न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः !*
*नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः !! २७ !!*
*अर्थात् :-* न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती है, न हमें दूसरों की बर्बादी की बन्दिशें बांधनी आती हैं और न हम स्तनभारावनत स्त्रियां ही हैं; फिर हमारी पूछ राजाओं के यहाँ क्यों होने लगी ? हममें इनमें से एक भी बात नहीं, फिर हमारा प्रवेश राजसभा में कैसे हो सकता है ? वहां तो उनकी पूछ है - उन्ही का आदर है - जो उनकी विषय-वासनाएं पूरी करते हैं |
*अपना भाव:--*
इस संसार में साधारण मनुष्य को कोई भी नहीं पूंछना चाहता ! आज भी यदि किसी मंत्री , विधायक या उच्चपदस्थ व्यक्ति से मिलना हो तो साधारण व्यक्ति नहीं मिल सकता ! *इसी को भाव देते हुए किसी ने लिखा है :--*
*नट भट विट गायन नहीं, नहिं बादिन के माहिं !*
*कौन भांति भूपति मिलन, तरुणी भी हम नाहिं !!*
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*पुरा विद्वत्तासीऽदुपशमवतां क्लेशहतये*
*गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् !*
*इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखा*
*नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति !! २८ !!*
*अर्थात् :-* पहले समय में, विद्या केवल उन लोगों के लिए थी, जो मानसिक क्लेशों से छुटकारा पाकर चित्त की शान्ति चाहते थे | इसके बाद विषय सुख चाहने वालों के काम की हुई | अब तो राजा लोग शास्त्रों को सुनना ही नहीं चाहते; वे उससे पराङ्गमुख हो गए हैं; इसलिए वह दिन-ब-दिन रसातल को चली जाती है | यह बड़े ही दुःख की बात है |
*अपना भाव :--*
आदिकाल में जो *विद्या* शान्तिकामी लोगों के अशान्त चित्तों को शान्त करने , उनकी मनोवेदनाओं को दूर करने और उनके शोक ताप की आग में जलने से बचने के काम आती थी , होते होते वही *विद्या* विषय-सुख भोगने का माध्यम हो गयी | लोग भाँति भाँति की *विद्याएं* सीख कर राजाओं और धनियों को खुश करते और उनसे धन पाकर स्वयं विषय सुख भोगते थे | यहाँ तक तो ठीक था किन्तु अब राजा (नौकरशाह) लोग ऐसे हो गए हैं, कि वह *विद्या* और विद्वानों कि ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते , पण्डितों से धर्मशास्त्र नहीं सुनते , इसलिए अब कोई *आध्यात्मिक विद्या* पढ़ना री नहीं चाहता | भोतिकता में लिप्त लोगों के द्वारा सम्मानित न होने से *आध्यात्मिक विद्या* अब अधोगति को प्राप्त होती जा रही है | *क्या यह दुःख का विषय नहीं है ?*
*किसी ने विद्या की दुर्दशा देखकर लिखा है :--*
*विद्या दुःखनाशक हती, फेरि विषय सुख दीन !*
*जात रसातल को चली, देखि नृपन्ह मतिहीन !!*
*ध्यान रहे कि विद्या एवं शिक्षा में विशेष अन्तर है ! कुछ लोग शिक्षित होकर स्वयं को विद्यावान समझने लगते हैं वे विद्यावान तो हो सकते हैं परंतु विद्वान कदापि नहीं हो सकते !*
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*स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं*
*कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये !*
*नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना*
*नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः !! २९ !!*
*अर्थात्:-* प्राचीन काल में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिनकी खोपड़ियों कि माला बनाकर स्वयं शिव ने श्रृंगार के लिए अपने गले में पहनी | अब ऐसे लोग हैं जो अपनी जीविका-निर्वाह के लिए प्रणाम करने वालों से ही प्रतिष्ठा पाकर अभिमान के ज्वर (मद) से तप्त हो रहे हैं |
*अपना भाव :--*
थोड़ी सी प्रभुता पाकर मनुष्य को कभी भी उबाल में नहीं आना चाहिए ! किसी को यदि चार लोग विद्वान कहने लगें या उनकी अभिव्यक्तियों पर प्रणाम करने लगें तो आज के लोग स्वयं को अति विद्वान मानकर अहं के ऊँचे शिखर पर पहुँच जाते हैं ऐसे लोगों को शायद विद्वान का अर्थ ही नहीं पता है | हमारे शास्त्रों में लिखा है कि *विद्वान कुलीनो न करोति गर्व:*
*ऐसेहू जग में भये, मुण्डमाल शिव कीन !*
*धनलोभी नर नावट लखि, तुमको मदज्वर दीन !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षोडश भाग: !!*