*यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं*
*सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम् !*
*मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्*
*न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः !! ५१ !!*
*अर्थात्:-* स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की विधि बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ?
*अपना भाव:--*
पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है | *बाबा जी मानस में लिखते हैं*
*पराधान सपनेहुँ सुख नाहीं*
जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं | जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं | कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं |
*सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष !*
*जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष !!*
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*पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं*
*विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी !*
*येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते*
*धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति !! ५२ !!*
*अर्थात्:-* वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है |
*अपना भाव:--*
जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वस्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं ! *वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं |* ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है | वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं | ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में *महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -*
*काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके !*
*मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है !!*
*दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने !*
*हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है !!*
*निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै !*
*लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है !!*
*सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति !*
*ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है !!*
*भावार्थ :-* जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है | *सुन्दरदास कहते हैं* ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है | उसकी गहराई का पता नहीं | *ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है |*
*भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये !*
*भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये !!*
*छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन !*
*नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन !!*
*मन को विकार, इन्द्रिन को डारै तोर मरोर जिन !*
*वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन !!*
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