*ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज*
*ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः !*
*तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं*
*ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः !! ४७ !!*
*अर्थात् :-* वे दिन जो धन के लिए धनवानों की प्रशंसा करने के दुःख से बड़े मालूम होते थे और वे दिन जो विषयासक्ति में छोटे लगते थे; उन दोनों प्रकार दे दिनों को हम पर्वत की एकान्त गुहा में, पत्थर की शिला पर बैठे हुए आत्मध्यान में मग्न होकर अन्तःकरण में हँसते हुए याद करेंगे |
*अपना भाव :--*
दिन तो सबके लिए एक समान ही होते हैं एक ही समय पर सूर्य उदय होकर एक ही समय अस्त होता है परंतु इसमें अन्तर है | *अंतर यह है कि* जिन लोगों को अनेकों प्रकार के सुक-ऐश्वर्य और भोग-विलास की सामग्री उपलब्ध हैं , जिनके यहाँ किसी भी संसारी भोग-विलास की सामग्री का अभाव नहीं है , जिनके सुंदरी मृगनयनी कामिनी सेवा करने को है , जिनके दास-दासी हैं , जिनके बाग़-बगीचे हैं , जिनके गाडी-घोड़े और मोटर हैं , जिनके पीछे अनेक तरह के प्रशंसक लगे रहते हैं , जिनके हाथ में द्रव्य है अथवा राजकृपा है - ऐसे लोगों के दिन बड़ी ही जल्दी कटते हैं | उन्हें दिन रात बीतते हुए मालूम ही नहीं होते | लम्बे लम्बे दिन भी छोटे प्रतीत होते हैं | उनको ऐसा लगता है कि यदि दिन थोड़ा और होता तो आनन्द बढ़ जाता ! किन्तु जिन लोगों को सब तरह का अभाव है , जो हर बात के लिए तंग हैं , जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए धनियों से धन मांगते हैं , उनकी प्रशंसा करते हैं , उनकी दुत्कार - फटकार सहते हैं , अपमानित होते हैं , उनके लिए वे ही दिन बड़े भारी मालूम होते हैं ! काटे भी नहीं कटते ! किन्तु जो लोग विषयों का सामान होते हुए भी विषय सुख नहीं भोगते और अभाव होने पर भी इच्छा नहीं रखते , इसलिए धनियों के आगे - पीछे नहीं लगते , उनकी चापलूसी नहीं करते , अपने आत्माराम में ही मस्त रहते हैं - वे सुखी हैं; उन्हें दिन बड़े और छोटे नहीं लगते | जिसने दोनों प्रकार के दिन देखे हैं , पर शेष में उसे ऐसे झगड़ो से विरक्ति हो गयी है , वह कहता है - *मैं एकान्त गुफा में पवित्र शिला पर बैठा हुआ, आत्मा का ध्यान करूँगा और उन दिनों की याद करके उन पर घृणा से हसूंगा |*
*किसी ने कहा भी है :--*
*छोटे दिन लागत तिन्हें, जिनके बहुविधि भोग !*
*बीत जात विलसत हँसत, करत सुयत संयोग !!*
*करत सुयत संयोग, तनक से लागत तिन को !*
*जे हैं सेवक दीन, निपट दीरघ हैं विनको !!*
*हम बैठे गिरि- शृङ्ग, अंग याहि ते मोटे !*
*सदा एक रस दिवस, लगत हैं बड़े न छोटे !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" नवविंशोभाग: !!*