*वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः ,*
*स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणाम विधिगतिः !*
*वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणै- ,*
*स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः !! ४९ !!*
*अर्थात्:-* सर्वस्व त्यागकर (अथवा सर्वस्वा नष्ट हो जाने पर) करुणापूर्ण ह्रदय से, संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर, केवल शिवचरणो को अपना रक्षक समझते हुए, हम शरद की चांदनी में, किसी पवित्र वन में बैठे हुए कब रातें बिताएंगे ?
*अपना भाव:--*
हम दिन रात माया के चक्कर में *जीवन के उद्देश्य को ही भूल गये हैं* यद्यपि हम जानते हैं कि *यह संसार सारहीन है* परंतु फिर भी मन की चंचलता एवं मन का निग्रह न कर पाने के कारण इसी में भटक रहे हैं | आखिर वह दिन कब आवेंगे *(अर्थात् हम कब जीवन की सत्यता को समझ पायेंगे)* जब हम सर्वस्वा त्यागकर, संसार को आसार समझकर, संसार के सुखो को अनित्य समझकर, संसार के भोग-विलासों को दुःख-मूल समझकर, विषयों को विष समझकर, किसी पवित्र वन में बैठे हुए शरद ऋतू की चांदनी रात को शिव-शिव की रटना लगाते हुए व्यतीत करेंगे ? *अर्थात हमारे ये दिन जो संसारी जंजालों में बीते जा रहे हैं, वृथा नष्ट हो रहे हैं | जब हम सबको त्यागकर भगवान् का भजन करेंगे, तभी हमारे दिन ठीक तरह से काटेंगे |* हम उन्ही दिनों को सार्थक हुआ समझेंगे | संसारी सुख क्षणिक होते हैं इन सुखों से तो हम अघा गए हैं
*तुलसीदास जी कहते है -*
*दुखदायक जाने भले, सुखदायक भज राम !*
*अब हमको संसारको, सब विधि पूरन काम !!*
*अर्थात :- हे मन ! अब परमात्मा में लग; संसारी सुखों में अब हमारी इच्छा नहीं: इनकी पोल अब हमने देख ली |*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिंस्रैक भाग: !!*