*न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः !*
*महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् !! ३ !!*
*अर्थात् :-* मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता | मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं | इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं |
*अपना भाव :-*
इस जीवन में सुख का लेश भी नहीं है | जिनके पास अक्षय लक्ष्मी , धन-दौलत , गाडी-घोड़े , मोटर , नौकर-चाकर , रथ-पालकी प्रभृति सभी सुख के सामान उपस्थित हैं , राजा भी जिनकी बात को टाल नहीं सकता , जिनके इशारों से ही लोगों का भला बुरा हो सकता है , ऐसे सर्वसुख संपन्न लोग भी , भले ही ऊपर से सुखी दीखते हों , पर वास्तव में सुखी हैं नहीं | भीतर ही भीतर उन्हें घुन खाये जाता है ; किसी न किसी दुःख से वे जर्जरित हुए जाते हैं |
*इस भाव पर एक कहानी प्रस्तुत हैं:-*
एक *महात्मा* अपने शिष्य के साथ किसी नगर में गए , वहां उन्होंने देखा कि, एक *साहूकार* इन्द्रभवन जैसे मकान में बैठा है, सैकड़ों सेवक आज्ञापालन को तैयार खड़े हैं | जोड़ी-गाडी द्वार पर खड़ी है , हाथी झूम रहे है , सामने सोने-चंडी और हीरे-पन्नो के ढेर लग रहे हैं | *महात्मा* को देखकर *सेठ* ने अपने एक कर्मचारी को उनको भोजन कराने की आज्ञा दी | जब गुरु-चेले भोजन करने बैठे तब चेला बोलै - "गुरु जी ! आप कहते थे, संसार में कोई भी सुखी नहीं है | देखिये यह *सेठ* कैसा सुखी है , इसे किस बात का अभाव है ? लक्ष्मी इसकी दासी हो रही है | *गुरु ने कहा -*"थोड़ा धैर्य रखो" हम पता लगाकर कुछ कह सकेंगे | *महात्मा* ने जब भोजन कर लिया तब *सेठ* से कहा - *सेठ जी* ! परमात्मा ने आपको सभी सुख दिए हैं ! *सेठ* ने रोककर कहा - महाराज ! मेरे समान इस जगत में कोई *दुखी* नहीं है | मुझे परमात्मा ने धनैश्वर्य सब कुछ दिया है पर *पुत्र एक भी नहीं* ! *पुत्र* बिना ये *सुख* बिना नमक के पदार्थ की तरह बेस्वाद हैं | मेरा दिल रात दिन जला करता है ! कभी मुझे *सुख की नींद* नहीं आती | मैं इसी सोच में जला जाता हूँ कि *पुत्र* बिना इस संपत्ति को कौन भोगेगा ? *सेठ* की बातें सुनकर चेले ने कहा - हाँ गुरूजी, आपकी बात राई-रत्ती सच है | *संसार में कोई सुखी नहीं* | कोई किसी बात से *दुखी* है तो कोई किसी *दुःख से* |
*कुल मिलाकर संसारी सुख अनित्य है !*
*कैसे ??*
सांसारिक सुख-भोग असार, अनित्य और नाशवान हैं | ये सदा स्थिर रहनेवाले नहीं है आज जो *लक्ष्मी का लाल* है वह कल *दर दर का भिखारी* देखा जाता है | जो आज युवा होने पर अकड़ता हुआ चलता है वही कल बुढ़ापे के मारे लकड़ी टेक टेक कर चलता है | जिसे पहले सब लोग सुंदर कहते थे और प्रेम से अपने पास बिठाते थे अब उसके पास खड़ा होना भी नहीं चाहते | *कहने का अर्थ यह है क:-* यौवन , जीवन , मन-धन , शरीर-छाया और प्रभुता , यह सब अनित्य और चञ्चल हैं; *अतः दुःख के कारण हैं* | काया में मरण , लाभ में हानि , जीत में हार , सुन्दरता में असुन्दरता , भोग में रोग , संयोग में वियोग और सुख में दुःख - *ये सब दुःख के कारण हैं* | अगर बिना मृत्यु का जीवन , बिना अप्रसन्नता की प्रसन्नता , बिना बुढ़ापे की जवानी , बिना दुःख का सुख , बिना वियोग का संयोग और सदा-सर्वदा रहने वाला धन होता , *तो मनुष्य को इस जीवन में अवश्य सुख होता*
*यदि ध्यान से देखा जाय तो:-*
विषय भोगों में सुख नहीं है ये असार हैं | केले के पत्ते या प्याज के छिलको की तरह सारहीन हैं , फिर भी मोहवश मनुष्य विषयों में फंसा रहता है | पर एक न एक दिन मनुष्य को इन विषय-भोगों से अलग होना ही पड़ता है , अलग होने के समय विषय भोगी को बड़ा दुःख होता है इससे विषय परिणाम में दुःखदायी ही हैं |
इसके अतिरिक्त तरह तरह के पुण्य सञ्चय करने , यज्ञ-याग आदि करने अथवा दान करने से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है | वहां वह अमृत पीता और अप्सराओं को भोगता है , कल्पवृक्ष से मनवांछित पदार्थ पाता है , पर पुण्य कर्मो के नाश हो जाने या उनके फल भोग चुकने पर वह स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है | उसे फिर इसी मृत्युलोक में आना होता है | उस समय वह स्वर्ग सुखों की याद कर करके मन ही मन रोता और दुखी होता है | इसी से मुझे पुण्यफल भी भयावह मालूम होते हैं | परिणाम में वे भी दुखो के ही कारण होते हैं | *तात्पर्य यह है कि :-* संसार मिथ्या और सारहीन है इसके सुखभोग अनित्य , चञ्चल और सदा न रहने वाले हैं ! इसी से ये सब दुःख के कारण हैं | *मृत्युलोक और स्वर्गलोक में कहीं भी प्राणी को सुख नहीं है |*
*शिक्षा:--* अगर मनुष्य दुखों से दूर रहना चाहे , सदा सुख भोगना चाहे तो उसे अनित्य और नाशमान पदार्थों से अलग रहना चाहिए | उनमें मोह न रखना चाहिए | बुद्धिमान को लोक-परलोक की असारता और संयोग-वियोग का विचार करके अनित्य पदार्थो से प्रेम न करना चाहिए उसे सदा नित्य अविनाशी परमात्मा से प्रेम करना चाहिए |
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" द्वितीय भाग: !!*