*परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा*
*प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् !*
*प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे*
*विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते !! ३४ !!*
*अर्थात् :-* हे मलिन मन ! तू पराये दिलों को प्रसन्न करने में किसलिए लगा रहता है ? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरुप हो जाये।| फिर तेरी कौन सी इच्छा पूरी न हो ?
*अपना भाव:-*
इस मानव शरीर में मन ही सब कामों का करता है | सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन और मन की ही अनुगामिनी हैं | इसीलिए कहा गया है :- *मन: एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो:* अर्थात :- मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है | मनुष्य मन से ही पाप-पुण्य और सुख-दुःख प्रभृति का भागी होता है | मन ही मनुष्य को बुरा-भला, साधु-असाधु सब कुछ बना देता है | मन की वृत्ति सुधरने से ही, मन के वासना-हीन होने से ही, सब कुछ त्यागने से ही, वह आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो जाता है | इसीलिए कोई ज्ञानी पुरुष मन को सम्बोधित करके कहता है -
"अरे मन ! तू स्वयं तो मलिन और दुःख के भार से दबा हुआ है; फिर तू औरो के दिल खुश करने की इतनी कोशिशें क्यों करता है, क्यों आफतें उठता है, क्यों मान खोता है और क्यों अपमान सहता है ? इससे तुझे क्या लाभ होगा ? मेरी बात माने तो तू इच्छा को त्याग दे | किसी भी चीज़ की इच्छा मत रख; तब तुझे शान्ति मिलेगी , परमानन्द की प्राप्ति होगी | जब तू चिंतामणि की भाँती स्वच्छ हो जायेगा, तब तू अपने स्वरुप को पहचान जायेगा | तब तुझे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा, तुझे ब्रह्मज्ञान हो जायेगा, तू ब्रह्म के प्रेम में लीन हो जायेगा, हर्ष-विषाद और शोक-मोह तेरे पास न आएंगे, अष्ट सिद्धि और नव निधि तेरे सामने हाथ बांधे खड़ी रहेंगी | उस समय तेरी कोई अभिलाषा पूरी हुए बिना बाकी न रहेगी | *इसीलिए कहता हूँ, कि* तू दूसरों को प्रसन्न करने की अपेक्षा अपने को ही प्रसन्न कर , इससे तुझे निश्चय ही उसकी प्राप्ति होगी, जिसके समान त्रिलोकी में और कोई नहीं है | जिस समय उसकी अनुपम छवि तेरी आँखों में समा जाएगी, उस समय तुझे और कुछ अच्छा न लगेगा;केवल वही अच्छा लगेगा |
*यही बात रहीम जी ने कही है -*
*प्रीतम-छवि नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाय !*
*भरी सराय "रहीम" लखि, आप पथिक फिर जाय !!*
जब आँखों में *प्यारे कृष्ण* की सुन्दर मनमोहिनी छवि समा जाती है, तब उसमें और किसी की छवि नहीं समा सकती | जब तक नयनों में *मुरली मनोहर* की छवि नहीं समाती, नयन उसकी छवि से खाली रहते हैं, तभी तक साधारण छवि उनमें समाती रहती है | जिस तरह सराय को भरी हुई देखकर, उसमें कोठरियां खाली न पाकर, यात्री लौट जाते हैं; उसी तरह नयनों में *मनमोहन* की बांकी छवि देखकर और संसारी मिथ्या खूबसूरतियाँ नयनों के पास भी नहीं फटकती | जब हृदय में परम प्यारे *कृष्ण* का डेरा लग जाता है, तब उसमें सुन्दर कामिनियों और लक्ष्मी प्रभृति किसी को भी स्थान नहीं मिलता , अर्थात हृदय को उसकी अपेक्षा में संसार के अच्छे से अच्छे पदार्थ - स्त्री-पुरुष और धन-दौलत प्रभृति- तुच्छातितुच्छ जंचते हैं |
*अपने ही मन को समझाते हुए किसी ने लिखा है :-*
*तू ही रीझत क्यों नहीं, कहा रिझावत और ?*
*तेरे ही आनन्द से, चिंतामणि सब ठौर !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" अष्टदश भाग: !!*