*त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः*
*ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः !*
*इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु*
*पराङ्मुखोऽसिवयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः!! २४ !!*
*अर्थ|त् :-* अगर तू राजा है, तो हम भी गुरु की सेवा से सीखी हुई विद्या के अभिमान से बड़े हैं ! अगर तू अपने धन और वैभव के लिए प्रसिद्ध है, तो कवियों ने हमारी विद्या की कीर्ति भी चारों और फैला रखी हैं ! हे मानभञ्जन करने वाले, तुझमें और हममें अधिक अन्तर नहीं है ! अगर तू हमारी ओर नहीं देखता, तो हमें भी तेरी परवाह नहीं है !
*अपना भाव :--*.
इस संसार में ईश्वर किसी भी मनुष्य को राजा या भिखारी बना कर नहीं भेजता है | मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार इस संसार में भोग भोगता है , इसलिए कभी भी मनुष्य को अपने सुख ऐश्वर्य का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में सभी बराबर हैं | उसने सबको नंगे बदन भेजा है और नंगे बदन ही सब को बुला भी लेगा | यही इस संसार का सत्य है | इसलिए मिथ्या अभिमान कभी नहीं करना चाहिए |
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*अभुक्तयां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतै-*
*र्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम् !*
*तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो*
*विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम् !! २५ !!*
*अर्थात् :-* सैकड़ों हज़ारों राजा इस पृथ्वी को अपनी अपनी कहकर चले गए, पर यह किसी की भी न हुई , तब राजा लोग इसके स्वामी होने का घमंड क्यों करते हैं ? दुःख की बात है, कि छोटे छोटे राजा छोटे से छोटे टुकड़े के मालिक होकर अभिमान के मारे फूले नहीं समाते | जिस बात से दुःख होना चाहिए, मूर्ख उससे उलटे खुश होते हैं |
*अपना भाव :--*
*इस पृथ्वी पर रावण और सहस्त्रबाहु प्रभृति एक से एक बढ़कर राजा हो गए , जिन्होंने त्रिलोकी अपनी ऊँगली पर नचा डाली | वे कहते थे कि हमारे बराबर जगत में दूसरा कोई नहीं है | यह पृथ्वी सदा हमारे पास ही रहेगी | पर वे सब एक दिन इसे छोड़कर चले गये | यह उनकी न हुई; वे इसे सदा न भोग सके | तब आजकल के छोटे छोटे सांसद - विधायक - मंत्री जो अपने को पृथ्वी पति समझ कर अभिमान के नशे में चूर रहते हैं, इसके लिए लड़ते हैं, खून खराबा करते हैं, क्या यह उनकी अज्ञानता नहीं है ? उनकी यह छोटी सी प्रभुता - मालिकाई, सदा-सर्वदा नहीं रहेगी; यह विजली की सी चमक और बदल की सी छाया है | इस पर घमण्ड करना बड़ी भूल की बात है |
*किसी ने सत्य का दर्शन कराते हुए लिखा है :--*
*यह जग सरायं मुसाफिरखाना , इसमें लुभाने की कोशिश ना करना !*
*आये हो बेशक रैन बिता लो , कब्जा जमाने की कोशिश ना करना !!*
*राजा व रानी पंडित व ज्ञानी !*
*योगी तपस्वी व अवतार दानी !!*
*आया है जो भी उसे जाना पड़ा है , तुम भी रमाने की कोशिश ना करना ||*
*इस संसार की सत्यता बताते हुए "कबीरदास जी" लिखते हैं कि कैसे अनेक व्यवस्था करने के बाद भी लोग काल से नहीं बच पाते :--*
*चहुँदिशि पाका कोट था, मंदिर नगर मंझार !*
*खिरकी खिरकी पाहरू, गज बंधा दरबार !!*
*चहुँदिशि तो योद्धा खड़े, हाथ लिए हथियार !*
*सब ही यह तन देखता, काल ले गया मार !!*
*आस पास योद्धा खड़े, सबै बजावें गाल !*
*मंझ महल ते ले चला, ऐसा परबल काल !!*
*अर्थात :-* हे मनुष्य ! *मौत से डर,* अभिमान त्याग । किसी राजा की नगरी के चारों तरफ पक्की दीवाल थी, उसका महल शहर के बीचों बीच था, प्रत्येक फाटक की खिड़की पर पहरेदार थे, दरबार में हाथी बंधा था, चारों तरफ सिपाही हथियार बांधे हुए खड़े थे | आस पास खड़े योद्धा गाल बजाते ही रह गए और वह बलवान काल, ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था होने पर भी राजा को अपने साथ ले गया |
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पञ्चदश भाग: !!*