*निवृता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः !*
*समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः !!*
*शनैर्यष्टयोत्थानम घनतिमिररुद्धे च नयने !*
*अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः !! ९ !!*
*अर्थात् :-* बुढ़ापे के मारे भोगने की इच्छा नहीं रही ; मान भी घट गया , हमारी बराबर वाले चल बसे , जो घनिष्ट मित्र रह गए हैं वे भी निकम्मे या हम जैसे हो गए हैं | अब हम बिना लकड़ी के उठ भी नहीं सकते और आँखों में अँधेरी छा गयी है | इतना सब होने पर भी हमारी काया कैसी निर्लज्ज है , *जो अपने मरने की बात सुनकर चौंक उठती है ?*
*अपना भाव:-*
जगत की विचित्र गति है , इस जीवन में जरा भी सुख नहीं है ! मनुष्य के मित्र और नातेदार मर जाते हैं , आप स्वयं बेकार , निकम्मा हो जाता है , आँख कान प्रभृति इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं , आँखों से सूझता नहीं और कानो से सुनाई नहीं देता , घर-बाहर के लोग अनादर करते हैं , बुढ़ापे के मारे चला फिरा नहीं जाता , खाने को भी कठिनाई से मिलता है , तो भी मनुष्य मरना नहीं चाहता , बल्कि मरने की बात सुनकर चौंक उठता है | *इसे मोह न कहें तो क्या कहें ?*
*इसी विषय पर दो दृष्टान्त प्रस्तुत है :--*
*१- लकड़हारा और मृत्यु*
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एक वृद्ध अतीव निर्धन था , बेटे पोते सभी मर गए थे , एक मात्र बुढ़िया रह गयी थी | बूढ़े के हाथ पैरों ने जवाब दे दिया था , आँखों से दीखता न था फिर भी अपने और बूढी के पेट के लिए वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और बेचकर जीवन यापन करता था | एक दिन उसने जीवन से अत्यन्त दुखी होकर मृत्यु को पुकारा | उसके पुकारते ही मृत्यु मनुष्य के रूप में उसके प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई | *बूढ़े ने पुछा - "तुम कौन हो ?"*
*उसने कहा - "मैं मृत्यु हूँ*
तुम्हें लेने आयी हूँ | मृत्यु का नाम सुनते ही लकड़हारा चौंक उठा और कहने लगा - "मैंने आपको ये भार उठवाने को बुलवाया था | मृत्यु उसका भार उठवा कर चली गयी |
*देखिये/ विचार कीजिए* बूढा लकड़हारा हर तरह दुखी था उसे जीवन में जरा भी सुख नहीं था फिर भी वह मरना न चाहता था अपितु मृत्यु को देखते ही चौंक पड़ा था । *यही गति संसार की है |*
*२- एक दुखित बूढ़ा सेठ*
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एक वैश्य ने जीवन भर मर-पचकर खूब धन जमा किया, बुढ़ापे में पुत्रों ने सारे धन पर अधिकार कर बूढ़े को पौली में एक टूटी सी खाट और फटी सी गुदड़ी पर डाल दिया और कुत्ता मारने के लिए हाथ में लकड़ी दे दी | सुबह शाम घर का कोई आदमी बचा-खुचा , बासी-कूसी उसे खाने को दे जाता | सेठ बड़े दुःख से अपना जीवन जीता था | पुत्र-वधुएं दिन भर कहा करती थी - *"यह मर नहीं जाते, सबको मौत आती है पर इनको नहीं आती , दिन भर पौली में थूक-थूक कर मैला करते हैं ।"* एक दिन एक पोता उन्हें पीट रहा था | इतने में नारद जी आ निकले उन्होंने सारा हाल देखकर कहा - "सेठजी ! आप बड़े दुखी हैं | स्वर्ग में कुछ आदमियों की आवश्यकता है अगर तुम चलो तो हम ले चलें | सुनते ही सेठ ने कहा - "जा रे वैरागीड़ा ! मेरे बेटे पोते मुझे मारते हैं चाहे गाली देते हैं तुझे क्या ? तू क्या हमारा पञ्च है ? मैं इन्हीं में सुखी हूँ | मुझे स्वर्ग की आवश्यकता नहीं | सेठ की बातें सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । कहने लगे - *"ओह ! संसार सचमुच ही मोह-पाश में फंसा है ! मोह की मदिरा के मारे इसे होश नहीं* मनुष्य ने कब्र में पैर लटका रखे हैं; फिर भी विषयों में ही उसका मन लगा है | " किसी ने ठीक ही कहा है :
*गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानन्दजनकं*
*विशीर्णा दन्तालिर्निजगतिरहो यैष्टिशरणां !*
*जड़ी भूता दृष्टिः श्रवणरहितं कर्णयुगलं*
*मनोमे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति !!*
*अर्थात् :-* तरुणियों के ह्रदय में आनन्द पैदा करने वाली जवानी चली गयी है , दन्तपंक्ति गिर गयी है , लकड़ी का सहारा लेकर चलता हूँ , नेत्र ज्योति मारी गयी है , दोनों कानों से सुनाई नहीं देता , *तो भी मेरा निर्लज्ज मन विषयों को ही चाहता है |*
*इसीलिए कहा गया है :--*
*रात दिन मारा गरियावा दुरियावा जात ,*
*फिर फिर मान मानि ताहि में धंसाई है !*
*कोई कहै साधु की शरण ज्ञान भक्ति सिखौ ,*
*ताहि कटु बैन कहि जोर से रिसाई है !!*
*नीम कीट मल कीट ताहि सुख मानि रह्यो ,*
*ताहि छोड़ि अमृत न काहि को सुहाई है !*
*वैसे यह मूढ़ मन जग सुख मानि रह्यो ,*
*साधु गुरु भक्ति मांह् अब तरवाई है !!*
*आदिगुर शंकराचार्य जी ने चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र में लिखा है :-*
*अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् !*
*वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् !!*
*अर्थात् :-* अंग गल गये हैं सिर हिलने लगा है , दाँत गिर गये हैं वृद्धावस्था में लकड़ी का ही सहारा है फिर भी यह शरीर छोड़ने की इच्छा नहीं होती है |
*यही माया का छूटना ही वैराग्य है*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षष्ठ भाग: !!*