाहीन , निर्मल चित्त वाले व्यक्ति पर उपदेश जल्दी असर करता है और उसमें ईश्वरानुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है |*
*किसी ने कहा है :--*
*ऐसो मैं संसार में, सुन्यो न देख्यो धीर |*
*विषय-हथिनी संग लग्यो, मनगज बांधे बीर !!*
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" अष्टविंशोभाग: !!*